दाल का संकट: पर्यावरण व सेहत के लिए जरूरी है दालें

दालों का थाली से कम होना या बजट से बाहर होना भारत जैसे विकासशील देशों में पोषण और खाद्य सुरक्षा पर असर डालेगा
दाल का संकट: पर्यावरण व सेहत के लिए जरूरी है दालें
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भारत दाल-चावल, दाल-रोटी खाकर गुजर-बसर करने वाला देश रहा है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से आम आदमी की थाली से दालें गायब हो रही हैं। वजह, दालों का उत्पादन-रकबा आबादी के अनुपात में नहीं बढ़ा है और कीमतें बढ़ने से दालें गरीबों के बजट से बाहर हो रही हैं। वहीं दूसरी ओर कम उपज, लाभकारी मूल्य न मिलना, जलवायु के उतार-चढ़ाव के प्रति अधिक संवेदनशीलता के कारण पोषण का खजाना और पर्यावरण हितैषी इस फसल से किसानों का मोहभंग हो चला है। बहुत से किसानों ने दलहन की जगह गेहूं, धान या सोयाबीन जैसी फसलों से नाता जोड़ लिया है। यह स्थिति क्यों आई और भारतीय कृषि पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? आखिर क्यों दालों के सबसे बड़े उत्पादक और उपभोक्ता देश की आयात पर निर्भरता बढ़ रही है? दालों की कम उपलब्धता स्वास्थ्य को किस प्रकार प्रभावित करेगी और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? डाउन टू अर्थ ने इन तमाम प्रश्नों के उत्तर तलाशती एक रिपोर्ट तैयार की। पहली कड़ी आप पढ़ चुके हैं। दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा कि किसान सोयाबीन की फसल को तरजीह दे रहे हैं । इससे आगे की कड़ी में आपने पढ़ा, गेहूं चावल की तरह मुफ्त में क्यों नहीं मिल रही दाल । अगली कड़ी में आपने पढ़ा, दालों के कारोबार पर कॉरपोरेट की नजर । पढ़ें अगली कड़ी - 

खाद्य और पोषण सुरक्षा में दालों के महत्व को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने साल 2016 को इंटरनेशनल ईयर ऑफ पल्सेस घोषित किया गया था। इस मौके पर जारी खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की “सॉइल एंड पल्सेस : सिंबायोसिस ऑफ लाइफ” रिपोर्ट में दालों और मिट्टी से गुणवत्ता के मध्य अंतरनिर्हित संबंध स्थापित किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, टिकाऊ खाद्य उत्पादन, खाद्य एवं पोषण सुरक्षा और सतत विकास के लक्ष्य (एसडीजी) को हासिल करने के लिए दालें और मिट्टी की गुणवत्ता बहुत जरूरी हैं। दोनों एक-दूसरे की पूरक है। एफएओ की रिपोर्ट के अनुसार, मिट्टी बहुत सी पारिस्थितिक सेवाएं प्रदान करती है जो मानव कल्याण और धरती पर जीवन का मूल आधार है।


आबादी के विकास और उपभोग की प्रवृत्ति में बदलाव के कारण मिट्टी पर दबाव काफी बढ़ गया है। मिट्टी का अधिक उत्पादन के दबाव के कारण उसकी गुणवत्ता लगातार क्षीण हो रही है। अनुमान के मुताबिक, दुनिया की 33 प्रतिशत भूमि डिग्रेड अथवा बंजर हो चुकी है। रिपोर्ट आगे बताती है कि मिट्टी को गुणवत्ता को बनाए रखने या बढ़ाने में दालें उपयोगी साबित हो सकती हैं। दलहन और फलियों की जड़ों में मिट्टी को समृद्ध करने वाले बैक्टीरिया होते हैं जिन्हें सामूहिक रूप से राइजोबियम कहा जाता है। इसीलिए दालें पर्यावरणीय नाइट्रोजन का जैविक स्थरीकरण करती हैं। साथ ही फास्फेट का कैल्शियम और आयरन फास्फेट से विलयन करती है। नाइट्रोजन स्थरीकरण और फास्फोरस चक्र में योगदान के अलावा दालें मिट्टी में जैविक तत्वों को बढ़ाती है, गुणवत्ता सुधारती है और उसकी जैव विविधता बरकरार रखती है।



दालें सिंथेटिक उर्वरकों की जरूरतों को भी कम करती हैं। इससे मिट्टी और जल प्रदूषण का खतरा काफी कम हो जाता है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से लड़ने में भी दालें मददगार हैं। नाइट्रोजन स्थरीकरण से 100 मिलियन मीट्रिक टन नाइट्रोजन वातावरण से प्राप्त होती है जिससे नाइट्रोजन उर्वरक के रूप में 10 बिलियन डॉलर की बचत होती है। अकेली मसूर की खेती से 35-100 किलो प्रति हेक्टेयर तक नाइट्रोजन का स्थरीकरण होता है। इसके अलावा दालों की खेती में सिंथेटिक उर्वरक के कम इस्तेमाल से अप्रत्यक्ष रूप से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भी कमी आती है। दलहन से मृदा कार्बन का प्रथक्करण भी होता है जो मृदा अपरदन रोकने में मददगार है। सुभाष चंद्रन के अनुसार, दालें (खेती बढ़ने पर) मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ा सकती हैं, उर्वरता को मजबूती दे सकती हैं और वैश्विक स्तर पर खाद्य फसलों की खेती के लिए जरूरी प्रमुख उर्वरकों की खपत में लाखों टन की कमी ला सकती हैं। एफएओ की रिपोर्ट के अनुसार, खाद्य सुरक्षा, पोषण और मानव को स्वस्थ रखने के लिए दलहन महत्वपूर्ण फसल है। यह कृषि को अधिक टिकाऊ बनाती है।

दालों का उपभोग मनुष्य के स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। इससे हृदय की बीमारियों, मधुमेह और मोटापे का खतरा काफी कम हो जाता है। दालों का उपयोग बहुत सी गैर संक्रामक रोगों से बचाव में मददगार है। भोजन में प्रोटीन की कम मात्रा कई बार प्रोटीन-एनर्जी-कुपोषण (पीईएम) का कारण बनता है जिससे विभिन्न प्रकार के एनीमिया हो सकता है। दालें एनीमिया से लड़ने में मदद करती हैं। विकास संवाद से जुड़े और पोषण पर गहन शोध करने वाले सचिन कुमार जैन दालों के महत्व को समझाते हुए बताते हैं कि मानव उपभोग के लिए दाल प्रोटीन का बेहद अहम स्रोत है। शरीर के विकास और अंदरूनी मरम्मत के लिए प्रोटीन जरूरी होता है। प्रोटीन के अन्य स्रोतों की तुलना में दाल के उत्पादन में बहुत कम कार्बन फुटप्रिंट होता है। उनका कहना है, “खाद्य उत्पादन के लिए नाइट्रोजन एक बेहद अहम पोषण तत्व होता है। अन्य फसलें मिट्टी से नाइट्रोजन खींचती हैं और इस पोषक तत्व की जरूरत पूरी करती हैं, किन्तु दालें इस मामले में बेहद विशेष हैं क्योंकि वे अपनी नाइट्रोजन की जरूरत वायुमंडल से लेकर पूरी कर लेती हैं। ऐसे में दालों को रासायनिक नाइट्रोजन उर्वरक की जरूरत नहीं पड़ती। एक मायने में दालें वायुमंडल से नाइट्रोजन लेकर मिट्टी की जरूरत भी पूरी करती हैं और अन्य फसलों से पैदा हुए कार्बन फुटप्रिंट को कम करती हैं।”

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनियाभर में 80 प्रतिशत हृदय रोग, स्ट्रोक, टाइप टू डाइबिटीज और एक तिहाई कैंसर की रोकथाम स्वस्थ भोजन से की जा सकती है। दालों को अनिवार्य रूप से भोजन में शामिल करके ब्लड कॉलेस्ट्रॉल और रक्त में ग्लूकोज कम किया जा सकता है। इससे मधुमेह और हृदय की बीमारियों को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। मांस के बदले दालों से उपभोग से प्रोटीन हासिल करके जहां सैचुरेटेड फैट को भी सीमित किया जा सकता है, वहीं फाइबर की मात्रा बढ़ाई जा सकती है। दालों से मिलने वाला अमीनो एसिड जैविक रूप से प्राप्त होता है जो मीट आधारित प्रोटीन से कम हासिल होता है। दालों में सीमित वसा होता है और कॉलेस्ट्रोल तो बिल्कुल नहीं होता। स्वास्थ्य और पर्यावरण को दालों से मिलने वाले प्रत्यक्ष या परोक्ष लाभ से किसान भलीभांति परिचित हैं, इसीलिए फसल चक्र में दलहन शामिल रहती है लेकिन यह चक्र कुछ दशकों से टूट रहा है। यह पर्यावरण और स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं है।


पोषण से वंचित

एनल्स ऑफ न्यूयॉर्क अकैडमी ऑफ साइंसेस में 2017 में प्रकाशित जॉन मैकडरमोट और अमांडा जे वाट का अध्ययन बताता है कि दुनियाभर में संपूर्ण आहार में दालों की हिस्सेदारी काफी कम है। 2016 को जब इंटरनेशनल ईयर ऑफ पल्सेस घोषित किया गया तब इसका एक उद्देश्य यह था दालों के उपभोग को बढ़ाकर हफ्ते में कम से कम तीन ये पांच बार 60-100 ग्राम दाल भोजन में शामिल रहे। अर्थात साल में प्रति व्यक्ति 15-25 किलो उपभोग बढ़ाया जाए।

दुनिया में प्रति व्यक्ति दालों की खपत की व्यापक गणना नहीं की जाती। हालांकि दुनिया के अलग-अलग देशों में प्रति व्यक्ति दालों का उपभोग अलग है। उदाहरण के लिए उच्च आय वाले देशों में हर साल प्रति व्यक्ति औसतन 2 किलो दाल का उपभोग होता है। जबकि एशिया और लैटिन अमेरिका जैसे मध्य आय वाले देशों में यह उपभोग प्रति व्यक्ति 10-15 किलो प्रतिवर्ष है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के अनुसार, भारत में पुरुषों और महिलाओं के लिए रेकमेंडेड डाइटरी अलाउंस (आरडीए) प्रतिदिन क्रमश: 60 और 55 ग्राम दाल है। राष्ट्रीय पोषण संस्थान ने साल 2011 में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 80 ग्राम दाल और साल में 29.2 किलो ग्राम खाने की अनुशंसा की थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 80 ग्राम दाल खाने की वकालत करता है। लेकिन क्या भारतीय अनुशंसित दाल की मात्रा का सेवन कर रहे हैं? जवाब है नहीं? क्योंकि दालों की प्रतिदिन प्रति व्यक्ति उपलब्धता केवल 55 ग्राम ही है। अगर 1951 की बात करें तो यह उपलब्धता 60.7 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन थी (देखें, उत्पादन और आयात मिलकर नहीं पूरी कर पा रहे भारत में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता,)।

आंकड़ों से स्पष्ट है कि भारत में दालों की उत्पादन आबादी के अनुपात में नहीं बढ़ा है जिससे “आम आदमी का मीट” मानी जाने वाली दालें थाली से कम होती जा रही हैं। ग्लोबल फूड सिक्युरिटी जर्नल में अप्रैल 2021 में प्रकाशित अंजली टेरेसा जॉन, संचित मक्कड़, सुमति स्वामीनाथन, सुमेधा मिनोचा, पैट्रिक वेब, अनूरा व कुरपड़ और टिंकू थॉमस का अध्ययन “फैक्टर एन्फ्यूएंसिंग हाउसहोल्ड पल्स कंजप्शन इन इंडिया : ए मल्टीलेवल मॉडल एनेलिसस” बताता है कि भारत में दालें सदियों से उगाई और खाई जा रही हैं लेकिन कुल खाद्य उत्पादन में दाल की हिस्सेदारी कम हुई है। 1950-51 में कुल खाद्य उत्पादन में दाल का योगदान 16.6 प्रतिशत था जो 2014-15 में घटकर 7 प्रतिशत रह गया है। इसकी बड़ी वजह यह है कि अन्य फसलों की तुलना में दालों का उत्पादन काफी पिछड़ गया है। यही वजह है कि दालों की उपलब्धता गिर गई है (देखें, उत्पादन और उपभोग,)।

दालों का थाली से कम होना या बजट से बाहर होना भारत जैसे विकासशील देशों में पोषण और खाद्य सुरक्षा पर असर डालेगा। 2015-16 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वेक्षण-4 के अनुसार, देश में पांच साल तक के 38.4 प्रतिशत बच्चे स्टंटेड (उम्र के अनुसार लंबाई में कमी), 28.5 प्रतिशत बच्चे वेस्टेड (लंबाई के अनुसार कम वजन) हैं। साथ ही 35.8 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट यानी अल्पपोषित हैं। भारत में बच्चों और महिलाओं में एनीमिया की गंभीर स्थिति है। सर्वेक्षण के अनुसार, 58.6 प्रतिशत बच्चे और 50 प्रतिशत से अधिक महिलाएं एनीमिया यानी खून की कमी से जूझ रही हैं। ये आंकड़े कुपोषण के गंभीर स्तर की ओर इशारा करते हैं। सचिन कुमार जैन बताते हैं कि प्रोटीन बच्चों और किशोर वय व्यक्तियों के विकास के साथ ही गर्भवती और धात्री महिलाओं के लिए बहुत जरूरी पोषक तत्व है। यह शरीर के विकास का आधार होता है। भारत में दालें प्रोटीन का अहम स्रोत है, लेकिन भारत में औसतन दाल उपभोग लगभग 50 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन होता है, जबकि यह 80 ग्राम होना चाहिए। सचिन कुमार जैन के अनुसार, “भारत की वंचित 50 प्रतिशत आबादी के भोजन में 30 ग्राम से भी कम दाल होती है। प्रोटीन की कमी भारत में बच्चों में कुपोषण का बहुत बड़ा कारण है। सरकार कुपोषण से मुक्ति चाहती है, तो उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली में प्रति व्यक्ति 900 ग्राम दाल का प्रावधान करना चाहिए।”

उन्नत बीजों तक सीमित पहुंच

स्टैंडिंग कमेटी ऑफ पार्लियामेंट ऑन एग्रीकल्चर की सिफारिश पर 1999, जनवरी में बनाई गई एक्सपर्ट कमेटी के चेयरमैन रहे वैज्ञानिक आरएस परोडा ने 15 मई, 2000 को रिपोर्ट में कहा कि नेशनल पल्सेस डेवलपमेंट प्रोजेक्ट (एनपीडीपी) की समीक्षा की जानी चाहिए और दालों का उत्पादन देश में बढ़ाने के लिए कार्ययोजना बनाई जानी चाहिए। इन सिफारिशों में इसमें बीजों के उन्नत किए जाने और उन्हें उचित मात्रा में किसानों तक पहुंचाने की सिफारिशें थीं। हालांकि, जरूरत से ज्यादा उत्पादित होने वाले बीज दलहन क्षेत्र के लिए अब भी एक बड़ी मुसीबत हैं।

नेशनल सीड कॉर्पोरेशन प्रोग्राम राज्यों से बीज की मांग के अधार पर बीजों को तैयार करता है। राज्य के उच्च कृषि अधिकारी अपने नीचे के जिला स्तर के अधिकारी से संबंधित फसल की बीज किस्मों (वैराइटी) की जरूरत को लेकर तीन वर्ष की जरूरत का रणनीति दस्तावेज भेजने को कहते हैं। पहले यह प्रक्रिया पांच वर्षों के लिए होती थी। जिले में ब्लॉक स्तर के अधिकारी किसानों के हिसाब से बीजों की नई-पुरानी किस्मों की जरूरत का हिसाब लगाकर तीन वर्ष की जरूरत का आंकड़ा राज्यों को भेजते हैं। यह आंकड़ा सबंधित फसल के निदेशालयों को भेजा जाता है। हर वर्ष एक बैठक होती है, जो विभिन्न किस्म की बीज की जरूरत के हिसाब से उसे तैयार करने के लिए रणनीति बनाते हैं। ब्रीडर सीड हर जगह की डिमांड के हिसाब से करीब 10 फीसदी अधिक पैदा किया जाता है, फिर दलहनों की उपज को बढ़ाने वाली किस्में क्यों नहीं अभी तक बनाई गई? आईआईपीआर के वरिष्ठ वैज्ञानिक सी भारद्वाज बताते हैं कि इसकी बड़ी वजह राज्यों की ओर से सही-सही बीज किस्मों की जरूरत का अनुमान न लगाया जाना है। जब नई किस्में राज्यों को भेज दी जाती हैं तो किसान उन्हें सही से अपनाते नहीं क्योंकि उन्होंने संबंधित किस्म के बीज मांग ही नहीं की होती है। कृषि राज्य का विषय है, इसलिए किसानों की जरूरतों को उसे ठीक से समझना और दस्तावेज बनाना उसका काम होना चाहिए। सिर्फ बीज का उत्पादन ज्यादा होने से ही काम नहीं होगा। मांग के अनुरूप बीज का उत्पादन और आपूर्ति होनी चाहिए।

बीजों के फेरबदल यानी सीड रिप्लेसमेंट रेट (एसआरआर) का मामला भी काफी मंद है। एसआरआर बताता है कि कितना इलाका प्रमाणित बीजों से और कितना खेतों से बचाए गए बीजों से बोया गया है। प्रमाणित बीजों का असर सीधा उपज पर पड़ता है। आईआईपीआर, कानपुर के वैज्ञानिक आईपी सिंह डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि अरहर में सीड रिप्लेसमेंट रेट 35 फीसदी पहुंच गया है। इसी की बदौलत बीते कुछ वर्षों में अरहर में बढ़ोतरी हुई है। जबकि भोपाल स्थित दाल निदेशालय के मुताबिक, 2021-22 में अरहर का सामान्य एसआरआर 42 फीसदी तक होना चाहिए। नीति आयोग के वर्किंग ग्रुप की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 15 फीसदी कुल फसलों में ताजा प्रमाणित बीजों का इस्तेमाल प्रति वर्ष किया जाता है जबकि 85 फीसदी बुवाई खेतों में बचाए बीजों से होती है। यह अनुपात विभिन्न फसलों के साथ अंतर कर सकता है। दालों के मामले में यह 20 से 100 फीसदी तक है।

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