नेट जीरो उत्सर्जन: कृषि को बनाया जा रहा है बलि का बकरा

कृषि को सबसे बड़ा प्रदूषक बता कर सीमित करना और 2030 तक पशुधन को 30 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य पर सवाल उठा रहे हैं देविंदर शर्मा
इलस्ट्रेशन:योगेन्द्र आनंद
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ऐसे वक्त में जब दुनिया आपस में जुड़ी दो समस्याओं–जलवायु आपातकाल और जैव-विविधता की बर्बादी से एक साथ घिरी हो, तब नेचर फूड के एक अध्ययन से ज्ञात होता है कि लगभग 34 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए केवल कृषि क्षेत्र जिम्मेदार है। कृषि-व्यवस्था और औद्योगीकृत खाद्य-सामग्री का भविष्य निरंतर संशय के दायरे में है। ऐसे समय में वैश्विक कृषि-व्यापार संबंधित उद्योग रूस-यूक्रेन युद्ध की आड़ लेते हुए खाद्य सुरक्षा आधारित नैरेटिव का इस्तेमाल फिर से खाद्य आपूर्ति श्रृंखला को सुदृढ़ बनाने के लिए कर रहा है।

दरअसल जितना अधिक कृषि को रूपांतरित करने पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है, उतनी ही यह समस्या पहले से अधिक गंभीर होती जा रही है। कृषि क्षेत्र के द्वारा किए जा रहे कार्बन उत्सर्जन की मात्रा को नियंत्रित करने को लेकर होने वाली सभी वार्ताओं और समझौतों के पीछे किसानों को कृषि के काम से धकेल बाहर करने की कुत्सित मंशा भी साफ-साफ दिख रही है। इनमें जोर दिया जाता है कि पशुधन की आबादी में भारी कटौती की जाए।

ये दोनों अभियान नाइट्रोजन उत्सर्जन की मात्रा को कम करने और इस बहाने जैव-विविधता व संरक्षण को प्रोत्साहित करने जैसे उद्देश्यों पर केन्द्रित हैं। लेकिन भविष्य में डिजिटलीकरण, रोबोटिक्स, तकनीकी दखल और सिंथेटिक खाद्य के बूते होने वाली कृषि-क्रांति 4.0 को देखते हुए यह सहज समझा जा सकता है कि इसकी परिणति अंततः एक समूह विशेष के अधिक ताकतवर होने के रूप में होगी।

सच यही है कि यह सब दुनिया को एक ऐसी दिशा में ले जाने की कवायद है जहां दुनिया की बेशतर आबादी को अपना पेट भरने के लिए कुछ गिनती के धन और सत्ता-संपन्न लोगों का मोहताज होना पड़ेगा।

सामरिक और धूर्ततापूर्ण वर्चस्व सबसे पहले इन नीतियों के परिणाम को समझने की जरूरत है। किसानों की संख्या जितनी कम बचेगी, निजी क्षेत्रों के लिए कृषि क्षेत्र पर कब्जा भी उतना ही आसान हो जाएगा। “सबसे बड़े प्रदूषक” यानी कृषि को सीमित करने के साथ-साथ 2030 तक पशुधन 30 प्रतिशत तक कम करने के लिए जलवायु परिवर्तन से बेहतर बहाना और क्या हो सकता है।

हालिया महीनों में नीदरलैंड में प्रदर्शनकारी किसानों के अखबार की सुर्खियों में छाए रहने के बावजूद उनकी जमीनों को बलपूर्वक हथियाने की कोशिशें हुईं। डच सरकार ने तो किसानों को स्वेच्छा से भूमि देने के पहले शत प्रतिशत कीमत देने का प्रस्ताव भी दिया। लेकिन इस प्रस्ताव को ठुकरा देने की स्थिति में 2023 से किसानों के विरुद्ध बल प्रयोग किए जाने का विकल्प खुला रखा गया है।

एक ऐसे देश में जहां नाइट्रोजन का 45 प्रतिशत उत्सर्जन कृषि से होता है, वहां जलवायु परिवर्तन की समस्या का निराकरण कुल 11,200 कृषि भूमि में से 3,000 कृषि भूमि के अधिग्रहण से कुछ हद तक किया जा सकता है। यह भूक्षेत्र कुल कृषि योग्य भूमि का लगभग 25 प्रतिशत है और इस दृष्टि से यह एक बड़ी कटौती कही जा सकती है।

ग्रेट ब्रिटेन में सिर्फ 1 प्रतिशत जनसंख्या ही खेती करती है। वहां किसानों को 1,00,000 पौंड स्टर्लिंग के एकमुश्त भुगतान का प्रस्ताव दिया जा रहा है, बशर्ते कृषि-कार्य छोड़ कर अपनी भूमि या तो बेच दें या पेड़ लगाने के लिए पट्टे पर दे दें। ये सारे कदम भूमि-सुधार और पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उठाए जा रहे हैं, किंतु साथ ही तेजी के साथ विकसित हुए बड़ी संख्या में पर्यावरण को विनष्ट करने वाली कारखाना-खेती और मेगा-फार्म्स से बढ़ने वाले प्रदूषण की समस्या की घोर अनदेखी भी हुई है।

एक बार दोबारा जलवायु संकट की बड़ी समस्या दुनिया के सामने खड़ी है और इस बार उसके निशाने पर दुनिया के किसान हैं जिन्हें उनके खेती के काम से निकाल बाहर करना इस समूह का सबसे बड़ा उद्देश्य है।

ब्रिटेन के डिपार्टमेंट फॉर एनवायरनमेंट, फूड एंड रूरल अफेयर्स (डेफ्रा) ने अपने परामर्श पत्र में स्वचालन, ड्रोन और सटीक प्राद्योगिकी पर विशेष जोर दिया है ताकि खाद्यान्न उत्पादन को प्रोत्साहित कर खाद्य-सुरक्षा को सुनिश्चित करने संबंधी चुनौतियों से निबटा जा सके। अपने कृषि योग्य क्षेत्र में कटौती कर नीदरलैंड इसी रणनीति को अपना रहा है।

अब न्यूजीलैंड द्वारा अपने पशुधनों पर लगाए जाने वाले “फार्ट टैक्स” पर गौर करने की जरूरत है। यह टैक्स मीथेन गैस के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के उद्देश्य से लागू किए जाने के लिए प्रस्तावित है। हालांकि न्यूजीलैंड एक छोटा सा देश है लेकिन इसका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर बहुत ऊंचा है।

एक डेयरी उत्पादक देश होने के कारण इसके गैस उत्सर्जन की अधिकतर मात्रा इसके पालतू गाय के कारण है। यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज के “कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज 26” में प्रस्तावित समझौतों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए वर्ष 2030 तक इसने उत्सर्जन दर को 50 प्रतिशत तक कम करने की बात दोहराई ताकि भूमंडलीय तापमान को निर्धारित 1.5 डिग्री से कम रखा जा सके। इस पहल से गाय और भेड़ पालन-उद्योग को नुकसान होने के साथ-साथ इस द्वीप-देश की आर्थिक गतिविधियों पर निश्चित गहरा असर पड़ेगा।

एक तरफ उत्सर्जन को न्यूनतम करने के लिए पर्यावरणवादी संगठन और भी कड़े नियामक कानूनों की अपेक्षा करते हैं और जीवाश्म-इंधनों पर निर्भर करने वाले नाइट्रोजन उर्वरक व रासायनिक कीटनाशकों पर कठोर कारवाई चाहते हैं, वहीं दूसरी तरफ किसान संगठन इसका जोरदार विरोध कर रहे हैं। हालांकि ग्रेन (जीआरएआईएन) द्वारा किए गए अध्ययन स्पष्ट संकेत मिलता है कि रासायनिक खादों का उपयोग कम करने के दबावों के बाद भी विश्व की नौ सबसे बड़ी खाद कंपनियों का लाभ 2020 में 13 अरब डॉलर से हैरतअंगेज रूप में 440 प्रतिशत तक बढ़ कर 2022 के अंत तक 57 अरब डॉलर पहुंच जाने की उम्मीद है।

उत्सर्जन में कमी के बहाने

सुप्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय संगठन ईटीसी ने अपने तीन सालों के अध्ययन में इस तथ्य का विस्तृत ब्यौरा दिया है कि किस प्रकार कुछ गिने-चुने धनाढ्य और सत्तापोषित व्यापारिक घरानों अथवा निजी क्षेत्रों के हाथों में औद्योगिक खाद्य श्रृंखला की बागडोर आने से इस व्यापार पर उनकी पकड़ निरंतर मजबूत हो रही है।

अध्ययन यह भी बताता है कि पशुधनों, मत्स्य उद्योग, उपभोक्ता-व्यापार और खुदरा खाद्य बाजार के अधिग्रहण और विलयन और कृषि उपकरणों के डिजिटलीकरण और स्वचालन के अंधाधुंध उपयोग से किसानों को किस प्रकार अंततः कृषिकार्य से बाहर कर दिए जाने का खेल रचा जा रहा है।

फाइनेंशियल टाइम्स ने अपनी एक वीडियो रिपोर्ट में आधुनिक उद्यमियों को औद्योगिक-नियंत्रित परिस्थितियों में खाद्य-उत्पादन संबंधित प्रयोग करते हुए दिखाया है, और यह दावा किया है कि दरअसल वे “कृषि योग्य भूमि के निर्माण” के काम में जुटे हुए हैं जिसका अर्थ यह है कि न तो वे भूमि का उपयोग कर रहे हैं और न फसल को उपजाने के लिए उन्हें किसानों की जरूरत ही है। यह पद्धति तेजी से विकसित हो रही है।

1960 और 1970 के दशक में जिस हरित क्रांति की शुरुआत हुई थी, वह अब अगले दूसरे दौर की “एग्रीकल्चर रिवॉल्यूशन 4.0” (कृषि क्रांति) में प्रवेश कर चुकी थी। 1960 के दशक में आर्थिक वृद्धि को गतिशील बनाए रखने के लिए वैश्विक आर्थिक योजनाओं की विश्वसनीयता पर जोर दिया गया और कृषि मूल्यों को सायास तरीके से नीचे रखा गया, ताकि गांवों से शहरों की ओर होने वाले पलायन को प्रोत्साहित किया जा सके।

बीच के सालों में बड़े स्तर पर रसायनों के प्रयोगों और यंत्रिकी के विस्तार के कारण विस्तृत कृषि-कार्यों के क्षेत्र में पर्यावरण का व्यापक क्षरण हुआ जिसने ग्रीनहाउस गैसों का तेजी से उत्सर्जन हुआ। उद्देश्य यह था कि इनकी आड़ में किसानों को कृषि-कार्यों से मुक्त या निष्कासित कर दिया जाए, लिहाजा इस पहल के बाद कृषि क्षेत्र पर धीरे-धीरे ही सही लेकिन व्यापारिक घरानों का नियंत्रण स्थापित होने लगा जो पहले से ही इस अवसर की ताक लगाए बैठे थे।

2005-2015 के बीच के सिर्फ एक दशक में यूरोप ने अपनी 40 लाख कृषि योग्य भूमि गंवा दी, जो औसतन प्रतिदिन 1,000 कृषि योग्य भूमि से अधिक है। कृषक जनसंख्या का इस चिंताजनक तरीके से कम होने और कृषि भूमि के क्षेत्रफल में होने वाली उत्तरोत्तर कमी की भरपाई कृषि-व्यापार में होने वाली वृद्धि से की जा रही है। अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी, नए अधिग्रहण और विलयन ने कृषि व्यापार के क्षेत्र में आए नए-नए उद्यमियों को अनेक तरह से सहायता की है।

उदाहरण के रूप में बीज-उत्पादन करने वाली केवल दो कंपनियां आज वैश्विक बीज बाजार के 40 प्रतिशत व्यापार पर नियंत्रण रखती हैं, जबकि 25 साल पहले इस व्यापार पर 10 बीज कंपनियों का कब्जा था। यह वर्चस्व संपूर्ण खाद्य श्रृंखला पर कृषि-व्यापार से संबंधित गिनी-चुनी कंपनियों के निरंतर बढ़ते हुए प्रभाव की तरफ संकेत करता है।

जलवायु पैटर्न में बदलावों के बाद की निराशा केवल निर्णयात्मक नीतियों के क्रियान्वयन से ही कुंद हो सकती है। खाद्य-सुरक्षा के लिए कृषि क्षेत्र द्वारा अपनाया जाने वाली दीर्घकालिक रणनीतियों के लचीलेपन द्वारा इस समस्या का निराकरण खोजा जा सकता है। बुनियादी प्रश्न यह है कि कृषि योग्य भूमि में आखिर गिरावट क्यों आ रही है?

कृषि की उपेक्षा इस हद तक क्यों हो रही कि कृषक खुद को विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुके प्राणी की तरह अनुभव करने लगे? खाद्यान्न के भविष्य को बड़े उत्पाद, बड़ी प्राैद्योगिकी और बड़ी पूंजी के कब्जे में क्यों जाना चाहिए? तकनीकी दिग्गजों के कब्जे में जाने के बाद खाने और विशेष रूप से पारंपरिक खाने के प्रति हमारा आकर्षण हमेशा के लिए खत्म होने का खतरा है।

किसानों की तादाद में आई गिरावट को दोबारा बढ़ाना और कृषि उत्पादों की आर्थिक वहनीयता को सुनिश्चित करना इस पर निर्भर है कि दुनिया अस्त-व्यस्त हो चुके खाद्य-प्रणाली को फिर से किस रूप में रूपांतरित करती है। बेशक पर्यावरण-दक्षता और संधारणीयता अथवा स्थिरता का बहुत महत्व है, लेकिन खेती और खतरे में पड़े कृषक समुदाय पर अंकुश लगाना, इसके भविष्य के लिए कहीं से भी उचित नहीं है। नेट-जीरो उत्सर्जन की लक्ष्य-प्राप्ति के लिए कृषि की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती है। इसलिए जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से बचाव के लिए रिसेट बटन की मदद की सख्त जरूरत है।

(लेखक कृषि एवं खाद्य नीति विश्लेषक हैं)

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