महाराष्ट्र की राजनीति में चीनी मिल मालिकों का खासा दखल रहता है। हाल ही में चुनाव के बाद क्या बदलाव आया है?
पहले कांग्रेस-एनसीपी (एनसीपी) और भाजपा-शिवसेना का लगभग बराबर कब्जा था, बल्कि एनसीपी-कांग्रेस लॉबी भारी पड़ती थी जैसे कि महाराष्ट्र में लगभग 180 चीनी मिल पर राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों का कब्जा था, इनमें से भाजपा नेताओं के पास 77, एनसीपी नेताओं के पास 43 और कांग्रेस नेताओं के पास थी, लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद परिदृश्य बदल चुका है। अब एनसीपी-कांग्रेस की लॉबी पस्त हो चुकी है और भाजपा-शिवसेना के नेताओं का चीनी उद्योग पर कब्जा हो चुका है। अब 100 से अधिक चीनी मिलों पर भाजपा नेताओं का कब्जा हो चुका है। इनमें 15 से 20 कोऑपरेटिव चीनी मिल के प्रतिनिधि भी शामिल हैं। खासकर, जिन मिलों की हालत ठीक नहीं है और उन पर किसानों का काफी बकाया है, वे सभी भाजपा में शामिल हो गए, ताकि उन्हें सरकार का संरक्षण मिल सके।
क्या ये लोग चुनाव से पहले अपना पाला बदल चुके थे?
इन मिल मालिकों की यह खासियत होती है कि ये हवा का रुख पहचान जानते हैं। अधिकांश मिल मालिक चुनाव से पहले ही भाजपा में शामिल हो गए। उन्होंने पार्टी उम्मीदवारों को हर तरह से समर्थन दिया। लेकिन जो चुनाव से पहले शामिल नहीं हो पाए, अब कतार में लगे हैं। कभी भी भाजपा-शिवसेना में शामिल हो सकते हैं।
अभी महाराष्ट्र में कितनी कोऑपरेटिव मिल हैं?
पिछले साल 190 मिल थी, उसमें 100 मिलें प्राइवेट थी, लेकिन अब प्राइवेट मिलों की संख्या बढ़ती जा रही हैं। जिस तरह का माहौल दिख रहा है, उससे लग रहा है कि आने वाले दिनों में लगभग सभी कोऑपरेटिव मिलें पहले बीमार घोषित की जाएंगी और फिर बंद कर दी जाएंगी। जिन्हें प्राइवेट चीनी मिल मालिक खरीद लेंगे। जैसा कि उत्तर प्रदेश में हो रहा है।
अब चीनी मिलों पर किसानों के बकाया की क्या स्थिति है?
चीनी मिल मालिक और सरकार आंदोलन की भाषा ही समझती है। चुनाव खत्म होने के बाद अब हमने फिर से बकाया वसूलने के लिए आंदोलन शुरू कर दिया है, जिसकी बदौलत राज्य सरकार को कड़े निर्देश देने पड़े। चीनी मिलों के खिलाफ आरआरसी (रेवेन्यू रिकवरी सर्टिफिकेट) नोटिस जारी करवाए गए, जिसके चलते मिल मालिकों ने काफी हद तक बकाया दे दिया है। इस समय किसानों का केवल 5 फीसदी पैसा ही बकाया है। बाकी 95 फीसदी बकाया किसानों को मिल चुका है। अब जो बकाया है, वे पूरी तरह नुकसान में चल रही बीमारू मिल हैं। उनके पास देने को पैसा है ही नहीं।
इस चुनाव में गन्ना किसानों का क्या रुख रहा?
यह ही तो समझ नहीं आ रहा। 2014 में भाजपा ने किसानों को लुभाने के लिए स्वामीनाथन आयोग, दोगुना आमदनी जैसे वादे किए थे, लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं किया गया। सभी किसान भाजपा सरकार के नाराज थे, लेकिन फिर भी कैसे भाजपा जीत गई, यह समझ नहीं आ रहा। देखिए, चुनाव जीतने के बाद भाजपा जश्न भी नहीं मना रही है, जबकि इससे पहले जमकर जश्न मनाया जाता था। चुनाव जीतने के बाद जो जीतने वाली पार्टी में जो माहौल रहता है, वैसा माहौल देखने को नहीं मिल रहा।
सॉफ्ट लोन को लेकर सरकार और चीनी मिल मालिकों पर सवाल उठ रहे हैं। इसकी क्या वजह है?
जो चीनी गोदाम में पड़ी है, उसका स्टॉक दिखाते हुए चीनी मिल मालिकों को लोन दे दिया गया। लेकिन बैंक सॉफ्ट लोन देने के लिए तैयार नहीं थे। यही वजह थी कि किसानों का बकाया बढ़ता जा रहा था। बैंकों का कहना था कि चीनी मिलों ने पहले के लोन का भुगतान नहीं किया है तो उन्हें नया लोन नहीं दिया जाना चाहिए। किस आधार पर मिलों को लोन दें। बैंकों ने कहा था कि चीनी मिलों की गारंटी कौन लेगा? उस समय चीनी मिलों की गारंटी लेने वाला कोई नहीं था, लेकिन सरकार ने जबरदस्ती मिलों का सॉफ्ट लोन सेंक्शन करवाया। चुनाव से दो-तीन महीने पहले ही यह सब हुआ और चीनी मिलों को बैंकों ने लोन जारी कर दिया। मुझे पता चला है कि सरकार ने चीनी मिलों की गारंटी ली है। दरअसल, चीनी मिलों का मुनाफा काफी कम हो गया और उनके पास खर्च से ज्यादा का माल गोदाम में पड़ा था। खर्च और बकाया राशि, गोदाम में जमा माल से अधिक हो गई थी।
इस सॉफ्ट लोन का मिल मालिकों ने क्या किया?
यह पैसा किसानों का बकाया चुकाने में इस्तेमाल हुआ। चुनाव के दौरान और बाद में भी किसानों को बकाया चुकाएगा। इसकी एक वजह यह भी रही कि हम चुप नहीं बैठे और लगातार दबाव डाल कर सरकार से आरआरसी नोटिस जारी कराते रहे। यदि मिल मालिक किसानों को बकाया नहीं देते तो प्रशासन मिल को अपने कब्जे में ले लेती हैं।
देश भर की कोऑपरेटिव चीनी मिल बीमारू हो रही हैं, इसका कारण क्या है?
चीनी मिलों के बीमारू होने का कारण मार्केट में चीनी की कीमतें निरंतर घट रही हैं और बहुत दिनों तक गोदाम में स्टॉक पड़ा रहता है। मिलों पर कर्ज की ब्याज राशि बढ़ती जाती है। इसके अलावा चीनी के आयात निर्यात को लेकर केंद्र सरकार की नीति सही नहीं है। इससे चीनी उद्योग को नुकसान हुआ है। सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार है। राजनीतिक दल अपने राजनीतिक फायदे के लिए कोऑपरेटिव चीनी मिलों का जानबूझ कर नुकसान करते हैं। जैसे कि, अपने कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए कोऑपरेटिव मिल में भर्ती कर दिया जाता है, जबकि वहां उनकी जरूरत नहीं होती। उन्हें तनख्वाह भी काफी दी जाती है। इसी तरह के फालतू खर्च काफी किए जाते हैं। चीनी मिल के पैसे का इस्तेमाल राजनीतिक दल अपने वर्चस्व बढ़ाने, जनता को लुभाने और प्रचार पाने के लिए करते हैं। वहीं, ये दल अपने नेताओं की प्राइवेट चीनी मिलों को फायदा पहुंचाने का काम भी करते हैं। इससे कोऑपरेटिव मिलें बंद होती जा रही हैं।