किसान दलहन की खेती छोड़ रहे हैं और दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक घाटे में है। इस कारण भारत एक विरोधाभासी स्थिति का सामना कर रहा है। हालांकि देश में इस बात की कोई प्रमाणित रिपोर्ट नहीं है कि किसान दलहन की खेती छोड़ रहे हैं। लेकिन यह सच्चाई है कि हमारे देश का दाल उत्पादन हमारी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं है क्योंकि दाल उत्पादन वृद्धि हमारे देश में जनसंख्या की अंधाधुंध वृद्धि से बराबरी करने में सक्षम नहीं है। खासकर इसलिए क्योंकि हमारे देश की अधिकांश जनता शाकाहारी है और वनस्पति प्रोटीन पर निर्भर है। भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक होने के साथ-साथ उपभोक्ता भी है क्योंकि भारत में दुनिया में शाकाहारियों का सबसे बड़ा अनुपात है।
एक तथ्य यह भी है कि दालों के उत्पादन में प्रभावशाली वृद्धि के कारण, आयात 2016-17 में 6.6 मिलियन टन के उच्चतम स्तर से 2018-19 में 2.5 मिलियन टन के स्तर तक गिर गया। 2019-20 के दौरान, भारत ने 2.6 मिलियन टन का आयात किया और चालू वर्ष में भी 2.5 मिलियन टन आयात करने की उम्मीद है।
दलहन की उत्पादकता 2010-11 में 689 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 2019-20 के दौरान 809 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई है। प्रमुख फसल चने में यह 2010-11 के दौरान 895 किग्रा प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 2019-20 के दौरान 1,016 किग्रा प्रति हेक्टेयर हो गया। अरहर में, यह उपरोक्त अवधि में 655 किग्रा प्रति हेक्टेयर से 919 किग्रा प्रति हेक्टेयर तक था।
एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि हमारे देश की दलहन फसलों का लगभग 80 प्रतिशत ऐसे इलाकों में पैदा होता है जहां अक्सर मॉनसून की अनिश्चितताएं रहती हैं। हालांकि उच्च उपज देने वाली दलहनी फसलों की किस्मों का परीक्षण किया गया है, लेकिन उनके बीज उम्मीद के मुताबिक किसानों तक नहीं पहुंचे हैं।
इसके अलावा, अन्य अनाजों की तुलना में दलहन में फसल के बाद का नुकसान अधिक होता है जो उपज को उपभोग के लिए अनुपयुक्त और अनुपलब्ध बनाता है। इसी तरह, चावल, गेहूं, कपास या मक्का जैसी अन्य फसलों के लिए किसानों द्वारा समय पर पौध संरक्षण के उपाय किए जाते हैं।
अभी भी हमारे देश में निम्नलिखित रणनीतियों के साथ दालों के उत्पादन को बढ़ाने की काफी गुंजाइश है:
(लेखिका तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय में निदेशक हैं)