कृषि में बढ़ते उपयोग के चलते भारत, चीन में सुरक्षित सीमा को पार कर गया है नाइट्रोजन प्रदूषण

कृषि में बढ़ते उपयोग के चलते भारत, चीन में सुरक्षित सीमा को पार कर गया है नाइट्रोजन प्रदूषण

भारत, चीन और यूरोप के कई हिस्सों में नाइट्रोजन प्रदूषण सुरक्षित सीमा को पार कर गया है, जो धरती के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है
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कृषि में बढ़ता नाइट्रोजन और उसके कारण होता प्रदूषण, पर्यावरण के लिए एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसके लिए कौन जिम्मेवार है। इस बारे में जर्नल नेचर में प्रकाशित रिसर्च में सामने आया है कि भारत, चीन और उत्तर-पश्चिमी यूरोप के कुछ देश बहुत ज्यादा नाइट्रोजन उत्सर्जित कर रहे हैं, जो हमारी पृथ्वी के संतुलन के लिए ठीक नहीं है।

वहीं दूसरी तरफ अभी भी अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के अधिकांश हिस्सों में नाइट्रोजन के उपयोग में वृद्धि करने की गुंजाइश है। हालांकि इस बारे में पहले से ज्ञात है कि लम्बे समय से कृषि आदि क्षेत्रों में होता नाइट्रोजन का उपयोग पहले ही ग्रह की सुरक्षित सीमाओं को पार कर गया है, लेकिन यह पहला मौका है जब वैज्ञानिकों ने क्षेत्रीय स्तर पर इसे मैप किया है।

देखा जाए तो नाइट्रोजन जीवन के लिए एक आवश्यक बिल्डिंग ब्लॉक है। यह पौधों की वृद्धि के लिए एक आवश्यक पोषक तत्व है और प्रोटीन निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देता है। लेकिन प्राकृतिक क्षेत्रों में इसके उच्च मात्रा में जमाव जैव विविधता और इंसानी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।

गौरतलब है कि 2009 में जर्नल नेचर में पहला लेख प्रकाशित हुआ था जिसमें वैज्ञानिकों ने उन नौ सीमाओं की पहचान की थी, पृथ्वी प्रणाली की स्थिरता को सुनिश्चित करने के लिए जिनके भीतर रहकर इंसानों को विकास करना चाहिए। इन सीमाओं में जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता में आती गिरावट से लेकर नाइट्रोजन उपयोग शामिल है।

इसके छह साल बाद 2015 में जर्नल साइंस में छपे एक अध्ययन में इस बात को उजागर किया था कि मानवता ने नाइट्रोजन सहित तीन अन्य सीमाओं को पार कर लिया है। हालांकि उस अध्ययन में भी क्षेत्रीय स्तर पर इकोसिस्टम की नाइट्रोजन प्रदूषण के प्रति संवेदनशीलता और कृषि एवं अन्य स्रोतों से होते इसके उत्सर्जन की जानकारी नहीं दी गई थी। गौरतलब है कि सभी थ्रेसहोल्ड के संबंध में नाइट्रोजन की कुल वैश्विक अधिशेष सीमा 43 मेगाटन प्रति वर्ष है।

लेकिन अपने इस नए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने प्रकृति और पानी की गुणवत्ता पर पड़ते प्रभाव जैसे जैव विविधता में आती कमी, पानी की गुणवत्ता में आती गिरावट और सतह पर शैवालों के पनपने आदि को समझने के लिए इसकी क्षेत्रीय सीमाओं के साथ नाइट्रोजन अधिशेष और नुकसान की तुलना की है।

इस बारे में रिसर्च से जुड़ी शोधकर्ता लीना शुल्ते-उबिंग का कहना है कि नाइट्रोजन की अधिकता और इसके कारण होने वाली समस्याओं के प्रकार दोनों में क्षेत्रीय स्तर पर भारी अंतर हैं। कुछ क्षेत्रों में पानी की गुणवत्ता के लिए निर्धारित सीमा पार हो गई है। वहीं कुछ में स्थलीय प्रकृति पर पड़ता प्रभाव तय सीमा को पार कर गया है। वहीं कई क्षेत्रों में यह दोनों सीमाएं ही पार हो गई हैं।

निष्कर्ष से पता चला है कि जहां यूरोप, चीन और भारत में बहुत ज्यादा वृद्धि हो चुकी है, वहीं इसके विपरीत दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के कई देश इसका बहुत कम उपयोग कर रहे हैं। इन क्षेत्रों में खाद्य उत्पादन के लिए कहीं ज्यादा नाइट्रोजन की आवश्यकता है। इन क्षेत्रों में  कम उर्वरकता से मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो रही  है, जहां उत्पादकता में इसकी वजह से गिरावट आ रही है। कई मामलों में तो यह कमी इतनी ज्यादा है कि मृदा खाद्य उत्पादन के लिए उपयोगी नहीं रह जाती।

इस शोध से जुड़े अन्य शोधकर्ता प्रोफेसर विम डी व्रीज का कहना है कि नाइट्रोजन उपयोग के वैश्विक वितरण में बदलाव बेहद महत्वपूर्ण है। लेकिन इसके बावजूद वितरण का इष्टतम आबंटन, भी मौजूदा दक्षता के अनुसार इसे वैश्विक सीमा के दायरे में रखने के लिए काफी नहीं है।

भारत उर्वरकों के रूप में इस्तेमाल कर रहा है हर साल 1.8 करोड़ टन नाइट्रोजन 

देखा जाए तो वैश्विक स्तर पर केवल नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों के उपयोग से हर साल 113 करोड़ टन ग्रीनहाउस गैसों के बराबर उत्सर्जन हो रहा है, जोकि जलवायु के लिए एक बड़ा खतरा है। देखा जाए तो चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों को इस्तेमाल करने वाला देश है, जोकि हर साल करीब 1.8 करोड़ टन नाइट्रोजन का इस्तेमाल उर्वरकों में कर रहा है।

वहीं चीन में यह आंकड़ा 2.81 करोड़ टन है। इसके चलते करीब 16.6 करोड़ टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन हो रहा है, जोकि वैश्विक स्तर पर नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों से होने वाले उत्सर्जन का करीब 15 फीसदी हिस्सा है।

वहीं जर्नल नेचर में छपे शोध से पता चला है कि वातावरण में नाइट्रस ऑक्साइड का स्तर पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 20 फीसदी बढ़ चुका है, जबकि यह हर दशक 2 फीसदी की दर से बढ़ रहा है।

वहीं एफएओ द्वारा की गई गणना के अनुसार सिंथेटिक उर्वरकों में मौजूद नाइट्रोजन की कुल वैश्विक खपत 2018 में 10.8 करोड़ टन तक पहुंच गई थी। चीन, भारत, अमेरिका, यूरोप और ब्राजील इसके करीब 68 फीसदी हिस्से का उपयोग फसलों में कर रहे हैं।

ऐसे में कृषि क्षेत्र में नाइट्रोजन का कहीं बेहतर कुशलता से उपयोग करने की जरुरत है जिससे वैश्विक खाद्य आवश्यकता को क्षेत्रीय और ग्रह की नाइट्रोजन सीमाओं को लांघे बिना पूरा किया जा सके। इसके साथ ही हमें कृषि के अलावा अन्य क्षेत्रों जैसे उद्योगों और सीवेज से होने वाले नाइट्रोजन उत्सर्जन को भी सीमित करने की जरूरत है।

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