सुबह का समय है। ओडिशा के मलकानगिरी जिले के बोंडा घाटी के जंगली पहाड़ी पर मोंगला सिसा और किसानों का एक समूह गीत गा रहा है। दरांती, कुदाल और लाठी से लैस, वे ढलान पर खेती के एक अनोखे स्वरूप को विकसित कर रहे हैं। समृद्ध जैव विविधता को संरक्षित करते हुए ये किसान 20 से अधिक फसलों की किस्मों को उगाते हैं। मलकानगिरी की पहाड़ियों पर 450 पौधों की प्रजातियों और 34 औषधीय जड़ी-बूटियों की उपलब्धता है। बोंडा समुदाय देश के 75 वर्गीकृत विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों (पीवीटीजी) में से एक है। इस समुदाय के किसानों के लिए, डांगर चास नाम की यह कृषि प्रथा (उच्चभूमि की खेती) पीढ़ियों से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करती आ रही है।
ओडिशा पीवीटीजी एम्पावरमेंट एंड लाइवलीहुड्स इम्प्रूवमेंट प्रोग्राम (ओपीईएलआईपी) द्वारा 2018 के अनुमान के अनुसार, मोंगला 1.3 लाख जनजाति में से एक है। यह कार्यक्रम राज्य सरकार और कृषि विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय कोष द्वारा संयुक्त रूप से चलाया जाता है। यह जनजाति पूर्वी घाट के बोंडा पहाड़ियों में समुद्र तल से 1,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित 29 राजस्व गांवों के समूह में बसी हुई है। मोंगला का गांव, बांधागुड़ा, छह-सात पहाड़ियों से घिरा हुआ है, जिसे स्थानीय लोग डांगर कहते हैं। किसान अभी अरकोंडा डांगर पर चढ़ रहे हैं, जो उनके घर से लगभग एक किलोमीटर दूर है। रास्ते में, वे जंगली पौधों और जड़ों को खोदने के लिए कई पड़ाव बनाते हैं। मोंगला कहते हैं, “ये पौष्टिक होते हैं और हम यह पकाकर खाते हैं।”
वह कहते हैं कि मई की शुरुआत में मॉनसून की पहली बारिश के तुरंत बाद खेती शुरू हो जाती है। फसल का पहला दौर नवंबर और जनवरी के बीच काटा जाता है। वह बताते हैं, “हम बुही पाराबोर के साथ खेती शुरू करते हैं, जो एक अनुष्ठान है, जिसमें धरती माता और हमारे पूर्वजों की प्रार्थना की जाती है, जिन्होंने इस धरती को समृद्ध बनाया है।” खेती छोटे इलाके में की जाती है, जिसे वह पोडू कहते हैं। इसे काटकर और जलाकर विकसित किया जाता है। खेती के बाद, पोडू को पेड़ और झाड़ियों के प्राकृतिक विकास के लिए तीन साल तक छोड़ दिया जाता है। बोंडा गांव में ओपीईएलआईपी कार्यक्रम को लागू करने वाली एक गैर सरकारी संस्था विकास से जुड़े सदानंद प्रधान कहते हैं,“यह परती चक्र सुनिश्चित करता है कि पोडू में प्राकृतिक रूप से कई प्रकार की वनस्पतियों को पनपने का मौका मिले। जनजाति समुदाय के लोग इसी वनस्पति के राख, अवशेषों और ठूंठ को मिलाकर सीडबेड तैयार करते हैं।” मोंगला कहते हैं कि यह प्रक्रिया मिट्टी को समृद्ध करती है और इसकी नमी को अवशोषित करती है।
किसान सुकरा किरसानी कहते हैं, “हम धरती को जोतते नहीं हैं, क्योंकि यह मिट्टी को ढीला करेगा और पहाड़ियों में कटाव को बढ़ाएगा। इसके बजाय, हम बीज बोने के लिए धीरे-धीरे मिट्टी को खोदते हैं।” वह बताते हैं कि देसी मोटे अनाज और तिलहन के साथ विभिन्न प्रकार के स्थानीय धान की किस्में (डांगर धान) बोए जाते हैं। किसान लछमी सिसा का कहना है कि वह प्राकृतिक रूप से पोषक तत्वों के लिए पौधों और पत्तियों के अवशेषों को मिट्टी में डाल देती हैं।
2009 की यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज ब्रीफिंग रिपोर्ट कहती है कि डांगर चास जैसी खेती के स्थान को बदलते रहने की परंपरा से खाने में पूरक पोषक तत्वों की कमी पूरी होती है और वह भी जलवायु को खतरे में डाले या वनों को नुकसान पहुंचाए बिना। गैर लाभकारी संस्था सर्वाइवल इंटरनेशनल के साथ स्वदेशी समुदाय पर रिसर्च करने वाली सोफी ग्रिग कहती हैं, “इस तरह का कृषि अभ्यास करने वाले समुदाय वन क्षेत्रों में पाए जाने वाले पौधों की प्रजातियों का पोषण भी करते हैं और स्थानीय जीवों, पक्षियों, कीड़ों, तितलियों, छोटे स्तनधारियों को आवास मुहैया कराते हैं।”
प्रकृति के साथ इस समुदाय के सह-अस्तित्व का लाभ स्पष्ट रूप से दिखता है। मई में बोंडा गांवों में तापमान 35 डिग्री सेल्सियस था, जबकि मलकानगिरी जिले के शेष गांवों में तापमान 42 डिग्री सेल्सियस था। विकास से जुड़े प्रसन्ना कुमार प्रधान कहते हैं, “मई से पहाड़ियों में मॉनसून की बारिश शुरू हो जाती है और सितंबर के अंत या अक्टूबर तक जारी रहती है।” उन्होंने कहा कि जलवायु वांछित फसल और सब्जियों की बुवाई और कटाई के लिए अधिक स्वतंत्रता देती है।
जलवायु विशेषज्ञ प्रवत सी सुतार का कहना है कि अनुकूल जलवायु डांगर चास के कारण निर्मित है, क्योंकि यह कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग के लिए लगभग 20 गुना अधिक जिम्मेदार मीथेन गैस उत्पन्न नहीं करती। वह कहते हैं, “बाढ़ में डूबी फसल, विशेष रूप से धान के खेत, मीथेन गैस पैदा करते हैं, क्योंकि धान के खेत में पानी काफी समय तक जमा रहता है।” हाइलैंड खेतों, जहां मुख्य रूप से बाजरा की खेती की जाती है, न तो बाढ़ आती है और न ही वहां पानी जमा होता है, इसलिए मीथेन गैस उत्पन्न नहीं होती। मार्च 2012 में एपीएन साइंस बुलेटिन में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि नए और बढ़ते जंगलों के माध्यम से खेती की यह शैली कार्बन सिंक बनाती है। इस अध्ययन के मुताबिक, बंजर जमीन के विकास की वजह से शुरू में वनस्पति जलाने के दौरान कार्बन उत्सर्जन की आसानी से खपत हो जाती है।
इस जनजाति के एक युवा सदस्य बादल धनगर मांझी चेतावनी देते है कि भले ही डांगर चास जलवायु परिवर्तन का सामना करने में सक्षम हो गया है, यह तेजी से बढ़ रही बोंडा आबादी की वजह से खतरे का सामना भी कर रहा है। धनगर भुवनेश्वर स्थित कलिंगा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से आदिवासी अध्ययन पर परास्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं। वह कहते हैं कि इसका प्रभाव पहले से ही दिखाई दे रहा है। उनके अनुसार, “पहले खेती की गई पोडू पैच को चार से पांच साल के लिए छोड़ दिया जाता था लेकिन अधिक फसल के लिए अब इसे घटाकर दो से तीन साल कर दिया गया है।” वह इस रुझान के लिए बढ़ती आबादी को जिम्मेदार ठहराते हैं, जहां युवा आय के अतिरिक्त स्रोत के लिए गांव से बाहर चले जाते हैं। मोंगला कहते हैं, “जब तक हम अपनी पृथ्वी की देखभाल करेंगे, उसकी पहाड़ियों और जंगलों की रक्षा करेंगे, तब तक वह हमारी सभी जरूरतों को पूरा करती रहेगी।”