कृषि पैदावार, फोटो: आईस्टॉक
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भारतीय उत्सवधर्मिता: प्रकृति और ऋतु परिवर्तन का जश्न

होली त्यौहार के माध्यम से उत्सवधर्मिता में छिपे अनेकात्म में एकात्म की पड़ताल
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मानव की उत्पत्ति और विकासक्रम में कृषि एक महत्वपूर्ण क्रांति रही, जब शिकारी और खानाबदोश जीवन छोड़कर खेती-किसानी को अपनाया। इसी परिवर्तन के साथ एक सामान्य और कमजोर प्राणी से पृथ्वी का सबसे विशिष्ट और प्रभुत्वशाली जीव बनने की यात्रा शुरू हुई। कृषि से न केवल भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित की, बल्कि खाली समय और संसाधनों की प्रचुरता भी मिली। मनुष्य विशाल और रहस्यमयी प्रकृति के बीच रहते हुए ऋतु चक्रीय बदलावों को समझना शुरू किया और खेती को इन्हीं परिवर्तनों के अनुरूप ढाला।

समय के साथ प्रकृति के इन परिवर्तनों को चिह्नित करने और उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा विकसित हुई। धीरे-धीरे अनेक पर्व और त्योहार अस्तित्व में आए, जो मुख्यतः मौसम में होने वाले सालाना बदलाव और कृषि चक्र के परिचायक बने। ये न केवल कृषि कार्यों के नियोजन में सहायक सिद्ध हुए, बल्कि मानव ऊर्जा और उल्लास को भी बनाए रखने का माध्यम बने। भारत, जो जलवायु की दृष्टि से अत्यंत विविधतापूर्ण क्षेत्र है, यहां मौसम, कृषि और उत्सव के बीच एक गहरा त्रियोग विकसित हुआ। इस सांस्कृतिक तालमेल का सजीव उदाहरण मकर संक्रांति, होली, नवरात्र जैसे प्रमुख त्योहारों में देखा जा सकता है, जिनकी परंपराओं और महत्व को आज के दौर में भारतीय संदर्भ में पुनः समझने की आवश्यकता है।

मौसम का परिवर्तन, फसल चक्र की लय, वसंत की मादकता और पेड़ों पर खिलते मंजर की सुगंध संपूर्ण देश में हजारो सालों से वसंत ऋतु को उल्लासमय बनाती आई है, जिसे सम्पूर्ण भारत खंड में होली के विविध स्वरूपों के परिलक्षित होता है।

यह पर्व भारतीय ज्ञान परंपरा में निहित ‘अनेकात्म में एकात्म’ का प्रतीक है, जहां भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां एक ही मूल भाव से जुड़ी होती हैं। उदहारण के लिए, किसी न किसी रूप में होली के सभी विविध रूप, लोकाचार पर्यावरण और मौसम में हो रहे परिवर्तनों से गहरे रूप से जुड़ा हुआ है।

प्राकृतिक रंगों, जैविक सामग्रियों और पारंपरिक रीति-रिवाजों के माध्यम से इसे मनाने की परंपरा रही है, जो प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की मानव प्रवृत्ति को दर्शाती है। बदलते मौसम की यह उल्लासपूर्ण स्वीकृति न केवल सांस्कृतिक चेतना को प्रकट करती है, बल्कि मानव मन में आनंद और नवचेतना का संचार भी करती है।

शीत के बाद बसंत के स्वागत में मनाया जानेवाला होली और नवरात्र भारत के ऐसे पर्व हैं  जो मौसम के परिवर्तन और प्रकृति के चक्र को दर्शाते हैं। शीत ऋतु के समापन और ग्रीष्म ऋतु के आगमन के इस वसंत संधिकाल में यह उत्सव प्रकृति के बदलाव को स्वीकार करने और उसके अनुरूप ढालने का प्रतीक है।

प्राचीन समय से यह केवल रंगों और उल्लास का नहीं, बल्कि प्रकृति के अनुकूल जीवनशैली और सामाजिक समरसता का भी पर्व रहा है। भारत की भौगोलिक और सामाजिक विविधता को समझने के लिए यहां की मौसमी परिवर्तनशीलता, कृषि पद्धतियों और त्योहारों के बीच के गहरे तालमेल को देखना आवश्यक है।

होली पर्व सिर्फ मस्ती और रंगों का उत्सव नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव जीवन के बीच सामंजस्य का प्रतीक है। पूरे भारत में यह अलग-अलग रंगों और रूपों में केरल से मणिपुर तक मनाया जाता है, लेकिन इसकी मूल भावना एक ही रहती है—जीवन के उल्लास का उत्सव। यह केवल व्यक्तिगत आनंद का नहीं, बल्कि सामूहिकता का उत्सव समाज में समरसता और एकता को बढ़ावा देता है और प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखने की भावना को प्रोत्साहित करता है।

यह त्योहार लोक संस्कृति को बचाते हुए सामूहिकता और पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित रखने का माध्यम है। पर्यावरण संरक्षण के दृष्टिकोण से भी इसका विशेष महत्व है, क्योंकि यह प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाने और पारंपरिक, जैव-विविधता को संरक्षित करने वाले तरीकों से उत्सव मनाने की प्रेरणा देता है।

होली प्रथम दृष्टतया हिंदी पट्टी बिहार, झारखण्ड, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान का उत्सव लगता है जो अन्य प्रदेशो में हाल के दशक में लोकप्रियता मिल गई है। पर गहराई से देखे तो होली भारत के हर कोने में किसी न किसी स्वरुप में परम्परागत रूप से मनाई जाती रही है। कहीं ये फागुन की मस्ती का त्यौहार फगुआ है तो कही रंगों से भरी रंग पंचमी, पर हर जगह हर्ष और उल्लास फूल, रंग, स्थानीय नृत्य संगीत और खान-पान के मध्यम से निरुपित होता है।  

बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में होली का उत्सव फगुआ, फाग के रंग लिए होती है, जिसमें पकवान के अलावा भोजपुरी, मगही, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, अवधी आदि में सामूहिक रूप में गाये जाने वाले फगुआ की धूम होती है, जिसकी शुरुवात होलिका दहन में अनाज लग चुके फसल की कुछ बालियाँ जला के होती है। मध्य भारत जिसमें छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र के क्षेत्र शामिल है पाँच दिनों तक चलनेवाली रंगपंचमी में पकवान और रंग और गुलाल के साथ गाँव-गाँव में खूब धूम-धाम से मनाया जाता है।

महाराष्ट्र में होली के बाद पंचमी के दिन विशेष पकवान पूरनपोली और सूखा गुलाल से रंग खेलने की परंपरा है वहीं मछुआरों की बस्ती मे रंग पंचमी का मतलब नाच, गाना और मस्ती होता है और रिश्ता तय करने की शुरुवात भी इसी दिन से होती है। ब्रजक्षेत्र सहित गंगा के मैदानी इलाको में उत्तर प्रदेश से बंगाल तक सरस्वती पूजा यानी बसंत पंचमी से ही होली का चालीस दिवसीय उत्सव आरंभ हो जाता है। ब्रज में होली राधा और कृष्ण के प्रेम का खास रंग लिए होती है जहाँ बरसाने और नन्दगाँव में औरतें लठ और रंग के साथ लठमारहोली मनाती दिखती है। 

कोंकण भाषी और गोवा के मछुआरे में होली का अनोखा स्वरुप शिमगो या शिमगा खासा लोकप्रिय है जो एक तरह से पौराणिक कथाओं का सामाजिक निरूपण है, जिसे उन योद्धाओं की घर वापसी की याद में मनाया जाता है जो दशहरा के दौरान दुश्मनों से लड़ने के बाद होली (वसंत की शुरुआत) के समय घर लौटे थे। पंजाब में होली का एक सैन्य स्वरुप 'होला मोहल्ला' के रुप में सामने आता है। गुरु गोबिन्द सिंह (सिक्खों के दसवें गुरु) ने स्वयं इस मेले की शुरुआत समाज के दुर्बल और शोषित वर्ग के बीच साहस के संचार के लिए किया था। हरियाणा में होली का स्वरुप धुलेंडी धुलंडी, धुरड्डी, धुरी का है।

मणिपुर की योशांग या याओसांग रंगों के साथ साथ थाबल चोगाबा नृत्य, जो परंपरा, खेल और भक्ति का सामूहिक त्यौहार है। दक्षिण भारत में होली का त्यौहार उतर से थोडा हट के पौराणिक मान्यता में कामदेव के बलिदान के रूप में मनाया जाता है। तमिल प्रदेश में इसे कमन पंडीगई या कामा-दहानाम के रूप में तो वही कर्नाटक में होली कमाना हब्बा के नाम से मनाया जाता है। कई जगह होली के बाद नदियों में नहाने का रिवाज है। केरल में यह ‘मनजल कुड़ी’ के नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ लोग हल्दी मिश्रित पानी से होली खेलते हैं।

जनजाति समाज होली के त्योहार को अपने परम्परागत और प्राकृतिक स्वरुप में मनाते हैं।  बैगा आदिवासियों में होली का खुमार 13 दिन रहता है जिसे तेरस कहते हैं, जहां पलाश के लाल और केशव फूल के पीले रंग, बांस की पिचकारी और यहां तक सेमल से बनी औरतों  की खास पोशाक खेड़का खेडकी सब प्रकृति आधारित होते हैं। संथाली समाज में पूरे फागुन भर चलने वाले बाहा उत्सव बिना कृत्रिम रंग के केवल पानी से मनाया जाता है, जिसकी  शुरुवात जाहेर (संथाली पूजा स्थल) की साफ-सफाई फिर में नए फल-फूल से पूजा और गांव की चौहद्दी के अन्दर सामूहिक शिकार से होती है।

दक्षिणी गुजरात के धरमपुर एवं कपराडा क्षेत्रों में कुंकणा, वारली, धोडिया, नायका आदि आदिवासियों द्वारा होली खावला, पीवला और नाचुला (खाने, पीने और नाचने) रूप से मनायी जाती है जिसमे ढोल-नगाड़ों, तूर, तारपुं, कांहळी, पावी (बांसुरी), मांदल, चंग (लड़कियों द्वारा बजाए जाने) की धूम रहती है। वही डांग जनजाति की राजसी डांगी होली में कहालिया और तड़पुर जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुनों पर पारंपरिक परिधान में लोग घेरे में तालबद्ध नृत्य करते हैं।

राजस्थान के कुछ आदिवासी गांवों में पत्थरमार होली भी खेली जाती है। महाराष्ट्र में पावरा, काठी और कोरकू जैसी कई जनजातियाँ होली के त्योहार को रास रंग के अलावा शादी योग्य लड़को के लिए अपनी दुल्हन चुनने का भी मौका होता है, जो अपनी कमर पर एक छोटा ड्रम बांधकर शादी के लिए लड़की ढूंढने की उम्मीद में गांव में परेड करते हैं।

उत्तराखंड के थारु जिंदा होली और मरी होली खेलते हैं। होली का उत्सव होलिका दहन से 15 दिन पहले ही शुरू हो जाता है. होलिका दहन से पहले ज़िंदा होली खेली जाती है और होलिका दहन के बाद मरी होली खेली जाती है। भीलों की भगोरिया होली शादी ब्याह के प्राचीनतम स्वयंवर प्रथा का भीली स्वरुप है, धार, खरगौन. झाबुआ जैसे भील बहुल जिलो में हाट मेले में युवक युवतियाँ  सजधज कर अपने भावी जीवनसाथी ढूँढने निकल पड़ते है। 

असल में भारतीय सभ्यता के महत्वपूर्ण गुण धर्म ‘अनेकात्म में एकात्म’ होली के अखिल भारतीय व्यापकता में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। हर क्षेत्र में होली अलग-अलग तरीके से मौसम और प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर मौसम में आ बदलाव के साथ एक ही समय मनाई जाती है। पूरब में असम की 'फगवाह' या 'देओल' हो, बंगाल का दोल जात्रा या पश्चिम में राजस्थान की गेर होली और छारंडी हो, या उत्तराखंड और हिमाचल की महिलाओं के बोलबाले वाली होल्यार या फिर सुदूर तमिलनाडु का कमन पंड़ीगई हो, या केरल का मंजुली कुली, होली में समूचे वसंत की खुमारी का बयार निर्वाध रूप से फागुन के महीने में बह उठता है। 

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