पंजाब के भैणी मेहराज गांव में अपने परिवार की करीब 20 हेक्टेयर खेती वाली जमीन को देखते हुए 29 वर्षीय सुखविंदर सिंह बेहद चिंतित हैं। उनके मुंह से अनायास ही निकल पड़ता है “आने वाले वर्षों में, यह सारी भूमि बंजर हो जाएगी।”
हालांकि, उनकी बेचैनी खेतों की हालत से मेल नहीं खाती। खरीफ के मौसम में राज्य के कई अन्य किसानों की तरह उनके भी खेत में धान की फसल लहलहा रही है।
सिंह ने अपने पैरों की तरफ मिट्टी की ओर इशारा करते हुए डाउन टू अर्थ (डीटीई) से कहा, “कल्पना कीजिए कि कोई व्यक्ति वेंटिलेटर (जीवन रक्षक प्रणाली) पर है और उसे कृत्रिम रूप से जीवित रखा जा रहा है। हमारी मिट्टी की हालत भी ठीक ऐसी ही है उसमें जीवन नहीं है और हम उसे जरूरत के अनुसार रासायनिक खाद के जरिए जिंदा रखे हुए हैं। जैविक रूप से, यह ऐसी फसल देने की क्षमता खो चुकी है जिससे हमें अच्छी कीमत मिल सके।”
सिंह के 60 वर्षीय पिता केवल सिंह भी उनके साथ खेतों में मौजूद हैं, अपने बेटे से पहले इसी वही इस जमीन पर खेती किया करते थे।
उन्होंने कहा, "अभी तो रसायन काम कर रहे हैं, जब तक कि वह दिन न आ जाए जब वे काम करना बंद कर दें" यह बात किसी भयावह भविष्यवाणी की तरह लग रही थी।
क्या होता है जब मिट्टी में अपने आप सेहतमंद और उच्च उपज देने वाली फसल उगाने की क्षमता नहीं होती?
पंजाब, जिसे 'खाद्य कटोरा' और 'भारत का अन्न भंडार' जैसे खिताबों से नवाजा जाता है, अपनी खेती की पद्धतियों में सुधार के मकसद से असंख्य योजनाओं का गवाह रहा है।
मसलन, मृदा स्वास्थ्य कार्ड (एसएचसी) योजना को एक दशक हो गया है, फसल विविधीकरण और सतत भूजल प्रबंधन से संबंधित कई वर्षों के कार्यक्रम बीत गए हैं लेकिन जमीनी स्तर पर सचमुच मिट्टी केवल खराब ही हुई है।
कई सालों से गहन खेती और अनुपयुक्त फसलों द्वारा पंजाब के किसान पोषक तत्वों के अत्यधिक दोहन से प्राकृतिक संसाधनों को होने वाले नुकसान की कहानी सुनाते हैं।
60 वर्षीय सुखविंदर ने कहा "करीब 25 साल पहले यही मिट्टी जीवन से भरपूर थी - केंचुओं से लेकर भौरों तक की बहुतायत थी।अब देखने को नहीं मिलता। रसायनों ने सब खत्म कर दिया।"
दस साल पहले सुखविंदर को एहसास हुआ कि चावल और गेहूं दोनों की पैदावार हर साल घट रही है। वह इसे उपज के आंकड़ों से समझाते हैं। मिसाल के तौर पर 2014-15 के आसपास धान और गेहूं में क्रमशः 95 क्विंटल और 70 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार थी जबकि जितना रसायन इस उत्पादन में लगा था इतना ही अब लगाने पर धान की 85 क्विंटल और गेहूं की औसत उपज 65 क्विंटल है।
इस वजह उनके परिवार को प्रति हेक्टेयर अधिक खाद का उपयोग करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
लगभग 20 साल पहले जब केवल सिंह जमीन पर खेती कर रहे थे उस समय से तुलना करने पर अब उनका परिवार पहले की तुलना में कम से कम 350 प्रतिशत अधिक यूरिया (सबसे महत्वपूर्ण नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों में से एक) का उपयोग कर रहा है।
एक वर्ष में धान, गेहूं और मक्का के लिए खेत को 15 बैग यूरिया (एक बैग में 45 किलोग्राम) की आवश्यकता होती है, जबकि लगभग 20 साल पहले यह महज चार से पांच बैग थी। अगर इसे मात्रा में देखें तो 20 साल पहले धान की पैदावार के लिए प्रति हेक्टेयर खेत में 1.25 क्विंटल यूरिया का इस्तेमाल किया जाता था जो कि अब 5.6 क्विंटल तक है।
मृदा स्वास्थ्य योजना - एक कागजी कवायद?
2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मृदा स्वास्थ्य योजना शुरू की थी। इस योजना के तहत, उर्वरकों के संतुलित उपयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मिट्टी के नमूनों का परीक्षण किया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसान किसी विशेष फसल के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की उचित मात्रा के बारे में जागरूक हों।
लेकिन इन नौ वर्षों में, सुखविंदर ने कभी ऐसा कार्ड नहीं देखा ना ही योजना के तहत अपनी मिट्टी का परीक्षण कराया। योजना नियमावली के अनुसार मिट्टी की जांच 12 मापदंडों पर की जाती है। इनमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम, सल्फर, जिंक, आयरन, कॉपर, मैंगनीज, बोरान, मिट्टी की लवणता, मिट्टी का पीएच और मृदा कार्बनिक कार्बन (एसओसी) का परीक्षण किया जाता है। मिट्टी की इस परीक्षण के बाद ही किसानों को व्यक्तिगत उर्वरक सिफारिशें दी जाती हैं।
काफी हद तक कागजों तक सीमित यह योजना उर्वरक के अत्यधिक उपयोग की समस्या से निपटने में अप्रभावी रही है।
डीटीई ने योजना की प्रासंगिकता को समझने के लिए पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश के कई किसानों से बात की। कुछ ही किसानों ने कहा कि कार्यक्रम के तहत उनकी मिट्टी की जांच की गई है और उनमें से कुछ को कार्ड नहीं मिला, जबकि अन्य को लगा कि परिणाम विश्वसनीय नहीं थे।
पंजाब के बरनाला जिले के सेहना ब्लॉक के पट्टी खट्टर गांव के रणदीप सिंह ने कहा कि जब 2017-18 में गांव में योजना शुरू हुई तो सेहना ब्लॉक के स्थानीय कृषि कार्यालय में मिट्टी के नमूने एकत्र करने के लिए कर्मचारियों की कमी पाई गई। इसलिए, सरकारी अधिकारियों ने किसानों से मिट्टी के नमूने एकत्र करने के लिए स्वेच्छा से आगे आने को कहा।
इनमें रणदीप उन स्वयंसेवकों में से एक थे। उन्होंने कहा, "हमने इतने सारे नमूने एकत्र किए कि कार्यालय का एक पूरा कमरा भर गया।" लेकिन जब परीक्षण रिपोर्ट आई, तो किसान यह देखकर हैरान रह गए कि उनमें से अधिकांश के परिणाम और उनके लिए सिफारिशें एक जैसी ही थीं। रणदीप ने कहा "हमें यह बेकार लगा। हर खेत के परिणाम एक जैसे कैसे हो सकते हैं?"
इस मामले में सेहना ब्लॉक में कृषि कार्यालय में ब्लॉक प्रौद्योगिकी प्रबंधक जसविंदर सिंह ने बताया कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि किसी निश्चित गांव में मिट्टी में बहुत अधिक भिन्नता नहीं हो सकती है।
ब्लॉक कार्यालय ने लगभग चार साल पहले बड़े पैमाने पर मिट्टी की जांच शुरू की और किसानों को सिफारिशें दीं। जसविंदर ने कहा, “लेकिन कई किसानों ने इसका पालन नहीं किया। आज, ब्लॉक में केवल 20 प्रतिशत किसान अपनी मिट्टी की जांच करवाते हैं और हमारी सिफारिशों का पालन करते हैं।”
भारत में 2024-25 में परीक्षण किए गए कुल 22 लाख मिट्टी के नमूनों में से केवल 2,587 पंजाब से थे।हर फसल सीजन में सेहना ब्लॉक कार्यालय मिट्टी के नमूने एकत्र करने के लिए एक गांव को लक्षित करता है। 2024-25 खरीफ सीजन में, अधिकारियों ने 2,200 नमूनों के लक्ष्य के मुकाबले एक गांव से ब्लॉक स्तर पर 1,600 नमूने एकत्र किए। यह स्पष्ट है कि यह योजना कृषि कर्मचारियों और बुनियादी ढांचे की भारी कमी से प्रभावित हुई है।
आज तक किसानों के पास खुद ही नमूने लेकर सरकारी प्रयोगशालाओं में पहुंचाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, यही कारण है कि यह योजना जल्दी ही दम तोड़ गई।
बरनाला जिले में कृषि कार्यालय के रूप में काम करने वाली एक पुरानी जर्जर इमारत में अपनी मिट्टी की प्रयोगशाला में बैठे कृषि जिला अधिकारी जैस्मीन सिद्धू ने कहा कि अगर मिट्टी की जांच प्रभावी ढंग से करनी है, तो कार्यालय को 60 प्रतिशत अधिक कर्मचारियों और बेहतर बुनियादी ढांचे की आवश्यकता है। प्रयोगशाला को 'असुरक्षित' के रूप में चिह्नित किया गया है। उन्होंने कहा, "कभी-कभी छत से सीमेंट गिर जाता है। यह बैठने के लिए भी सुरक्षित जगह नहीं है, प्रयोगशाला में काम करना तो दूर की बात है। इसके अलावा, हम 40 प्रतिशत क्षमता पर काम कर रहे हैं।"
बरनाला जिले के केवीके (कृषि विज्ञान केंद्र) का उदाहरण लें। मिट्टी के नमूने लेने वाले विभाग में सिर्फ एक वैज्ञानिक है, जो 157 गांवों का प्रबंधन करता है। बरनाला के केवीके में कृषि विज्ञान के सहायक प्रोफेसर सूर्येंद्र सिंह ने कहा, "मेरे अन्य प्रशासनिक कार्यों के साथ, मेरे पास खेत में जाने के लिए कितना समय बचता है।"
ये केवीके कृषि विज्ञान केंद्रों का एक नेटवर्क है जो कृषि विस्तार सेवाएं प्रदान करते हैं। पिछले कुछ महीनों में, केवीके ने अपनी मिट्टी परीक्षण सुविधा को बंद कर दिया है क्योंकि तकनीकी त्रुटि के कारण परिणाम विश्वसनीय नहीं थे। मिट्टी परीक्षण अब जिला कृषि कार्यालय में किए जाते हैं जहां सिद्धू बैठते हैं। उन्होंने कहा, "प्रत्येक जिले में कम से कम दो मिट्टी परीक्षण प्रयोगशालाएं होनी चाहिए। कई किसानों को यह भी नहीं पता है कि मिट्टी परीक्षण किया जा रहा है।"
मृतप्राय खेतों में बंपर उत्पादन
प्रारंभिक अनुमानों के अनुसार, 2024 में भारत में चावल का बंपर उत्पादन होगा। पंजाब में, चालू सीजन में चावल से आच्छादित क्षेत्र 20 सितंबर तक 3.24 मिलियन हेक्टेयर है। धान से पहले काटी गई गेहूं की फसल भी रिकॉर्ड उत्पादन थी। लेकिन ये आशावादी आंकड़े गुलाब सिंह को उत्साहित नहीं करते।
उन्होंने कहा, "यह एक मृतप्राय भूमि है।"
जैविक खेती और धान की पराली प्रबंधन प्रथाओं को बढ़ावा देने वाले पंजाब के एक गैर-सरकारी संगठन खेती विरासत मिशन (केवीएम) के साथ काम कर रहे गुलाब सिंह तापा गांव में अपनी 5.4 हेक्टेयर खेती रासायनिक उर्वरकों से और 0.6 हेक्टेयर खेती जैविक तरीके से करते हैं।
2016 में उन्होंने अपनी पूरी 6 हेक्टेयर जमीन को जैविक खेती में बदलने की कोशिश की थी, लेकिन उपज में नुकसान का सामना करने के बाद उन्होंने 5.4 हेक्टेयर पर फिर से रासायनिक खेती शुरू कर दी। वह रासायनिक खेती के नकारात्मक प्रभावों को पहचानते हैं और धीरे-धीरे अकार्बनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम करने की दिशा में काम कर रहे हैं।
उन्होंने सोचा "रासायनिक खेती हमें खिला तो रही है, लेकिन किस कीमत पर?"
करीब छह महीने पहले केवीएम ने चार जिलों - मोगा, पटियाला, फरीदकोट और भटिंडा के किसानों के खेतों की मिट्टी का परीक्षण किया और परिणामों से पता चला कि औसत एसओसी 0.3 से 0.8 के बीच था।
पंजाब के कृषि विभाग के अनुसार मिट्टी नमूनों में एसओसी कम से कम 1 प्रतिशत होना चाहिए।
पंजाब में ऑर्गेनिक कार्बन वाली उच्च मिट्टी का प्रतिशत सिर्फ 6.9 प्रतिशत है और यह आंकड़ा पिछले वर्ष की तुलना में 2024-25 में कम हो गया है।
कुल मिलाकर 17.9 प्रतिशत भारतीय मिट्टी 'उच्च' श्रेणी में है।
केवीएम के संस्थापक सदस्य और कार्यकारी निदेशक उमेंद्र दत्त बताते हैं कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि मिट्टी की कार्बन को अवशोषित करने की क्षमता काफी हद तक खराब हो गई है। इसका परिणाम मिट्टी की संरचना, स्थिरता और एकत्रीकरण का नुकसान है।
केवीएम के साथ काम करने वाले रसपिंदर सिंह कहते हैं “ऑर्गेनिक कार्बन एक एफडी (फिक्स्ड डिपॉजिट) की तरह है जो हमें ब्याज देता है, लेकिन अब हमने इसे तोड़ दिया है।”
इसका यह भी अर्थ है कि भारत की दो प्रमुख फसलें धान और गेहूं, थकी हुई मिट्टी पर उगाई जा रही हैं, जिससे देश की आबादी के पोषण और स्वास्थ्य पर संभावित रूप से असर पड़ रहा है, क्योंकि परिणामी फसलों का मैक्रो/माइक्रोन्यूट्रिएंट मूल्य कम है।
डीटीई से बात करने वाले कई किसानों का मानना है कि रसायनों के बिना, जमीन उन्हें एक हेक्टेयर में लगभग 25 क्विंटल चावल या गेहूं ही दे सकती है।
इतना ही नहीं मिट्टी पिछले कुछ सालों में सख्त हो गई है, जिससे उसकी जल धारण या रिसने की क्षमता कम हो गई है।
साल दर साल, अधिकांश किसान सॉयल पडलिंग विधि से धान बोते हैं, जो आर्द्रभूमि चावल की खेती के लिए एक सार्वभौमिक अभ्यास है। इसमें चावल के पौधे रोपने से पहले हफ्तों तक 5-10 सेमी गहराई तक खड़े पानी के साथ मिट्टी को मथना शामिल है।
पिछले कई दशकों से दोहराई जा रही इस विधि ने एक घनी और संकुचित उप-सतह परत बनाई है, जो निचली मिट्टी की परतों और भूमिगत जलभृतों में पानी के प्रवेश को रोकती है।
इस प्रक्रिया में मिट्टी की जल धारण क्षमता और पुनर्भरण क्षमता खत्म हो जाती है और किसानों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है, चाहे भारी बारिश हो या कम बारिश। कई किसान 6-7 इंच की गहराई पर एक अभेद्य ‘प्लेट’ बनने की बात करते हैं, जिसके कारण अधिक बारिश होने पर खेत जल्दी जलमग्न हो जाते हैं और कई दिनों तक जलमग्न रहते हैं, क्योंकि पानी का त्वरित अवशोषण अवरुद्ध हो जाता है। इसी तरह जल धारण क्षमता भी प्रभावित होती है।
करीब 6.4 हेक्टेयर में खेती करने वाले रणदीप कहते हैं, “अगर पानी की कमी हो और पौधे को दो दिन तक पानी न मिले, तो वह मुरझा जाएगा।” वे कहते हैं कि इस घटना के कारण पानी के रिसाव के साथ-साथ केंचुओं या अन्य कीटों की आवाजाही भी बाधित होती है। वह आगे कहते हैं “एक समय था जब खेत की जुताई के दौरान ट्रैक्टर का नरम मिट्टी में फंस जाना आम बात थी। अब मामला उल्टा है। मिट्टी इतनी सख्त हो गई है कि एक बार फसल काटने के बाद, खेत में पानी डाले बिना ट्रैक्टर ठीक से जुताई नहीं कर पाता। आमतौर पर यह सतह से 6-7 इंच से आगे नहीं बढ़ता है।"
लेकिन इस गिरावट का कारण क्या है?
इसका जवाब एक दुष्चक्र में छिपा है। उर्वरकों, कीटनाशकों और भूजल के अत्यधिक उपयोग के साथ-साथ पराली जलाने की व्यापक प्रथा के कारण मिट्टी का क्षरण हुआ है, जिससे पैदावार पर असर पड़ रहा है और एक बार फिर उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग में वृद्धि हो रही है।
पढ़िए अगली कड़ी में... देश में सबसे ज्यादा उर्वरक इस्तेमाल करने वाले राज्य में क्यों ठहरती जा रही है पैदावार