अब नैनोसैटेलाइट से लगेगा फसलों में नाइट्रोजन की कमी का पता, उपज में होगा सुधार

क्यूबसैट्स के रूप में जाना जाने वाला नैनोसैटेलाइट समय से पहले ही नाइट्रोजन की कमी का पता लगा सकता है। इससे किसान एक सीजन में नाइट्रोजन उर्वरक कब और कितनी मात्रा में इस्तेमाल करना है
अब नैनोसैटेलाइट से लगेगा फसलों में नाइट्रोजन की कमी का पता, उपज में होगा सुधार
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मक्का उत्पादक किसानों के लिए नाइट्रोजन उर्वरक कब और कितना डालना है, इसका निर्णय लेना एक चुनौती होती है। इसी के चलते इलिनोइस विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि क्यूबसैट्स के रूप में जाना जाने वाला नैनोसैटेलाइट समय से पहले ही नाइट्रोजन की कमी का पता लगा सकता है। इससे किसान एक सीजन में नाइट्रोजन उर्वरक कब और कितनी मात्रा में इस्तेमाल करना है इसकी योजना बना सकते हैं। 

समय पर सही मात्रा में उर्वरकों का उपयोग करके फसलों को पोषक बनाया जा सकता है। नाइट्रोजन उर्वरक के अधिक उपयोग से पर्यावरणीय खतरे बढ़ जाते है। नाइट्रोजन, नाइट्रस ऑक्साइड में बदल जाती है, नाइट्रस ऑक्साइड (एन2) एक ग्रीनहाउस गैस है जो जलवायु परिवर्तन को बढ़ाती है।  यह अध्ययन एप्लाइड अर्थ ऑब्सेर्वशन्स एंड रिमोट सेंसिंग पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

अमेरिका के इलिनोइस विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ब्लू वाटर्स कहते हैं कि, किसानों को नाइट्रोजन उर्वरक के उपयोग करने के निर्णयों के लिए मौसम के अंत तक इंतजार करने की आवश्यकता नहीं होगी। सही समय पर फसल के लिए पोषक तत्वों की स्थिति में परिवर्तन का पता लगाने से उपज को बढ़ाया जा सकता है तथा नुकसान से भी बचा जा सकता है। मौजूदा उपग्रह तकनीक से खेतों में पोषक तत्वों की स्थिति के बारे में सही-सही पता नहीं लगाया जा सकता है। हांलाकि, ड्रोन वास्तविक समय में पोषक स्थिति का पता लगा सकते हैं। लेकिन वे आमतौर पर केवल स्थानीय क्षेत्रों को कवर कर सकते हैं। इस प्रकार, उनकी उपयोगिता भी सीमित हो जाती है।

क्यूबसैट मौजूदा उपग्रह तकनीक और ड्रोन के बीच की कमी को दूर करता है। गुआन कहते हैं कि, वर्तमान में कक्षा में 100 से अधिक छोटे-छोटे उपग्रह है। जो प्लैनेट से क्यूबसैट 3-मीटर रिज़ॉल्यूशन के लिए नीचे उतरते हैं और कुछ दिनों में दुबारा उसी स्थान पर घूमते हैं। इसलिए ड्रोन की तुलना में अधिक व्यापक क्षेत्र में रियल टाइम में फसलों में नाइट्रोजन की स्थिति की निगरानी कर सकते हैं।

गुआन और उनके सहयोगियों ने ड्रोन और क्यूबसैट दोनों की क्षमताओं का परीक्षण किया। यह परीक्षण मकई के क्लोरोफिल में परिवर्तन का पता लगाने के लिए, पौधे की नाइट्रोजन स्थिति के बारे में बताता है। शोधकर्ताओं ने 2017 में एक प्रयोगात्मक क्षेत्र पर इसका परीक्षण किया। मकई के खेत में नाइट्रोजन का अलग-अलग समय पर उपयोग करने से सम्बंधित कई चरणों में प्रयोग किए गए।

इसका उद्देश्य यह जानना था कि उपज पर नाइट्रोजन उर्वरक का सही समय पर उपयोग कितना प्रभाव डालता है। नफ़ज़िगर कहते हैं कि,यह अध्ययन इस बात का मूल्यांकन करने में मदद करता है कि इमेजिंग कितनी अच्छी तरह से अलग-अलग समय पर उपयोग किए गए नाइट्रोजन की मात्रा का उपज पर पड़ने वाले असर को दिखाता है।

वैज्ञानिकों ने ड्रोन और क्यूबसैट की छवियों की तुलना की, और उनसे मिले संकेतों के साप्ताहिक आधार पर खेतों में पत्तियों से ली गई ऊतक नाइट्रोजन माप के साथ अच्छी तरह से मिलान किया। दोनों तकनीकें क्लोरोफिल में परिवर्तन का पता लगाने में सक्षम थीं।

नाइट्रोजन उर्वरक की कम लागत और मकई की अधिक उपज संभावित किसानों को नाइट्रोजन की कमी को पूरा करने के लिए अतिरिक्त नाइट्रोजन का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन फसलों में अधिक नाइट्रोजन का इस्तेमाल करने से वित्तीय और पर्यावरणीय खतरे बढ़ जाते है।

शोधकर्ता का कहना है कि, नई उपग्रह तकनीक और पारिस्थितिकी तंत्र मॉडलिंग उर्वरक उपयोग के लिए एक बेहतर उपकरण है। किसानों की लागत कम करने, उपज बढ़ाने के साथ-साथ पर्यावरण को बचाने में मदद कर सकता है।

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