एम एस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन और यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के पारिस्थितिकीविदों द्वारा दक्षिण भारत में किए एक अध्ययन से पता चला है कि खाद्य फसलों के साथ की गई फूलों की खेती से न केवल परागण करने वाले जीवों को फायदा होगा, साथ ही इससे फसलों की पैदावार और गुणवत्ता में भी सुधार आ सकता है।
भारत में किए अपनी तरह के इस पहले अध्ययन के नतीजे जर्नल ऑफ एप्लाइड इकोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मोरिंगा यानी सहजन (ड्रमस्टिक) की फसल पर ध्यान केंद्रित किया है, जिसे “सुपरफूड” के रूप में भी जाना जाता है। भारत में इसकी खेती आमतौर पर छोटे किसानों द्वारा की जाती है।
आमतौर पर सहजन का उपयोग सब्जियों के रूप में किया जाता है। लेकिन वास्तव में यह कई पोषक तत्वों से भरपूर होता है। साथ ही इसमें मौजूद एंटीऑक्सीडेंट गुण इसे खास बनाते हैं। वहीं पारिस्थितिकी तंत्र के नजरिए से देखें तो परागण बेहद महत्वपूर्ण है जो वैश्विक खाद्य सुरक्षा में भी अहम रूप से योगदान देती है। इन परागणकों की भूमिका इसी से समझी जा सकती है कि यह कीट 80 फीसदी से ज्यादा पौधों को परागित करते हैं जो इंसानों समेत अनगिनत जीवों के भोजन का प्रमुख स्रोत हैं।
इस अध्ययन के दौरान बगीचों में मोरिंगा के पेड़ों के साथ-साथ गेंदे के फूल और लाल चने की फसल लगाने से शोधकर्ताओं को फूलों पर आने वाले कीटों की बहुतायत और विविधता बढ़ाने में मदद मिली, जिसके परिणामस्वरूप परागण में सुधार हुआ और फसल की पैदावार में भी वृद्धि देखी गई।
इस बारे में यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग से जुड़ी शोधकर्ता डॉक्टर दीपा सेनापति का कहना है कि, “कृषि भूमि पर जंगली फूलों को लगाना एक जांची-परखी विधि है जो ब्रिटेन और पूरे यूरोप में कई कृषि क्षेत्रों और बगीचों में देखी जाती है।“ उनके मुताबिक यह कृषि तकनीक परागणकों की संख्या बढ़ाने के लिए जानी जाती है।
उनका आगे कहना है कि, "दक्षिण भारत में किसानों के सहयोग से की गई इस रिसर्च का मकसद मोरिंगा के बगीचों में देशी मधुमक्खियों और अन्य परागणकों की उपस्थिति को बढ़ाने के लिए सबसे प्रभावी सह-फूल वाली फसलों को डिजाइन करना था।"
तमिलनाडु में सहजन और परागणको पर किया गया अध्ययन
इस अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने तमिलनाडु के कन्नीवाड़ी क्षेत्र में मोरिंगा के 24 बागों में छोटे किसानों के साथ मिलकर काम किया। जहां 12 बगीचों में उन्होंने लाल चना और गेंदा के फूल लगाए, जबकि अन्य 12 बगीचों में कोई सह-फूल वाली फसल नहीं लगाई गई थी।
इन बगीचों की तुलना करने पर पता चला जिन बगीचों में लाल चने और गेंदें के फूल लगाए गए थे वहां परागणकों की संख्या 50 फीसदी और उनकी विविधता 33 फीसदी अधिक थी। इन स्थानों पर फूलों पर आने वाले कीटों की संख्या भी अधिक थी। वहीं इसके साथ ही मोरिंगा की फसलों की गुणवत्ता में भी सुधार देखा गया, जहां मोरिंगा की फलियां कहीं ज्यादा बड़ी हुई थी।
वहीं लाल चने और गेंदे के फूलों वाले वे स्थान जो पहले परागण की कमी से पीड़ित थे, इसकी वजह से वहां अधिक पैदावार दर्ज की गई। इसी तरह जिन बगीचों में फूल लगाए गए थे, वहां बिना फूल बगीचों की तुलना में मोरिंगा की कटाई योग्य फलियों में 30 फीसदी की वृद्धि देखी गई।
ऐसे में शोधकर्ताओं का कहना है कि जहां अधिक पैदावार और बेहतर गुणवत्ता से छोटे किसानों को स्वस्थ और पोषक आहार मिल सकेगा। साथ ही वो अपने आहार में प्रोटीन के स्रोत के रूप में लाल चने का उपयोग कर सकते हैं, वहीं गेंदे के फूल बेचकर भी यह किसान अतिरिक्त आय हासिल कर सकते हैं।
शोध के मुताबिक भारत में आम और सहजन जैसी कई ऐसी फसलें हैं जो पोषण और आर्थिक दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण हैं। हालांकि साथ ही इन फसलों में परागण सेवाओं में महत्वपूर्ण वृद्धि और सुधार की संभावना भी है।
भारत में रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों के व्यापक उपयोग के साथ-साथ गहन कृषि पद्धतियों ने भी प्राकृतिक आवासों को हानि पहुंचाई है। इनकी वजह से भारत में जैव विविधता पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ें है, जिससे देशी मधुमक्खियां और अन्य परागण करने वाले जीव भी प्रभावित हुए हैं।
उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में विशेष रूप से छोटे किसान, जिनकी फसलें देशी परागणकों पर निर्भर हैं, वो इनपर पड़ते प्रभावों के प्रति बेहद संवेदनशील हैं। ऐसे में अध्ययन के नतीजे दर्शाते हैं कि यह किसान अपनी जमीन का कहीं बेहतर तरीके से प्रबंधन करते हुए कैसे अपनी पैदावार को बढ़ा सकते हैं।