दुनिया भर में एक नए रोग ने बढ़ाई मुसीबत, भारत नया शिकार

ऐसे समय में जब दुनिया कोविड-19 वायरस से जूझ रही है, तभी एक अन्य वायरस सूअरों के लिए काल बन रहा है। इसने वैश्विक स्तर पर सूअर के मांस और चारे के व्यापार को बुरी तरह प्रभावित किया है। यह वायरस अफ्रीकन स्वाइन फीवर का कारण बनता है और इसमें बचने की उम्मीद न के बराबर है। 2018 के बाद से दुनिया के एक तिहाई सूअर इससे मारे गए हैं। भारत इसका नया शिकार बना है
फोटो: एडम सप्रिंसांगा
फोटो: एडम सप्रिंसांगा
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“माथे पर गोली मारो।” मिजोरम के सूअर पालक पिछले कुछ महीनों से इस आदेश से काफी डरे हुए हैं। हालांकि थानलियाना और उसके तीन बेटों के पास भी कोई विकल्प नहीं था। अप्रैल के बाद से अपने 500 में से 308 सूअरों को “बुखार” में खो देने के बाद उन्होंने आखिरकार थक-हारकर राज्य के पशुपालन और पशु चिकित्सा विभाग को सूचित किया।

इसके बाद 18 जून को राजधानी आईजोल के सतीक गांव में उनके सूअर पालन केंद्र पर कुछ अधिकारी पहुंचे। अधिकारी व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) पहने दो सशस्त्र पुलिसकर्मियों के साथ थे। पशु चिकित्सा अधिकारी एस्तेर लालजोलियानी ने पहले ही सूअरों के लक्षणों को अफ्रीकी स्वाइन फीवर (एएसएफ) के रूप में पहचाना था।

यह एक वायरल रक्तस्रावी बीमारी है जो सूअरों और जंगली सूअर को संक्रमित करती है और इस संक्रमण की मृत्यु दर लगभग 100 प्रतिशत है। लक्षणों के रूप में संक्रमित जानवरों को बुखार हो जाता है और उनकी त्वचा बैंगनी हो जाती है, आंखों से पानी निकलता है और मृत्यु से पहले गंभीर, खूनी दस्त होता है।

बिना किसी इलाज या टीके के अभाव में मारना (कलिंग) ही इस अत्यधिक संक्रामक बीमारी के प्रसार को रोकने का एकमात्र तरीका है। यह बीमारी जानवरों के सीधे संपर्क के माध्यम से पानी, मिट्टी, चारा, जूते, वाहन और कृषि उपकरण जैसी वस्तुएं, जीवित या मृत सूअर या सूअर के मांस से फैलती है।

उस दिन थानलियाना के सूअर पालन केंद्र में पुलिस ने 42 सूअरों को मार डाला। उन्होंने छोटे जानवरों के लिए पिस्तौल और बड़े जानवरों के लिए राइफल का इस्तेमाल किया। थानलियाना कहते हैं, “मृतकों में से एक तिहाई प्रजनन स्टॉक का हिस्सा थे और मारे गए लॉट का आधा हिस्सा बूचड़खाने को बेचने के लिए तैयार था।”

थानलियाना के सबसे बड़े बेटे पीसी रामचुलोवा कहते हैं, “पिछले दो महीनों से हर हफ्ते हम खेत के आसपास दर्जनों सूअरों को दफना रहे हैं।” मैंने बाकी स्टॉक को बचाने के लिए अधिकारियों को बुलाया। उस दिन भी परिवार ने टीम को जानवरों को दफनाने में मदद करने के लिए गड्ढा खोदा लेकिन इस काम के लिए एक अर्थ-मूवर को किराए पर लेना पड़ा क्योंकि मारे गए जानवरों की संख्या काफी अधिक थी।



पशुपालन विभाग के संयुक्त निदेशक और मिजोरम में प्रकोप की निगरानी के लिए नोडल अधिकारी लालमिंगथांगा ने इन सूअरों को मारने से 10.3 लाख रुपए के नुकसान का अनुमान लगाया। उनका कहना है, “यह एक आधा-अधूरा अनुमान है, वास्तविक नुकसान और अधिक होगा।”

एस्तेर और ललमिंगथांगा भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में एएसएफ नियंत्रण के लिए सूअरों की हत्या-दफन-नुकसान आकलन प्रक्रिया में अभ्यस्त हो गए हैं। पूर्वोत्तर में देश की 90.6 लाख सूअरों की आबादी का लगभग 47 प्रतिशत है और यहां सूअर स्थानीय आहार और संस्कृति का एक अहम हिस्सा है।

भारत में एएसएफ का कोई इतिहास नहीं रहा है। हालांकि इस बीमारी का वर्णन पहली बार लगभग एक सदी से भी पहले किया गया था। इसने मई 2020 में विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (ओआईई) को अपने पहले प्रकोप की सूचना दी। पहले अरुणाचल प्रदेश और फिर असम से मामले सामने आए थे।

कुछ महीने बाद 24 जून, 2020 को केंद्र ने राज्य सरकारों को पशुपालन और डेयरी विभाग की “एएसएफ के नियंत्रण, नियंत्रण और उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना” के बारे में सूचित किया और उन्हें “उपयुक्त कार्रवाई” को कहा। लेकिन इस साल फिर से मामले बढ़ने लगे, मिजोरम के लुंगलेई जिले के लुंगसेन गांव ने 21 मार्च को एक अज्ञात बीमारी से सूअर की मौत की सूचना दी।

15 अप्रैल को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में स्थित राष्ट्रीय उच्च सुरक्षा पशु रोग संस्थान ने मिजोरम में एएसएफ के पहले मामले की पुष्टि की। फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के एएसएफ सिचुएशन इन एशिया एंड पैसिफिक अपडेट के मुताबिक, 10 जून तक यह संक्रामक बीमारी मेघालय, मिजोरम, मणिपुर और नागालैंड में फैल गई थी।

मिजोरम में सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि एएसएफ ने 29 जून तक राज्य के 11 में से 10 जिलों में 8,130 से अधिक सूअरों को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। प्रत्येक सूअर के मारे जाने से मांस की अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। मिजोरम सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, राज्य का वार्षिक मांस उत्पादन 2011-12 में 13,158 टन से बढ़कर 2019-20 में 16,533 टन हो गया, जिसमें सूअर का मांस लगभग आधा था।

पशुपालन और डेयरी विभाग के एनिमल हसबेंडरी कमिश्नर डॉक्टर प्रवीण मलिक ने डाउन टू अर्थ को बताया, “कोविड की दूसरी लहर से पहले नवंबर-दिसंबर तक असम के कई जिलों में एएसएफ के मामले जीरो तक पहुंच गए थे। हम इस पर लगभग नियंत्रण पा चुके थे। लेकिन ऐसा लगता है कि राज्यों ने बीमार या संक्रमित जानवरों को छांटकर अलग करने या मारने के ऑपरेशन को ठीक तरीके से अंजाम नहीं दिया। यह कमी रह गई जिसके कारण शायद यह दोबारा उभरा। कलिंग एक बड़ी चुनौती है हालांकि इसके जरिए एएसएफ पर पूरी तरह नियंत्रण पाया जा सकता है।”

एएसएफ को शुरुआत से ही मॉनिटर कर रहे प्रवीण मलिक बताते हैं कि जब बीते वर्ष चीन में एएफएस का काफी व्यापक आउटब्रेक हुआ तभी हम यह अंदेशा लगा रहे थे कि ट्रांसबाउंड्री से यह आ सकता है। उसी वक्त हमने राज्यों को अलर्ट किया गया और संक्रमण रोकने के लिए एडवाइजरी जारी की गई। गुवाहाटी में प्रशिक्षण कार्यक्रम भी किया गया था लेकिन जरूर कुछ चूक हुई है।

एएसएफ के चलते सिर्फ पूर्वोत्तर राज्य ही नहीं बल्कि एशियाई मुल्क और देश के अलग-अलग हिस्सों में छोटे किसानों को काफी बड़ा झटका लगा है। पंजाब में करीब 1,200 से 1,300 किसान पिग फॉर्मिंग करते हैं। इन्हीं में एक है बीटी पिगरी फॉर्म।

पंजाब के लुधियाना में गुरु अंगद देव वेटरेनरी एंड एनिमल साइंसेज यूनिवर्सिटी से पांच साल की ट्रेनिंग लेने के बाद बरनाला के संघेरा गांव में 2013 में 30 लाइव एनिमल से बीटी पिगरी फॉर्म की शुरुआत करने वाले धर्मिंदर सिंह का फॉर्म अब 500 लाइव एनिमल तक पहुंच गया है। वह बताते हैं कि हमारे लाइव एनिमल का भाव काफी कम हो गया है और उनकी खुराक की लागत दोगुनी तक बढ़ गई है।

वह कहते हैं कि इसकी बड़ी वजह कोविड और एएसएफ है। इन दोनों ने मिलकर हमें बड़ा नुकसान पहुंचाया है। लाइव एनिमल बीते वर्ष 80-100 रुपए किलो तक ही बिका। यह हमारी लागत से भी कम है। इस वर्ष फरवरी में भाव 102 रुपए से 115 रुपए प्रति किलो लाइव एनिमल का भाव रहा लेकिन बीते आठ दिनों से फिर से यह भाव गिरने लगा है।

सूअर का बच्चा जब जन्म लेता है तो वह एक से डेढ़ किलो का होता है। साढ़े चार महीने में इसका वजन 60 किलो तक पहुंच जाता है। लेकिन इसमें लागत नहीं निकलती। हमें इसे 100 किलो के आसपास पहुंचाना होता है जिसकी बिक्री में हमें कुछ फायदा होता है। लेकिन मांग कम होने और प्रतिबंध के कारण इस वक्त लाइव एनिमल का भाव काफी कम है।



धर्मिंदर कहते हैं कि दूसरी चुनौती है कि इनका आहार काफी ज्यादा होता है। इनके फीड की लागत बीते वर्ष के मुकाबले दोगुना हो चुका है। इनके फीड में मुख्य रूप से प्रोटीन स्रोत और विटामिन और मिनरल होते हैं। प्रोटीन के लिए हम मुख्य रूप से सोयाबीन और मूंगफली की खली का इस्तेमाल करते हैं और विटामिन-मिनरल के लिए चीन से पैकेट मंगाते हैं।

इस वक्त चारे के लिए सोयाबीन की कीमत 68 रुपए किलो मिल रही है लेकिन बीते वर्ष इसकी कीमत 35 रुपए के आसपास थी। इसलिए फीडिंग काफी महंगी हो गई है। उनके अनुसार, “तीसरी चीज हमारे जो बड़े बाजार हैं वह नॉर्थ-ईस्ट के राज्य हैं। वहां, कोई-न कोई प्रतिबंध बीते वर्ष से लगा है।

जाड़े में तो हमारा जिंदा जानवर दिल्ली और आसपास के राज्यों में बिकता है लेकिन गर्मी में हम मुख्य तौर पर नागालैंड के दीमापुर या असम में गुवाहटी में बेचते हैं। लेकिन कोविड में प्रतिबंध और एएसएफ की वजह से वहां माल जाना बीते वर्ष ही मंदा हो गया है।  दीमापुर काफी बड़ी मंडी है जहां बीते सप्ताह अभी दिक्कत हुई। हम एएफएस के बचाव के लिए वैज्ञानिकों के संपर्क में हैं और बायोसेफ्टी उपाय अपना रहे हैं। अभी उत्तर भारत में इसकी कोई समस्या नहीं है।”

वर्तमान और भविष्य

पशुपालन और डेयरी विभाग के संयुक्त सचिव (लाइवस्टॉक हेल्थ) उपमन्यु बसु ने डाउन टू अर्थ से अपने संक्षिप्त टिप्पणी में कहा, “यह पहली बार देश में 2020 में आया अब स्थिति काफी नियंत्रण में है। सूअरों की मृत्यु रुक गई है।”

वहीं, प्रवीण मलिक बताते हैं कि कोविड-19 के कारण आवाजाही पहले सी ही प्रतिबंधित थी और उसी दर्मियान हमने उत्तर (छत्तीसगढ़, राजस्थान, पंजाब-हरियाणा) जैसे राज्यों में सूअरों का मूवमेंट रोक दिया गया था। इसने संक्रमण नियंत्रण में काफी मदद की।

एएफएस के भविष्य को लेकर डॉ प्रवीण कहते हैं कि इसकी कोई दवा या वैक्सीन नहीं है। हम नहीं चाहते हैं कि कोई वैक्सीन इसके लिए आए, क्योंकि यह काफी खर्चीला होता है और यह बीमारी को खत्म नहीं करती बल्कि नियंत्रित करती है। हम एएसएफ को दूसरे उपायों से पूरी तरह नियंत्रित कर सकते हैं। हमने इसमें शुरू में ही तेजी दिखाई जिसका नतीजा भी मिला। कलिंग यदि सही से की जाए तो यह पूर्ण रूप से नियंत्रित हो सकती है।

एएसएफ जांच की सुविधा

क्या एएसएफ की जांच के लिए पर्याप्त क्षमता वाली लैब है? डाउन टू अर्थ ने मिजोरम और मणिपुर के वेटेरनरी साइंटिस्ट से बातचीत की जहां पता चला कि जिनकी प्राथमिक सैंपल भोपाल स्थित आईसीएआर: नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाई सिक्योरिटी एनिमल डिजीज में आइसोलेशन के लिए भेजे जाते हैं।

वैज्ञानिकों ने कहा कि एनालिसिस की इजाजत उन्हें नहीं हैं। मिजोरम के आईजोल स्थित केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय कॉलेज ऑफ वेटेरिनरी साइंसेज एंड एनिमल हस्बेंडरी के माइक्रोबायोलॉजी के प्रोफेसर तपन कुमार दत्ता ने कहा कि वे सिर्फ सैंपल एकत्र करते हैं और प्राथमिक पुष्टि के बाद एनालिसिस के लिए भोपाल भेजते हैं। जब वहां से पुष्टि होती है तभी हम रिपोर्ट करते हैं।

हालांकि, इस मामले पर पशुपालन और डेयरी विभाग के एनिमल हसबेंडरी कमिश्नर डॉक्टर प्रवीण मलिक ने बताया कि कोविड की पहली लहर के दौरान जब पहले केस का पता चला तो उसे जांच तक लाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। उस वक्त काफी प्रतिबंध था।

हालांकि हम सिर्फ भोपाल की नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाई सिक्योरिटी एनिमल डिजीज की लैब पर केंद्रित नहीं रहे। हमने गुवाहाटी और मेघालय के बारापानी में लैब में प्रारंभिक जांच सुविधा रखी है, भोपाल की लैब को सैंपल के आइसोलेशन के लिए रखा गया है। कोविड न होता तो यह काम और अच्छा हो सकता था।


एएएसफ का ऐसे चला पता

एल्सेवियर्स इनसाइक्लोपीडिया ऑफ वायरोलॉजी के अनुसार, एएसएफ को पहली बार 1910 में केन्या में घरेलू सूअरों में पहचाना गया था। 1921 में युगांडा सरकार के पशु चिकित्सा सलाहकार आर यूस्टेस मोंटगोमरी ने जंगली सूअर से एएसएफ के संभावित संचरण की पुष्टि की।

कहा जाता है कि यह वायरस 1,700 ईसवीं के आसपास सॉफ्ट टिक के एक वायरस से विकसित हुआ था जो जंगली सूअर को संक्रमित करता है, जिसमें बड़े फॉरेस्ट हॉग, वॉरथोग और बुश पिग शामिल हैं।

1957 में एएसएफ पहली बार अफ्रीका के बाहर, पुर्तगाल में दिखाई दिया और कुछ ही दशकों में, अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका के अन्य देशों में फैल गया।

यह क्यूबा और हैती के कैरिबियाई द्वीपों तक भी पहुंच गया (देखें ग्राफ, कैसे हुआ तेजी से प्रसार)। इसने 2018 में एशिया में प्रवेश किया, जब दुनिया का सबसे बड़ा पोर्क उत्पादक और उपभोक्ता चीन ने पहला मामला दर्ज किया।

उस वर्ष, राष्ट्रों ने इसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नियमों और समझौतों के साथ प्रबंधित करने के लिए ओआई के तहत एक “अधिसूचित” संक्रामक पशु रोग घोषित करने के लिए दौड़ लगाई।

हालांकि, भारत पड़ोसी बांग्लादेश और म्यांमार द्वारा 2018 और 2019 में एएसएफ की रिपोर्ट करने के बावजूद 2020 तक इस बीमारी से मुक्त रहा।

फिर यह वायरस भारत में कैसे आया? इस प्रश्न के जवाब में मिजोरम के आईजोल स्थित केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय कॉलेज ऑफ वेटेरिनरी साइंसेज एंड एनिमल हसबेंडरी के माइक्रोबायोलॉजी के प्रोफेसर डॉक्टर तपन कुमार दत्ता डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि इसके स्रोत का स्पष्ट पता अभी नहीं चल सका है।

यह पहले चीन फिर नजदीकी देशों म्यांमार और फिर भूटान तक भी पहुंचा। भारत आने के इसके कई संभावित कारण हो सकते हैं। भारतीय सीमा से लगे हुए देशों में जंगलों से आने वाले वाइल्ड बोर से हमारे पशु संक्रमित हो सकते हैं। एक कारण चीन से भारत में बहकर आने वाली नदी भी हो सकती है। यह किसी फूड मटेरियल (मीट) के जरिए आ सकता है। अभी तक साइंटिफिक प्रूफ नहीं है। इसका नियंत्रण सिर्फ सेग्रिगेशन है।

प्रवीण मलिक ने बताया कि सबसे ज्यादा संभावित कारण वाइल्ड बोर हैं जो जंगली क्षेत्र में विचरण करते हैं। इसकी जिम्मेदारी पर्यावरण मंत्रालय के तहत वाइल्डलाइफ विभाग की है कि वह जानवरों में संक्रमण को ट्रेस करे। इसकी गाइडलाइन भी मौजूद है लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

ट्रांसबाउंड्री मूवमेंट वाले जीवों पर निगरानी रखना और आगाह करने का तंत्र प्रभावी तौर पर काम करना चाहिए था। मुझे कुछ सूचनाएं मिली थीं कि कुछ वाइल्ड बोर प्रभावित हैं लेकिन ऐसा व्यापकता के साथ होता तो हमें जरूर पता होता। बहरहाल एएसएफ ने सिर्फ भारत को ही नहीं बल्कि दुनिया में सूअर पालन और उसके चारे की व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया है। चीन समेत अन्य एशियाई देश एएसएफ के शिकार हैं तो यूरोप और एशिया से बाहर अन्य देश सस्ते चारे और निर्यात का लाभ ले रहे हैं।

छोटे किसान और वैश्विक प्रभाव

वैश्विक स्तर पर कुल मीट उत्पादन में सूअर मांस (पोर्क) उत्पादन 35-40 प्रतिशत हिस्सेदारी रखता है। यह 110,000 टन से अधिक की वार्षिक खपत के साथ प्रोटीन का एक प्रमुख स्रोत भी है। विकसित और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में औद्योगीकृत सूअर पालन के बावजूद यह प्रमुख रूप से छोटे पैमाने के किसानों का मामला बना हुआ है। इसलिए, छोटे किसान एएसएफ के प्रकोप के पहले शिकार हैं।

भारत सहित कई देशों में 70 प्रतिशत सूअर फार्म छोटे पैमाने के किसानों (पशुपालन और डेयरी विभाग के अनुसार) के स्वामित्व में है। ज्यादातर फार्म बंद हो रहे हैं और लोग इस व्यवसाय से बाहर निकल रहे हैं।

चीन के राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो के 2016 के आंकड़ों के अनुसार, चीन में कुल सूअर का मांस उत्पादन का लगभग 98 प्रतिशत छोटे पैमाने के किसानों द्वारा किया जाता है, जिनके पास 100 से कम सूअर होते हैं। चीन और वियतनाम जैसे देशों की एजेंसियां यह कई बार चेता चुकी हैं कि यह बीमारी छोटे और मध्यम स्तरीय किसानों को काफी ज्यादा प्रभावित करेगी। वे इसके उपायों का बोझ नहीं उठा सकते।

हालांकि चीन न सिर्फ सूअरों की आबादी बढ़ाने का दावा कर रहा है बल्कि प्रमुख चारा सोयाबीन के समीकरण को भी बदल रहा है। जून 2021 में चीन के कृषि मंत्रालय ने सूअर की संख्या में वृद्धि की सूचना दी थी। इसकी वजह थी कि चीन ने सूअरों की घटती आबादी को फिर से स्टॉक करना शुरू कर दिया था।

मंत्रालय के अनुसार, 2019 और 2020 में क्रमश: 31.0 करोड़ और 36.0 करोड़ की तुलना में वर्ष 2021 में देश की सूअर की आबादी 44.0 करोड़ से अधिक होने की संभावना है। चीन ने 2021 के पहले पांच महीनों में सोयाबीन के आयात पर 19.35 अरब डॉलर खर्च किए, जो पिछले साल की इसी अवधि के दौरान उसके आयात खर्च की तुलना में 44 फीसदी अधिक है।

इसके साथ ही दुनिया भर में सोयाबीन की मांग बढ़ गई है। चीनी सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, अमेरिका और ब्राजील से सोयाबीन का आयात 2021 के पहले पांच महीनों में पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 12.8 फीसदी बढ़ा है।

फीड की कीमत में इस बढ़ोतरी के प्रभाव पर थाइलैंड के स्वाइन विशेषज्ञ पर्तीवत पूलपर्म कहते हैं, “भविष्य में सूअर का चारा छोटे आकार के खेत धारक के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। सूअर के मांस उत्पादन चक्र में लागत का 70 प्रतिशत चारे के लिए खर्च होता है। इसलिए यदि आप अपने फीड की कीमत बढ़ाते हैं तो आपकी कुल लागत भी बढ़ जाती है।” इसका छोटे धारक व्यवसायों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा क्योंकि वे इस उच्च लागत को वहन करने में सक्षम नहीं होंगे।


कहीं वरदान, कहीं अभिशाप

चीन सूअर मांस का दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोक्ता और आयातक है। यह सोयाबीन का सबसे बड़ा आयातक भी है जिसका उपयोग चारे के रूप में किया जाता है।

चीन में सूअरों की सामूहिक हत्या ने न केवल घरेलू और वैश्विक पोर्क व्यापार को बाधित किया है, बल्कि इसने पशु चारा के अंतरराष्ट्रीय बाजार को भी प्रभावित किया है।

चीन में पोर्क (सूअर का मांस) का उत्पादन लगातार बढ़ा है। ओआईई के अनुसार, 2010-2018 में इसका वार्षिक पोर्क उत्पादन 5 करोड़ (50 मिलियन) टन बढ़ा था।

2018 में, चीन दुनिया के कुल पोर्क का 50 प्रतिशत उत्पादन कर रहा था। लेकिन रिसर्च एंड मार्केट्स डॉट कॉम द्वारा ग्लोबल पोर्क प्रोडक्शन रिपोर्ट 2014-2020 के अनुसार, एएसएफ ने वैश्विक पोर्क उत्पादन में 25 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की (देखें ग्राफ, वैश्विक गिरावट,)।

जैसे ही सूअर की आबादी में गिरावट आई, वर्ष 2019 में चीन में सोया जैसे पशु आहार की कुल खपत में 17 फीसदी की गिरावट आई है। चीन आयातित सोयाबीन के 80 प्रतिशत से अधिक भाग को पशु आहार में संसाधित करता है।

वैश्विक बाजार में चीन में पोर्क उत्पादन और चारे की खपत में गिरावट का यह मेल कई देशों के लिए वरदान साबित हुआ।

एशिया के बाहर सूअर किसानों को सस्ता चारा लागत और उच्च निर्यात मांग से लाभ हुआ। देश के पर्यावरण, खाद्य और ग्रामीण मामलों के विभाग के अनुसार, पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 2020 में ब्रिटेन के चीन को खाद्य निर्यात में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

2020 के मध्य से चीन में एएसएफ संक्रमण कम हो रहा है, हालांकि यह यूरोप और एशिया में फैल रहा है। इसके कारण चीन ने एक बड़ी घोषणा की कि वह 2021 के मध्य तक सूअर की आबादी को पूर्व-एएसएफ अवधि के 90 प्रतिशत के स्तर तक पहुंचाने के लिए पुन: स्टॉक करना शुरू कर देगा।

लेकिन फरवरी 2021 में, चीनी विज्ञान अकादमी के तहत हार्बिन पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान ने घोषणा की कि एएसएफ वायरस उत्परिवर्तित हो गया है। नया स्ट्रेन हल्की बीमारी का कारण बनता है लेकिन इसका पता लगाना बहुत मुश्किल है। इससे यह डर पैदा हो गया था कि संक्रमण अब और अधिक होगा।

जनवरी में रॉयटर्स ने अज्ञात उद्योग स्रोतों के हवाले से बताया कि दो नए उपभेदों से सूअर के खेतों में उत्पादन कम हो रहा है। नए स्ट्रेनों की बात लगातार कई एजेंसियों के जरिए की जा रही है। इसका दुष्परिणाम भारत समेत अन्य एशियाई देशों के छोटे सूअर पालक किसानों पर पड़ सकता है।

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