बैठे ठाले: पूस की भोर और हलकू

ये कार्पोरेट-एग्रीकल्चर वाले मवेशियों से भी बदतर हैं। ये तुम्हारी फसल को चाट कर जाएंगे और तुमको भी भूखा मार डालेंगे
सोरित / सीएसई
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हलकू को नींद नहीं आ रही थी। पूस की रात की ठंडी हवा उसके कपड़ों को ही नहीं मानो उसके शरीर को भी चीर कर रख देती। अपनी बुझती हुई चिलम हलकू ने पूरी जोर से खींच कर एक बार फिर से सुलगाने की कोशिश की। चिलम से थोड़ा सा धुआं और तम्बाकू का कसैला सा स्वाद हलक तक पहुंचा। हलकू ने थूक दिया- “आक थू! लानत है ऐसी जिंदगी पर झबरा!” हलकू बोला, “ भाड़ में जाए खेती बाड़ी! अब और नहीं रहना इस खेती बाड़ी के चक्कर में। हम सब चलेंगे शहर। हमारे साथ शहर चलेगा न झबरा?”
“ कभी शहर गया है झबरा?” हलकू ने पूछा, “मैं करखाने-फिटकरी में काम करुंगा और हम सब चैन से रहेंगे।”
हलकू शहर के बारे में सोचता रहा। जाने कब उसे नींद आ गई। अचानक उसे लगा कि खेतों में शोर हो रहा है। झबरा बुरी तरह से भौंक रहा था। हलकू कुछ समझ पता अचानक उसे किसी ने झकझोर कर जगाया। “ हलकू! तुस्सी सो रहे हो? देखो त्वाडे खेतों नूं कौन घुस गए हैं?”
हलकू ने देखा सामने एक सरदार जी किसान खड़े थे। हलकू अचकचा कर उठ बैठा। कहीं वह कोई सपना तो नहीं देख रहा था। खेतों में अब भी शोर मचा था। हलकू को दूर कहीं से झबरा के भौंकने की आवाज आ रही थी।
हलकू बोला, “ खेतों में नीलगाय और मवेशी घुस आए होंगे।”
सरदारजी बोले, “ ये मवेशी नहीं है बल्कि कार्पोरेट-एग्रीकल्चर के लोग हैं।”
हलकू कुछ समझ नहीं पाया, कौन घुस गया है मेरी खेत में? कार्पोरेट-एग्रीकल्चर? यह क्या कोई मवेशियों की नई नस्ल है?”
सरदार जी ने हंस कर कहा,“ ये कार्पोरेट-एग्रीकल्चर वाले,मवेशियों से भी बदतर हैं। ये तुम्हारी फसल को चाट कर जाएंगे और तुमको भी भूखा मार डालेंगे। तुम्हारे खेत के मक्के-गन्ना-चावल-गेहूं को कौड़ियों में खरीदकर शहर के अपने मॉल में मोटी कीमत पर बेचेंगे और तुम गांव में भूखे मरोगे।”
हलकू ने रुआंसा होकर कहा, “फसल कभी कोई नीलगाय खा जाता है तो कभी फसल बेच कर कमाए पैसे को सहना ले जाता है। न नीलगाय का पेट भरता है और न ही सहना का उधार चुकता होता है। मैंने अब खेती छोड़ कर शहर जाने की सोच ली है।”
सरदार जी ने हलकू के कंधो पर धौल जमाते हुए कहा, “हम सब भी शहर ही जा रहे हैं। चलो हमारे साथ।” थोड़ी ही देर में हलकू ने खुद को हजारों-हजार किसानो की भीड़ में पाया। हलकू ने देखा कि जोश-ओ-खरोश से चलते जा रहे इन किसानों के हाथों में तख्तियां थीं,“ हमें अपनी फसल की सही कीमत दो।”, “किसान एकता जिंदाबाद।”
जोश-ओ-खरोश से भरे यह किसानों का जत्था जिस गांव से होकर गुजरता इसमें नई भीड़ शामिल होती जाती। हलकू को अब काफी कुछ समझ में आने लगा था। उसने भी नारे लगाने शुरू कर दिए। पहले धीरे से और फिर पूरी तरह गला फाड़ कर। दूर क्षितिज पर नया सूरज उग रहा था।
हलकू के साथ चल रहे एक किसान से पूछा, “भाई क्या हम सब शहर में काम की तलाश में जा रहे हैं?”
हलकू ने मुस्कुराते हुए कहा,“नहीं भाई हम सब शहर जा रहे हैं, जिससे हमारे खेतों में घुस आए मवेशिओं को हमेशा के लिए भगाया जा सके।”

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