खेती की लागत बढ़ने, जलवायु में बदलाव के चलते होने वाले खतरों से और बाजार की दोषपूर्ण नीतियों से घिरे हुए किसान खुद को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की महानिदेशक सुनीता नारायण का कहना है कि किसानों का साथ दिया जाना चाहिए।
भारत में हर दिन 28 से ज्यादा किसान और खेतिहर मजदूर आत्महत्या करते हैं। यह कहना है डाउन टू अर्थ मैगजीन और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा संयुक्त रूप से जारी की गई इस साल की रिपोर्ट स्टेट ऑफ इंडिया'ज एनवायरमेंट' का। इस रिपोर्ट को आज एक ऑनलाइन कार्यक्रम में देशभर के 60 पर्यावरण विश्लेषकों व कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और शिक्षाविदों की उपस्थिति में जारी किया गया।
रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में 5,957 किसानों और 4,324 खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की। 2018 में ये आंकड़े क्रमशः 5,763 और 4,586 थे।
रिपोर्ट कहती है कि 2019 में 17 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में किसान द्वारा आत्महत्या के मामले दर्ज किए गए। 2018 में 20 राज्यों में किसानों के आत्महत्या के मामले दर्ज किए, जबकि इसी साल 21 राज्यों में खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की। यह आंकड़ा 2019 में बढ़कर 24 हो गया।
कुल मिलाकर, 2019 और 2018 के बीच नौ राज्यों में किसान आत्महत्या में इजाफा देखा गया। ये नौ राज्य हैं - आंध्र प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मिजोरम, पंजाब, उत्तर प्रदेश व अंडमान व निकोबार द्वीप समूह।
डाउन टू अर्थ के प्रबंध निदेशक रिचर्ड महापात्रा पूछते हैं कि' "हमारे किसान अपनी जान क्यों ले लेते हैं? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो किसानों की आत्महत्या के कारणों को लेकर चुप है, जबकि 2016-2017 में आई एक सरकारी रिपोर्ट इसके पीछे तीन कारण बताती है- मानसून की अनियमितता के चलते फसल की बर्बादी, सिंचाई के लिए पानी की सुनिश्चित सप्लाई न होना और फसल पर कीड़ों व अन्य बीमारियों का हमला। लेकिन इन सब मौतों के पीछे जो असली कारण है वो ये है कि कृषि अब बेहद ही घाटे का सौदा बन गया है। बाज़ार किसानों को उनका सही दाम नहीं देता है।"
एक हालिया लेख में सुनीता नारायण ने बेहद विस्तार से उन कुरीतियों पर चर्चा की है, जिन्होंने कृषि को बुरी तरह प्रभावित किया है। एक तरफ जहां दुनियाभर के देश अपने यहां के किसानों और कृषि का सहयोग करते हैं और उनपर पैसा लगते हैं, वहीं भारतीय किसान इस तरफ से नुकसान में रहते हैं।
नारायण ने कहा, "भारतीय किसानों को वो आर्थिक सहयोग नहीं मिलता, जिससे कृषि को लाभदायक बनाया जा सके। इसके साथ ही, बीज से लेकर पानी और मजदूरी तक की लागत बढ़ रही है, जलवायु परिवर्तन के चलते बेहद खराब मौसम देखने को मिल रहा है। जब फसल महंगी हो जाती है तो सरकार विदेश से सस्ता अनाज आयात कर लेती है। इसके चलते हमारे किसान दोनों तरफ से कष्ट उठाते हैं। यही कारण है कि किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की मांग कर रहे हैं, ताकि कीमतों में बदलाव होने के बावजूद वे सुरक्षित रह पाएं।
उन्होंने इस तरफ भी ध्यान आकर्षित किया कि मौजूदा एमएसपी व्यवस्था दोषपूर्ण है। भले ही 22 फसलों के लिए एमएसपी तय की गई है लेकिन इसका इस्तेमाल सिर्फ गेहूं और चावल जैसी कुछ फसलों के लिए होता है जिनके लिए सरकार ने खरीद व्यवस्था बनाई है। इतना ही नहीं, सरकार के अपने आंकड़े बताते हैं कि 600 थोक बाज़ारों में 10 चुनी हुईं फसलों के तकरीबन 70 फ़ीसदी लेन-देन एमएसपी से कम पर हुए हैं।
नारायण में कहा कि, "भारत कई साल से गंभीर कृषि संकट से जूझ रहा है और इसका दुखद परिणाम हम देख रहे हैं किसानों व खेतिहर मजदूरों द्वारा की जा रही आत्महत्यायों के रूप में। यह समय है कि हम जो भोजन कर रहे हैं उसके असल दाम के बारे में बात करें और जो किसान हमारा भोजन उगा रहे हैं उनके फायदे के बारे में सोचें।"