मलिक असगर हाशमी
हरियाणा के किसान ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ से छुटकारा चाहते हैं। किसानों को लगता है कि योजना उन्हें लाभ से कहीं अधिक आर्थिक और मानसिक हानि पहुंचा रही है। यही कारण, तीन साल पहले योजना लागू होने के साथ ही सरकार द्वारा बिछाए इस जाल से निकलने के लिए वे निरंतर प्रयासरत हैं। इसके लिए आंदोलनों के साथ हरियाणा पंजाब हाई कोर्ट में कानूनी लड़ाई भी लड़ी जा रही है।
‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ दरअसल केंद्र सरकार की एक स्कीम है, जिसे प्रदेश सरकारों को किसानों के ‘हित’ में अपनी सुविधानुसार लागू करना है। कहने को योजना प्राकृतिक आपदा और बीमारी से फसलों की बर्बादी की भरपाई के लिए है। मगर इसमें इतने झोल और पेंच हैं कि योजना लागू होने के बाद से इसके विभिन्न पहलुओं पर निरंतर सवाल उठाए जा रहे हैं। पंजाब जैसे प्रदेशों ने तो कृषकों को इस मामले में छूट दी हुई है कि वे चाहें तो योजना में शामिल हो सकते हैं, अन्यथा उन पर कोई दबाव नहीं है। हरियाणा में ऐसा नहीं है। केंद्र की योजना को सिरे चढ़ाने के लिए प्रदेश सरकार ने पूरी शक्ति झोंक रखी है। किसानों की बिना सहमति के उनके बैंक खातों से बीमा की किस्तों के नाम पर मोटी रकम निकाली जा रही है।
भारतीय किसान यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष पद से सप्ताह भर पहले इस्तीफा देने वाले गुरूनाम सिंह कहते हैं कि सरकार, बैंक और बीमा कंपनियों के व्यवहार से लगता है कि यह ‘फसल बीमा’ कम ‘बैंक लोन बीमा’ ज्यादा है। इस मामले में रिजर्व बैंक ऑफ इंडियान की बैंक नियमावली की भी अनदेखी की जा रही हैं।
योजना वापस लेने के लिए पिछले तीन वर्षों से हरियाणा पंजाब हाई कोर्ट में किसानों की लड़ाई लड़ने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता जितेंद्र सिंह ‘तूर’ कहते हैं कि आरबीआई की ओर से बैंकों को स्पष्ट निर्देश है कि किसी भी मामले में ग्राहकों के बैंक खातों से बगैर उनकी अनुमति कोई रकम नहीं निकाली जा सकती। मगर फसलों के लिए किसनों को कर्ज देने वाले हरियाणा के बैंक आरपीआई की इस नियामावली की धज्जियां उड़ा रहे हैं। फसली ऋण देने के साथ ही बीमे की किस्त किसानों के खाते से काट ली जाती है। फसल बर्बाद होने पर बीमा की रकम मिलती भी है तो वह किसानों के हाथ में न जाकर सीधा बैंक में जाता है, जिसमें से बैंक अपना दिया हुआ कर्ज काट लेते हैं। यानि बीमा लेने के बाद भी किसानों को फसल बर्बादी पर कोई राहत नहीं मिल रही है। उनके हाथ पहले की तरह ही खाली रहते हैं।
अखिल भारतीय किसान सभा के प्रदेश महासचिव डॉक्टर बलबीर सिंह का आरोप है कि योजना लागू होने के तीन साल बाद भी स्थिति है कि यदि बीमा कंपनी से संबंधित किसी मसले का निपटरा कोई किसान करना भी चाहे तो नहीं कर सकता। इसकी सुनवाई के लिए सरकार की ओर से आज तक कोई ‘ट्रिब्यूनल’ गठित नहीं किया गया और न ही कोई ‘फोरम’ ही स्थापित हुआ है। बीमा कंपनियों के एजेंट के तौर पर कुछ सरकारी विभाग काम कर रहे हैं। फसली ऋण लेने से लेकर, किन्ही कारणों से फसल बर्बाद होने, गिरदावरी कराने और फसल का क्लेम दिलाने में बीमा कंपनी की कोई भूमिका नहीं होती। बीमा कंपनी की जगह हर भूमिका में सरकारी महकमा है। किसान अपनी मर्जी से बीमा कंपनी का चयन भी नहीं कर सकता।
केंद्र सरकार ने फसल बीमा योजना के लिए आठ कंपिनयां निर्धारित की हुई हैं, जिन्होंने अपने हिसाब से प्रदेश के 22 जिले बांटे हुए हैं। आठ में रिलायंस, बजाज, लंबार्ड जैसी पांच निजी बड़ी निजी कंपनियां हैं। सरकार पर आरोप है कि यह किसानों से कहीं अधिक इन कंपनियों को लाभ पहुंचा रही है। बीमा कंपनियों से क्लेम लेना किसी चुनौती से कम नहीं। कंपनियों ने इसके लिए इतने कड़े नियम बना रखे हैं कि इसे पार पाना हर किसान के बूते की बात नहीं। बिना हंगामा यह क्लम भी नहीं देते। भारतीय किसान यूनियन के गुरूनाम सिंह कहते हैं कि हाल में सिरसा के किसानों को अपनी फसल की बर्बादी पर क्लेम लेने के लिए पानी की टंकी पर चढ़कर प्रदर्शन करना पड़ा था।
गोहाना में धान की फसल की बर्बादी पर क्लेम के लिए किसान सड़कों पर उतर आए थे। क्लेम के लिए 7500 किसानों ने आवेदन किए थे, जिनमें से अब तक कुछ को ही बीमे की रकम मिली है। अंबाला में भी किसान इसके लिए प्रदर्शन कर चुके हैं। भिवानी में किसानों को प्रदर्शन के बाद मुआवजा मिला। अखिल भारतीय किसान सभा के डॉक्टर बलबीर सिंह कहते हैं कि सिरसा, हिसार और फतेहाबाद के किसान अपने हक-हकूक के लिए अधिक जागरूक हैं, इस लिए वे किसी तरह बीमा की रकम वसूलने में सफल हो जा रहे हैं। जब कि प्रदेश के शेष हिस्से के किसानों को बीमा के क्लेम के तौर पर कुछ खास हाथ नहीं लगा रहा है।
एक्टिविस्ट हरेंद्र ढींगरा द्वारा आरटीआई से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक, बीमा कंपनियों ने हरियाणा के किसानों से 2016-17 में बीमा की रकम के तौर पर कुल 364.64 करोड़ रूपये और 2017-18 में 453.58 करोड़ रूपये वसूले थे। इसके विपरीत किसानों को फसल बर्बादी पर क्रमशः क्लेम दिए गए 291.35 व 350 करोड़ रुपये। यानि फसल बीमा कंपनियां पिछले दो वर्षों में हरियाणा के आर्थिक रूप से कमजोर किसानों से पौने दो सौ करोड़ रूपये से ज्यादा की कमाई कर चुकी हैं।
बीमा कंपनियां जल भराव या किसी गांव के कुछ किसानों के किन्हीं कारणों से फसल बर्बाद होने पर क्लेम नहीं देतीं। क्लेम लेने की पहली शर्त है पूरे गांव की फसल बीमारी या प्राकृतिक आपदा की चपेट में आए। इसके बाद गिरदावरी होती है। फिर तय किया जाता है कि किस किसान को कितना क्लेम देना है। क्लेम देने के लिए न्यूनतम फसल होने की जो शर्त है, उसे तभी पार पाना संभव है जब आपदा या बीमारी से सौ प्रतिशत फसल बर्बाद न हो जाए, जबकि ऐसा समंभव नहीं। विपदाओं में भी फसल 25-30 प्रशित बच जाती है।
जितेंद्र सिंह तूर कहते हैं कि बीमा की किस्त और क्लेम लेने-देने का तरीका विवादास्पद है। मिसाल के तौर पर, यदि किसान के पास दस एकड़ जमीन है। वह तीन एकड़ में धान की बुआई के लिए बैंक से कर्ज लेता है तो बैंक बीमा की किस्त पूरे दस एकड़ की काटता है। मगर फसल बर्बाद होने पर बीमा की भरपाई केवल तीन एकड़ की होती है। भले ही किसान ने बाकी सात एकड़ पर अपने पैसे से गन्ना या कोई और फसल क्यों न लगाई हुई हो । यानी एक तरफ क्लेम देने के लिए पूरे गांव की फसल बर्बाद होनी पहली शर्त है, जब क्लेम देने की बारी आती है तो केवल उसकी भरपाई की जाती है, जिस फसल के लिए किसान ने बैंक से कर्ज ले रखा है।