हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने कृषि क्षेत्र के लिए तीन बड़े कदमों को मंजूरी दी। इनमें से एक है, आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव। दूसरा द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फेसिलिएशन) अध्यादेश, (एफपीटीसी) 2020 की अनुमति और तीसरा एफएपीएएफएस (फार्मर एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्युरेंस एंड फार्म सर्विसेज आर्डिनेंस, 2020 की अनुमति।
इन कानूनों की उपयोगिता बताते हुए सरकार का कहना है कि ये कानून किसानों की आय़ बढ़ाने में मदद करेंगे, पहले किसानों को कई प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड़ता था, लेकिन अब से ऐसा नहीं होगा। देश भर के किसान संगठन, मंडी समितियों से जुड़े लोग इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं, उनका मानना है कि इन कानूनों के जरिए सरकार खेती में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे रही है, जो किसानों की परेशानियों को और बढ़ाएगा।
लेकिन सरकार के इन फैसलों को किसे फायदा होगा, इसे जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने किसान नेताओं और इस क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों से बात की।
अखिल भारतीय किसान सभा के नेता अमराराम कहते हैं, "सरकार, कृषि सुधार और किसानों की आय बढ़ाने के नाम पर कृषि व्यवस्था को एग्रो-बिजनेस के क्षेत्र मे काम कर रही निजी कंपनियों के हवाले करने जा रही है। 1991 में हुए उदारीकरण का नतीजा है कि 30 साल में 3 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं, अब अगर ये कानून लागू हुए तो खेती पूरी तरह से बदल जाएगी। सरकार जिसे किसानों की मुक्ति का मार्ग बता रही है, दरअसल वही उनके लिये सबसे बड़े बंधन हैं।"
वह कहते हैं कि भारत मे 85 फीसदी किसान छोटी जोत वाले हैं, जिनकी साल भर की पैदावार इतनी नहीं होती की वे हर बार पास की मंडी तक जा सकें, ऐसे में उनसे कहना कि तुम अपनी फसल को किसी दूसरे राज्य की मंड़ी में जाकर बेचो, यह किसी मजाक से कम नहीं। मान लीजिए, कोई किसान पहुंच भी जाए तो क्या गारंटी है कि उसको फसल के इतने दाम मिल जाएंगे कि माल ढुलाई सहित पूरी लागत निकल आएगी? दूसरे राज्य में भी तो व्यापारी ही हैं, वो भी तो कम लागत में ज्यादा मुनाफा कमाना चाहते हैं।
गुजरात में लेज कंपनी के लिये आलू उगाने वाले किसानों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि, निजी कंपनियां किसानों को ऐसी फसलें उगाने के लिये प्रोत्साहित करती हैं, जिनकी उन्हें जरुरत होती है, और इस तरह किसान, बीज से लेकर फसल बेचने तक के लिये उन पर निर्भर हो जाता है। इस सब को जानने के बाद कृषि में निजी निवेश को बढ़ावा देकर किसानों का हित कैसे होगा यह समझ से परे है।
जय किसान आन्दोलन से जुड़े अभिक साहा भी इन कानूनों के औचित्य पर सवाल उठाते हैं। अभिक बताते हैं कि तीनों कानूनों में सबसे महत्वपूर्ण है 'आवश्यक वस्तू अधिनियम (संशोधित 2020)" जो व्यापारी वर्ग पर नियंत्रण रखने में सहायक था। इस एक कानून के जरिए सरकार ने जाने कितनी बार आवश्यक वस्तुओं की उपलबध्ता से लेकर कीमतों तक में नियंत्रण किया है। अब 55 साल बाद इसको बदला जा रहा है, वो भी ऐसे समय में जब देश कोविड-19 के काऱण पैदा हुई बेरोजगारी और अव्यवस्था से जूझ रहा है।
अभिक कहते हैं कि कानून में किये गये बदलाव ऐसे हैं जो पूरी तरह से एक खास वर्ग के हितों की रक्षा करते हैं। इस कानून का संबध सीधे किसानों से तो पहले भी नहीं था और अब भी नहीं रहेगा, लेकिन पहले व्यापारियों के हितों का इतने खुले तौर पर समर्थन नहीं करता था, जितना अब कर रहा है। पहले जो व्यापारी कानून के कारण या उसके डर से एक सीमा से अधिक ट्रेडिंग नहीं करते थे, वे अब जितनी मर्जी हो उतना खरीद बेच सकते हैं। कम लागत में ज्यादा मुनाफा कमाने वाला व्यापारी, किसान को उसकी फसल के ज्यादा दाम देगा इससे ज्यादा बचकाना क्या हो सकता है'?
नए कानूनों में सबसे ज्यादा जोर एक राष्ट्र एक बाजार को लेकर है, जिसमें एफपीटीसी कानून 2020 के अंर्तगत किसानों की खरीद-बिक्री के लिए मंडी समिति के एकाधिकार को खत्म किया गया है। वरिष्ठ कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा बताते हैं कि मंडी समितियां खत्म नहीं हुईं हैं, अंतर बस इतना आया है कि जो व्यापारी मंडी समिति के अंदर खरीददारी करने के लिए बाध्य था, वो अब बाहर से कितनी भी खरीददारी कर सकता है, वो भी बिना टैक्स दिए, वहीं मंडी समिति के भीतर खरीददारी के लिए टैक्स देय होगा, ऐसे मे कोई मंडी से क्यों खरीददारी करेगा? वन नेशन, वन मार्केट यहीं तो फेल हो जाता है।
वहीं, सरकार द्वारा कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देने पर सवाल उठ रहे हैं। मध्यप्रदेश के महोबा जिले के बम्हौरी गांव के किसान सुरेंद्र कहते हैं कि मैं हर 50 बीघा के लगभग खेती करता हूं, अपनी मर्जी और फसल चक्र के हिसाब से फसलों का उत्पादन करता हूं, मुझे पता है कि मेरे खेत में कौन सी फसल अच्छी होगी। अब अगर कोई आकर कहे कि तुम हमारे लिए खेती करो, तुमको ज्यादा मुनाफा होगा तो मैं उसके हिसाब से खेती नहीं ही करूंगा. क्योंकि की इससे खतों की बर्बादी निश्चित है। देविंदर शर्मा भी कहते हैं कि भारत में कोंट्रेकट फार्मिंग बहुत सफल नहीं हुई फिर भी इसको बढ़ावा देना समझ से परे है।