चारा संकट की जड़ें, भाग एक: हरित क्रांति के समय से शुरू हो गई थी समस्या

हरित क्रांति के समय से चारे की उपेक्षा हो रही है। चारा फसलों का घटता क्षेत्र और उच्च उत्पादन वाली बौनी किस्मों ने इस संकट को बढ़ाया ही है
चारा फसलों की उपेक्षा के चलते मौजूदा समय में देश चारे की कमी से जूझ रहा है  (फोटो: विकास चौधरी)
चारा फसलों की उपेक्षा के चलते मौजूदा समय में देश चारे की कमी से जूझ रहा है (फोटो: विकास चौधरी)
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भारत विश्व की 20 प्रतिशत पशुधन आबादी के साथ सर्वाधिक दुग्ध उत्पादन करने वाला देश है। संयुक्त राष्ट्र के कृषि एवं खाद्य संगठन के अनुसार, यहां के 70 प्रतिशत परिवार आजीविका के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि एवं इससे जुड़े व्यवसाय पर निर्भर हैं। पशुपालन आदि काल से ही मानव सभ्यता के साथ जुड़ा रहा है, परंतु पिछले कुछ सालों में चारे की बढ़ती कीमतों ने इस व्यवसाय को बुरी तरह से प्रभावित किया है। पशुपालक औने-पौने दाम पर मवेशी बेचकर दूसरे व्यवसाय की तरफ जाने को मजबूर हो रहे हैं। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय द्वारा मार्च 2023 में जारी थोक मूल्य सूचकांक के आंकड़े बताते हैं कि चारे की वार्षिक मुद्रास्फीति दर फरवरी 2023 में 24 प्रतिशत रही और यही मुद्रास्फीति दर गत नवंबर में अपने रिकॉर्ड स्तर 30.93 पर थी।

चारे की यह वार्षिक मुद्रास्फीति दर समग्र थोक मूल्य सूचकांक में मुद्रास्फीति दर के विपरीत है, क्योंकि समग्र थोक मूल्य सूचकांक में मुद्रास्फीति दर फरवरी 2023 में पिछले 2 वर्षों के न्यूनतम स्तर 3.85 पर थी। सामान्य अर्थशास्त्र कहता है कि आर्थिक वस्तु की कीमतें मांग एवं आपूर्ति के बाजार सिद्धांत द्वारा निर्धारित होती हैं। क्या इसका यह मतलब है कि वर्तमान कीमतें चारे की कम आपूर्ति व अधिक मांग की वजह से हैं? ऐसा ठीक से कह पाना मुश्किल है, क्योंकि हमारे देश में चारे के उत्पादन, मांग एवं आपूर्ति से संबंधित देशव्यापी सालाना आंकड़े किसी भी सरकारी या गैर सरकारी संस्था द्वारा जारी नहीं किए जाते। चारे की उपलब्धता, मांग एवं आपूर्ति से संबंधित आंकड़ों का एकमात्र प्रामाणिक दस्तावेज भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद– भारतीय चारा एवं चारागाह अनुसंधान संस्थान, झांसी द्वारा 10 साल पहले जारी किया गया “आईजीएफआरआई विजन 2050” दस्तावेज है जिसमें वर्ष 2020 के लिए 35.6 प्रतिशत हरे चारे व 10.9 प्रतिशत सूखे चारे की कमी का अनुमान व्यक्त किया गया है। 10.9 प्रतिशत चारे की कमी से चारे की वार्षिक मुद्रास्फीति दर रिकॉर्ड स्तर पर पहुंची हो ऐसा नहीं है।

20 मार्च 2023 को जारी संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की छठवीं संश्लेषण रिपोर्ट से स्पष्ट है कि वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 1.1 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न चरम मौसम की घटनाओं जैसे बेमौसम बारिश, मॉनसून का देर से आना तथा जल्द वापसी, गर्मियों के मौसम का जल्दी आना आदि ने कृषि उत्पादकता को बुरी तरह से प्रभावित किया है। रबी के मौसम में तेजी से तापमान में वृद्धि होने से गेहूं की फसल की वानस्पतिक वृद्धि रुक जाती है तथा बालियां व फूल जल्दी निकलने लगते हैं।

ऐसे में फसल की उपज तो घटती ही है, साथ ही भूसे का उत्पादन भी बहुत कम हो जाता है। फसल कटाई एवं मड़ाई के लिए मशीनों (हार्वेस्टर एवं कंबाइन) के प्रयोग का चलन भी बढ़ा है। कंबाइन से कटाई एवं मड़ाई करने पर केवल अनाज की बालियों को ही काटा जाता है तथा शेष फसल अवशेष (ठूंठ) को खेत में ही छोड़ दिया जाता है, जिसे बाद में किसान जलाकर नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार भूसे का उत्पादन बिल्कुल न के बराबर ही मिलता है तथा फसल अवशेष जलाने से पर्यावरण भी प्रदूषित होता है।

कुछ किसान यदि फसल को फसल को हार्वेस्टर की मदद से फसल अवशेष के साथ भी काटते हैं तो हाथ से परंपरागत कटाई-मड़ाई की तुलना में कम ही भूसा प्राप्त होता है। हाल के वर्षों में सिंचाई के पानी की समस्या के चलते हरियाणा-पंजाब के बहुत से किसानों ने परंपरागत धान-गेहूं की जगह पर कम पानी चाहने व अधिक आमदनी देने वाली फसलों जैसे चना, सरसों आदि उगाना शुरू कर दिया है जिससे भूसे की उपलब्धता में प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इसके साथ ही व्यापक स्तर पर फसल पद्धति में बदलाव भी वर्तमान चारा संकट का प्रमुख कारण है। फसल पद्धति में इस बदलाव को दो या आयामों में समझा जा सकता है- क्षैतिज बदलाव: चारा समृद्ध फसलों से दूर जाना, तथा ऊर्ध्वाधर बदलाव: अधिक अनाज व कम चारा वाली प्रजातियां उगाना।

चारा फसलों से दूरी

हरित क्रांति से पहले भारत में धान, मोटे अनाज, ज्वार, बाजरा, मक्का, जौ, गेहूं आदि प्रमुख फसलें थीं, जिनमें से धान और मोटे अनाजों का संयुक्त उत्पादन गेहूं, मक्का तथा जौ के कुल उत्पादन से अधिक था। हरित क्रांति के बाद शुद्ध कृषित क्षेत्र जहां 1950 के 97.32 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 139.04 मिलियन हेक्टेयर हो गया है, वहीं मोटे अनाजों का क्षेत्रफल 37.67 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 25.67 मिलियन हेक्टेयर हो गया है। उदाहरण के तौर पर 1960-61 और 2020-21 के बीच ज्वार का क्षेत्रफल 77 प्रतिशत (18.4 से घटकर 4.2 मिलियन हेक्टेयर) घट गया है, तथा इसी अवधि में बाजरे का क्षेत्रफल 44 प्रतिशत (11.5 से घटकर 7.6 मिलियन हेक्टेयर) घट गया है (देखें, घटता रकबा)।

ये दोनों फसलें प्राकृतिक रूप से चारा समृद्ध (अधिक चारा उत्पादन वाली) फसलें हैं, क्योंकि ज्वार में प्रति 1 किलोग्राम अनाज पर 3 किलोग्राम भूसा/कट्टी/कड़वी तथा बाजरे में प्रति 1 किलोग्राम अनाज पर 4 किलोग्राम भूसा/कट्टी/कड़वी का उत्पादन होता है। लेकिन हरित क्रांति के बाद के दिनों में इन फसलों के घटते क्षेत्रफल के कारण सूखे चारे के रूप में इनके डंठल/कड़वी/कट्टी की उपलब्धता व उपयोग तेजी से घटा है। “एशियन एग्री-हिस्ट्री” नामक एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में 2007 में प्रकाशित 12 राज्यों के 28 जिलों में किया गया अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है कि अध्ययन क्षेत्र के किसानों ने क्षेत्रीय फसलों तथा मोटे अनाज की खेती छोड़कर अधिक खाद, पानी चाहने वाली नकदी फसलें जैसे गन्ना, कपास, धान, सब्जियां आदि की खेती प्रारंभ कर दी है।

2010 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली के अल्का पाल तथा सुरेश सिंह ने“द शिफ्टिंग पैटर्न्स आफ एग्रीकल्चरल प्रोडक्शन एंड प्रोडक्टिविटी वर्ल्डवाइड” नामक पुस्तक में लिखा है कि 1981 की तुलना में 2006 में अनाजों का कुल उत्पादन में हिस्सा 39 प्रतिशत से घटकर 30 प्रतिशत हो गया है, जबकि इसी अवधि में फल एवं सब्जियों का हिस्सा 16 से बढ़कर 25 प्रतिशत हो गया है। कृषि अध्ययन के लिए बंगलुरु स्थिति चैरिटेबल ट्रस्ट फाउंडेशन द्वारा 2018 में प्रकाशित “क्रॉपिंग पेटर्न चेंज इन केरल 1956-57 टू 2016-17” नामक अध्ययन में भी खाद्यान्न फसलों से गैर-खाद्यान्न फसलों की तरफ बदलाव स्पष्ट दिखता है।

इस अध्ययन में पाया गया है कि केरल के कुल कृषि क्षेत्र में धान का हिस्सा पिछले 60 वर्षों में 30 से घटकर 7 प्रतिशत हो गया है, जबकि इसी अवधि में नारियल का क्षेत्रफल 21 से बढ़कर 30 प्रतिशत व रबड़ का क्षेत्रफल 4 से बढ़कर 21 प्रतिशत हो गया है। 2011 में बांग्लादेश इंस्टिट्यूट आफ डेवलपमेंट स्टडीज (ढाका स्थित एक स्वायत्तशासी संस्था) ने 1970-71 से 2006-07 तक के राष्ट्रीय आंकड़ों का विश्लेषण किया और पाया कि लगभग 4 दशक में मोटे अनाजों का क्षेत्रफल अप्रत्याशित रूप से घटा है। सकल कृषि भूमि में अनाजों का हिस्सा 1970-71 के 61.39 से घटकर 2006-07 में 52.21 प्रतिशत रह गया, साथ ही खाद्यान्नों का हिस्सा 76 से घटकर 64 प्रतिशत हो गया। जबकि 1986-87 के बाद से गैर-खाद्यान्न फसलों तथा नकदी फसलों के क्षेत्रफल में वृद्धि देखी गई और यह वृद्धि 1990 (वैश्वीकरण) के बाद और अधिक गतिमान हुई है।

ज्यादा उपज वाली किस्में

ऊर्ध्वाधर बदलाव से तात्पर्य है कि किसी फसल के कुल कृषि क्षेत्रफल में कोई कमी या बदलाव नहीं हुआ है लेकिन उसी फसल की परंपरागत प्रजातियों को नई विकसित ऐसी प्रजातियों से स्थानांतरित कर दिया गया है जिनका अनाज उत्पादन व बाजार मूल्य तो अधिक है परंतु भूसा उत्पादन क्षमता परंपरागत प्रजातियों की तुलना में कम है। हरित क्रांति की सफलता प्रमुख रूप से इसी बदलाव पर आधारित थी। उच्च उत्पादन क्षमता वाली बौनी प्रजातियां (एचवाईवी) का विकास हुआ जिनकी उत्पादन क्षमता परंपरागत प्रजातियों की तुलना में लगभग दोगुनी थी, परंतु पौधों की लम्बाई बहुत कम थी। एक अध्ययन के अनुसार, पिछले एक दशक में गेहूं के पौधे की लंबाई लगभग आधी हो गई है (देखें, बौनी किस्में)।

हरित क्रांति से पूर्व उगाई जाने वाली धान एवं गेहूं की परंपरागत प्रजातियों में पौधों की लंबाई अधिक होती थी, जिससे वे अधिक भूसा उत्पादन करती थीं। इनमें अनाज एवं भूसे का अनुपात 1:3 होता था, लेकिन उच्च उत्पादन क्षमता वाली नई प्रजातियों में पौधों की लंबाई कम हो गई है तथा अनाज उत्पादन ज्यादा है। इन प्रजातियों में अनाज एवं भूसा लगभग समान अनुपात (1:1 या 1:1.5) में पाया जाता है। इस प्रकार खाद्यान्न सुरक्षा के लक्ष्य को पाने के उद्देश्य से विकसित नई प्रजातियों ने नि:संदेह खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया परंतु सूखे चारे का संकट खड़ा कर दिया है।

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्रकाशित “हैंडबुक आफ स्टैटिसटिक्स ऑन द इंडियन इकोनामी 2021-22” के आंकड़ों से पता चलता है कि हरित क्रांति के बाद के तीन दशक से भी कम समयावधि (1970-71 से 1998-99) में उच्च उत्पादन क्षमता वाली प्रजातियों का क्षेत्रफल 5 गुना से भी अधिक हो गया है। आर्थिक एवं सांख्यिकी निदेशालय, कृषि एवं सहकारिता विभाग, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़े दर्शाते हैं कि प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्यों में उच्च उत्पादन क्षमता वाली प्रजातियों का क्षेत्रफल 2000-01 से 2007-08 के दौरान 8 सालों में लगभग 3 गुना हो गया है (देखें, विस्तारवादी किस्में,)।


परंपरागत प्रजातियों की जगह पर उच्च उत्पादन क्षमता वाली प्रजातियों की बढ़ती लोकप्रियता के इन आंकड़ों का यदि बढ़ते चारा संकट के आलोक में विश्लेषण किया जाए तो प्रतीत होता है कि प्रजातियों के बौनीकरण ने भी चारा संकट को बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की है। हालांकि उच्च उत्पादन क्षमता वाली प्रजातियों के क्षेत्रफल में वृद्धि के कारण भूसा उत्पादन में कमी और चारे की गणना करना इतना आसान नहीं है जितना यह प्रतीत होता है, क्योंकि सभी उच्च उत्पादन क्षमता वाली प्रजातियों के पौधों की लंबाई एक समान नहीं है। अलग-अलग प्रजातियों के पौधों की लंबाई अलग-अलग व उनका क्षेत्रफल भिन्न होने के कारण वास्तविक अनुमान के लिए समय-सापेक्ष आंकड़ों के साथ ठोस वैज्ञानिक अनुसंधान किए जाने की आवश्यकता है। इससे न केवल चारा संकट का समाधान तलाशने के उद्देश्य से बेहतर नीति बनाने में मदद मिलेगी बल्कि पादप प्रजनकों को भी बौनी प्रजातियों के दुष्प्रभावों के बारे में पता चलेगा।

(लेखक वाराणसी स्थिति उदय प्रताप स्वायत्तशासी महाविद्यालय में सस्य (एग्रोनॉमी) विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं)

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