सुमेधा शुक्ला/गौरव अरोड़ा
भारत की लगभग 69 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है और उसकी आमदनी का प्रमुख जरिया खेती है। किसानों की आमदनी को दोगुना करने संबंधी समिति ने 2017 में टिप्पणी की थी कि ग्रामीण आय या तो स्थिर है या कम हुई है। वर्ष 2000के बाद से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के अनुसार मापी जाने वाली ग्रामीण महंगाई दर और कृषि मजदूरी में वृद्धि के बीच औसत अंतर महज दो प्रतिशत रहा है।
2012 और 2017 के बीच औसत किसान परिवार की मासिक आय 8,000 रुपए से भी कम थी। 7.5 प्रतिशत की महंगाई दर के मुकाबले आय की वार्षिक वृद्धि दर 9.5 प्रतिशत थी, यानी आमदनी में होने वाली लगभग 80 प्रतिशत बढ़ोतरी खेती से जुड़े खर्चों में खप जाती थी।
इसके अलावा, भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र के योगदान में भी भारी गिरावट आई है। जहां 1950-51 में कृषि क्षेत्र का योगदान 51 प्रतिशत था, वहीं 2016-17 में यह घटकर 15 प्रतिशत रह गया। लेकिन इस दौरान कृषि कार्य में लगी श्रमशक्ति में ज्यादा कमी नहीं आई। 1950-51 में यह 70 प्रतिशत थी और 2016-17 में 54 प्रतिशत। परिणामस्वरूप, राजनीतिक तथा नीतिगत क्षेत्रों द्वारा कृषि आय में वृद्धि के लिए कदम उठाए जाने की लगातार मांग की जाती रही है।
1980 के दशक से कृषि पैदावार (उत्पादन प्रति हेक्टेयर) में बढ़ोतरी न होने तथा कृषि संबंधी जोखिम जैसे मौसम में बदलाव, कीट प्रकोप, पशुओं द्वारा पहुंचाए जाने वाले नुकसान और फसल की कीमतों में उतार-चढ़ाव का स्वाभाविक नतीजा रहा कि भारत में किसानों की आय कम और लगातार घटती-बढ़ती रही।
कृषि संबंधी जोखिम से निपटने के लिए तीन प्रमुख नीतिगत कदम उठाए गए- कृषि ऋण, फसल बीमा और फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी)। जहां ऋण और बीमा का उद्देश्य उपज से जुड़े जोखिमों को कम करना है ताकि फसल नुकसान होने की स्थिति में किसानों को घरेलू खपत और कृषि पर होने वाले निवेश के लिए सुरक्षा मिल सके, वहीं एमएसपी फसल की कीमतों में गिरावट होने पर कृषि से होने वाली आय को बनाए रखने में मदद करता है।
इस लेख के माध्यम से हमने कृषि उत्पादन से जुड़े जोखिमों को कम करने में कृषि ऋण की उपयोगिता- विशेषकर साहूकारों जैसे अनौपचारिक ऋणदाताओं के मुकाबले ग्रामीण बैंकों जैसे औपचारिक ऋणदाताओं की उपयोगिता की पड़ताल की है। भारत में ग्रामीण संस्थागत ऋण के साथ बीमा अनिवार्यत: जुड़ा है, यानी जिस मौसम की फसल के लिए किसान ने ऋण लिया है, उसे उस मौसम की फसल के लिए बीमा भी अनिवार्य रूप से लेना होगा।
औपचारिक या संस्थागत ऋण की इस खासियत के निहितार्थ आदर्श रूप में उसकी उपयोगिता अनौपचारिक ऋण के मुकाबले बढ़ जानी चाहिए थी। लेकिन हमारे देश की कमजोर संस्थाओं के कारण औपचारिक ऋण प्रणाली में कई बाधाएं आती हैं, जैसे कि उधार मिलने में देरी होना और ऋण मंजूरी में धनी तथा ऊंची जाति के किसानों के पक्ष में संस्थागत पूर्वाग्रह।
नतीजतन, औपचारिक ऋण की प्रभावी लागत उसके बाजारी मूल्यांकन से काफी बढ़ जाती है। इस वजह से नकद की तत्काल जरूरतों के लिए-खासकर कृषि संकट के समय अनौपचारिक ऋण सेक्टर पर किसानों की निर्भरता और ज्यादा होती है।
अप्रभावी ऋण वितरण प्रणाली
हम भारत में कृषि ऋण के विकास का ऐतिहासिक विवरण और अर्धशुष्क क्षेत्रों के लिए कृषि ऋण क्षेत्र में असमान ऋण उपलब्धता संबंधित कुछ नए अनुभवजन्य साक्ष्य प्रस्तुत कर रहे हैं। कुल मिलाकर हमारे अध्ययन में उन व्यवस्थागत और लगातार बनी रहने वाली कमियों को उजागर किया गया है जिनके कारण औपचारिक कृषि-जोखिम प्रबंधन प्रणाली कृषि समाज से जुड़े कमजोर वर्गों के लिए खासतौर पर अप्रभावी बनी रही है।
जोखिम कम करने और कृषि की उत्पादकता बढ़ाने में ऋण की भूमिका सुस्थापित है। जहां अल्पावधिक ऋण आमतौर पर फसल की पैदावार बढ़ाने वाले उर्वरकों और कीटनाशकों की समय पर खरीद के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, वहीं मध्यम-अवधि और दीर्घावधिक ऋणों से कृषि संबंधी बुनियादी ढांचे में निवेश कर खेती से जुड़ी परिसंपत्तियों के सृजन में मदद मिल सकती है। किसानों की आय दोगुनी करने संबंधी समिति ने पाया कि कृषि क्षेत्र में 86 फीसद निवेश, कर्ज लिए गए धन से ही किया जाता है।
ऋण की इस महत्वपूर्ण भूमिका को भारत में पहली बार औपनिवेशिक सरकार द्वारा मान्यता दी गई जिसने1870 के दशक में पड़े सूखे के दौरान किसानों को अल्पावधि ऋण प्रदान किए। इसी नीतिगत कड़ी को आगे बढ़ाते हुए वर्ष 1904 में सहकारी सोसायटी अधिनियम के द्वारा सहकारी समितियों को औपचारिक रूप दिया गया और 1912 में कृषि ऋण वितरित करने के लिए क्रेडिट समितियों को कानूनी मान्यता दी गई।
हालांकि, वर्ष 1927 में करीब 70 प्रतिशत कर्ज बकाया था तथा ऋण चुकाने की दर लगातार कम रही जिसके कारण सरकार द्वारा और हस्तक्षेप करने की आवश्यकता महसूस की गई। 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना के साथ ग्रामीण वित्तपोषण के मामलों के प्रबंधन के लिए एक विशेष प्रभाग की स्थापना की गई और ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों के माध्यम से संस्थागत ऋण देने के प्रयासों को बढ़ावा दिया गया।
लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, 1951 तक केवल 7.2 प्रतिशत किसानों ने ही किसी भी प्रकार के संस्थागत ऋण का लाभ उठाया था। संस्थागत ऋण की कम और अपर्याप्त उपलब्धता की समस्या 1950 और 1960 के दशकों में चुनौती बनी रही, जिसका प्रभाव वर्ष 1965-67 के बिहार सूखे के दौरान खासकर महसूस किया गया। परिणामस्वरूप 1969 में जब बैंकों के राष्ट्रीयकरण का पहला दौर शुरू हुआ, तब कृषि को प्राथमिकता क्षेत्र का दर्जा दिया गया और बैंकों द्वारा प्रदान किए जाने वाले कुल ऋण का एक तय हिस्सा कृषि क्षेत्र में निवेश करने का प्रावधान किया गया।
लेकिन कृषि ऋण के लेन-देन के प्रवाह में बहुत अधिक सुधार नहीं दिखाई दिया क्योंकि वाणिज्यिक बैंकों को ऐसे छोटे किसानों की जरूरतों का कोई अंदाजा नहीं था जिनके पास ऋण की गारंटी देने के लिए कुछ भी नहीं था। इसके अलावा, उधार लेने वाले ग्रामीणों के पिछले वित्तीय लेनदेन का कोई लेखा-जोखा (क्रेडिट हिस्ट्री) उपलब्ध न होना भी ऋणदाताओं को बेहद जोखिम भरा लगता था।
दूसरी ओर, सहकारी संस्थाएं और सूक्ष्म वित्तीय संगठन लघु किसान परिवारों की ऋण संबंधी जरूरतों के प्रति ज्यादा जागरूक तो थे, लेकिन उनके पास कृषि क्षेत्र की ऋण की मांग को पूरा करने लायक धन नहीं था। बेहद कम सरकारी मदद के कारण ये संस्थाएं मौजूदा सामाजिक तथा आर्थिक ढांचे पर ही निर्भर थीं, जिससे ग्रामीण क्षेत्र में गैर-बराबरी बढ़ी।
1980 में वैकल्पिक बैंकिंग ढांचे के रूप में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना हुई जिनमें सहकारी संस्थाओं और वाणिज्यिक बैंकों दोनों की खूबियां थीं। इसके बाद राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर चला और 1982 में राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) का गठन किया गया।
नाबार्ड ने स्व-सहायता समूहों के माध्यम से संस्थागत ग्रामीण ऋण को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इन सभी प्रयासों के चलते कृषि क्षेत्र में औपचारिक ऋण-उपलब्धता की स्थिति में सुधार आया। लेकिन 1981 के बाद से इसमें आगे कोई इजाफा नहीं हुआ। ऋण वितरण में गैर-बराबरी और कर्ज देने वाली संस्थाओं का लगातार घटता मुनाफा, संस्थागत ऋण वितरण प्रणाली के सामने बड़ी चुनौतियां थीं।
1991 के बाद से ब्याज दरें नियंत्रण मुक्त होने लगीं, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों में केंद्र सरकार द्वारा फिर से पूंजी डाली गई और आरबीआई द्वारा अधिक सहायता दी गई। पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने कई कृषि ऋण कार्यक्रम शुरू किए जैसे 1998-99 में किसान क्रेडिट कार्ड (या केसीसी), 2006-07 में ब्याज सहायता योजना और 2018 में प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना। इसके जरिए 0.8 हेक्टेयर तक के भू-स्वामी किसानों को प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर या डीबीटी) के माध्यम से शून्य ब्याज पर ऋण देने का प्रावधान किया गया।
इन कोशिशों के बावजूद, संस्थागत ऋण की पहुंच अब भी बहुत कम है। हाल में, नाबार्ड के अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वेक्षण (2016-17) के अनुसार परिसंपत्तियों के मालिकाना हक और औपचारिक ऋण की उपलब्धता में सीधा संबंध है। औपचारिक ऋण लेने वाले परिवारों का प्रतिशत उच्च आय वर्ग में औसतन ज्यादा है। इसके अतिरिक्त, जिन गरीब किसानों को संस्थागत ऋण की सबसे ज्यादा जरूरत है, उनकी पहुंच से यह उतना ही दूर है।
असमान ऋण उपलब्धता के साक्ष्य
हमने 2001-14 के दौरान अविभाजित आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्द्ध-शुष्क जिलों के औपचारिक ऋण लेने वाले 927 परिवारों और अनौपचारिक ऋण लेने वाले 954 परिवारों के ऋण लेने संबंधी निर्णयों के लिए उत्तरदायी सामाजिक तथा आर्थिक कारणों का अध्ययन किया। ये आंकड़े इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी-एरिड ट्रोपिक्स द्वारा करवाए गए विलेज डायनमिक्स स्टडीज के अंतर्गत हुए प्राथमिक सर्वेक्षणों का हिस्सा हैं।
हमने ऋण उपलब्धता के लिए परिवार की ऋण योग्यता दर्शाने वाले तीन कारक लिए- परिवार कितनी जमीन का मालिक है, घरेलू जनसांख्यिकी और पारिवारिक परिसंपत्तियां। नतीजे बेहद महत्वपूर्ण थे। हमने पाया कि भूमिहीन किसानों के मुकाबले भूस्वामी किसानों को औपचारिक ऋण मिलने की संभावना 1.4 गुना और अनौपचारिक ऋण मिलने की संभावना 1.2 गुना तक अधिक थी।
जमीन के हर हेक्टेयर का स्वामित्व बढ़ने से ऋण मिलने की संभावना में भी 1.2 गुना की बढ़ोतरी हो जाती है। इस प्रकार,लघु, सीमांत और भूमिहीन किसान परिवारों- जो कुल ग्रामीण परिवारों का 86 प्रतिशत हैं और भारत की कृषि भूमि के 48 प्रतिशत से भी कम के मालिक हैं, को औपचारिक या अनौपचारिक कोई भी ऋण नहीं मिल पा रहा है।
2019 की आरबीआई की एक रिपोर्ट के अनुसार लघु, सीमांत और भूमिहीन किसान परिवारों में से केवल 40 प्रतिशत को ही किसी भी तरह का संस्थागत ऋण मिल पाया था। हमने यह भी पाया कि मिट्टी की गुणवत्ता भी ऋण मिलने का एक बड़ा कारण रहा- स्वस्थ मिट्टी के मुकाबले क्षरण वाली मिट्टी होने से किसानों को ऋण मिलने की संभावना 6 गुना तक कम हो जाती है।
हमारे अध्ययन के नतीजों से इस बात की भी पुष्टि होती है कि ऋण मिलने की संभावना जाति, शिक्षा, आयु और धन के सामाजिक पदानुक्रम के आधार पर भी तय होती है। अगड़ी जातियों के परिवारों को पिछड़ी जातियों के परिवारों के मुकाबले औपचारिक व अनौपचारिक स्रोतों से कृषि ऋण मिलने की संभावना 1.3 गुना अधिक होती है।
2012 की कृषि जनगणना में भी यही पाया गया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवार देश की 20 प्रतिशत खेती की जमीन के मालिक हैं, फिर भी केसीसी योजना के तहत उन्हें केवल 12 प्रतिशत ऋण ही प्राप्त हुआ। धनी और ऐसे परिवारों को, जिनके मुखिया बड़ी उम्र के और अधिक शिक्षित हों, ऋण मिलने की संभावना अधिक होती है।
संभवत: इसकी वजह उन किसानों का बेहतर सामाजिक और आर्थिक संपर्क होता है। हमें राज्यों के बीच भी ऋण दिए जाने की दर में अंतर के साक्ष्य मिले। औसतन दक्षिण के धनी राज्यों में पश्चिम के राज्यों के मुकाबले औपचारिक व अनौपचारिक दोनों ऋण मिलना ज्यादा आसान था।
हमारे नतीजों से यह भी पता चलता है कि औपचारिक कृषि ऋण तंत्र अपने प्राथमिक लक्ष्य यानी ऋण-उपलब्धता की सामाजिक और आर्थिक बाधाओं को दूर करने में अक्षम साबित हुआ है। यह समस्या और भी बढ़ जाती है क्योंकि ऋण और बीमा को अनिवार्य रूप से एक साथ ही दिया जाता है और 95 प्रतिशत फसल बीमा धारक औपचारिक ऋण भी लेते हैं जिसका अर्थ यह है कि भारत के फसल बीमा क्षेत्रमें भी उतनी ही गैर-बराबरी है।
गहराता संकट
भारत की कृषि संस्थाओं और मौजूदा नीतियों की खामियां शायद कभी भी इतनी स्पष्ट नहीं थी जितनी कि आज हैं। कोविड-19 महामारी और इसके परिणामस्वरूप किए गए लॉकडाउन का कृषि क्षेत्र पर बुरा असर हुआ है। कोविड-19 लॉकडाउन का समय रबी की फसलों की कटाई का भी समय था।
इस कारण कई स्थानों में कटाई में देरी हुई और भंडारण सुविधाओं के अभाव के कारण कइयों की उपज बर्बाद हो गई। जिन इलाकों में समय से फसल की कटाई हुई, वहां भी किसान, व्यापारियों की मनमर्जी के मुताबिक, अपनी उपज बेचने के लिए विवश थे और उन्हें उचित दाम मिलने की कोई गारंटी नहीं थी। इस तरह अच्छी फसल होने के बावजूद भी कृषि-आय संकटग्रस्त थी।
मई, 2020 में एक और नीतिगत परिवर्तन करते हुए केंद्रीय कैबिनेट ने बीमा और संस्थागत ऋण के बीच अनिवार्य संबंध को समाप्त करने का निर्णय लिया। जब तक नीतिगत उपायों के जरिये ऋण न लेने वाले किसानों द्वारा फसल बीमा लेने को बढ़ावा नहीं दिया जाता, तब तक व्यवस्थागत गैर-बराबरी, आने वाले वर्षों में बीमा क्षेत्र में भी नजर आएगी। समय की मांग है कि ऐसे किफायती और प्रभावी जोखिम प्रबंधन उपाय किए जाएं जो हर किसान तक पहुंचें, फिर चाहे उनकी सामाजिक और आर्थिक हैसियत कैसी भी हो।
(सुमेधा शोध सहयोगी हैं और गौरव इंद्रप्रस्थ सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली में सहायक प्रोफेसर हैं)