मिट्टी जो हमारे लिए करीब 95 फीसदी भोजन का उत्पादन करती है, वो इंसान की बढ़ती लालसा का शिकार बन रही है। जिससे न केवल खाद्य उत्पादन, साथ ही स्वास्थ्य और पर्यावरण पर भी खतरा पहले के मुकाबले काफी बढ़ गया है।
इसके लिए पर्यावरण को अनदेखा करके चलाई जा रही औद्योगिक गतिविधियां, कृषि, खनन और शहरी प्रदूषण मुख्य रूप से जिम्मेवार है। साथ ही कचरे का ठीक तरह से प्रबंधन न करना, रासायनिक रिसाव से लेकर परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में होने वाली दुर्घटनाओं और बढ़ते संघर्ष और हथियारों का इस्तेमाल इसके खतरे को और बढ़ा रहे हैं।
यह जानकारी हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की ग्लोबल एसेस्समेंट ऑफ सॉइल पोल्युशन: समरी फॉर पॉलिसी मेकर्स नामक रिपोर्ट में सामने आई है, जिसे खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) द्वारा जारी किया गया है।
मिट्टी न केवल खाद्यान्न उत्पादन में मदद करती है साथ ही यह बड़ी मात्रा में वातावरण में मौजूद कार्बन को भी सोख लेती है इस तरह यह इस समय के सबसे बड़े खतरों में से एक जलवायु परिवर्तन से भी लड़ने में हमारी मदद करती है, पर जिस तरह से इसके प्रदूषण में इजाफा हो रहा है उसका असर पूरे इकोसिस्टम पर पड़ रहा है।
रिपोर्ट के अनुसार हैवी मेटल्स, साइनाइड, डीडीटी, अन्य कीटनाशक और लम्बे समय तक रहने वाले कार्बनिक रसायन जैसे पीसीबी मिट्टी को विषैला बना रहे हैं। हजारों सिंथेटिक केमिकल जो सैकड़ों-हजारों वर्षों तक पर्यावरण में रह सकते हैं, पूरी दुनिया में फैले हुए हैं।
यह खेतों में उत्पादकता पर असर डाल रहे हैं, भोजन और पानी को जहरीला बना रहे हैं और वन्यजीवों एवं पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं। हालांकि यह सब कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं उन्हें आसानी से नहीं मापा जा सकता यही वजह है कि उनसे वास्तविक रूप से कितना नुकसान होता है, इसमें अनिश्चितता बनी हुई है।
यूनेप की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन के अनुसार देखा जाए तो मिट्टी में बढ़ते इस प्रदूषण को आंखों से नहीं देखा जा सकता पर जो भोजन हम खाते हैं, पानी जो हम पीते हैं और जिस हवा में हम सांस ले रहे हैं उसकी गुणवत्ता में गिरावट आती जा रही है जिसका असर हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण पर भी पड़ रहा है।
हर साल 230 करोड़ टन पर पहुंच चुका है औद्योगिक रसायनों का उत्पादन
यदि 21वीं सदी की शुरुवात से देखें तो वैश्विक रूप से हर साल हो रहा औद्योगिक रसायनों का उत्पादन बढ़कर दोगुना हो चुका है जोकि 230 करोड़ टन हो चुका है। जिसके 2030 तक 85 फीसदी बढ़ने का अनुमान है।
जिसका मतलब है कि यदि आज इस पर ध्यान न दिया गया तो भविष्य में मृदा प्रदूषण और बढ़ जाएगा। साथ ही जिस तरह से एंटीमाइक्रोबियल दवाओं का इस्तेमाल कृषि में बढ़ रहा है और यह दवाएं मृदा को प्रदूषित कर रही हैं, खतरा कहीं ज्यादा बढ़ गया है। साथ ही प्लास्टिक का बढ़ता इस्तेमाल भी अपने आप में एक बड़ी समस्या है।
रिपोर्ट के अनुसार क्षेत्र के आधार पर मृदा प्रदूषण के लिए अलग-अलग स्रोत जिम्मेवार थे। जहां पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में औद्योगिक प्रदूषण इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेवार है, वहीं एशिया, दक्षिण अमेरिका और पूर्वी यूरोप में कृषि ने मृदा के स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा असर डाला है। उप-सहारा अफ्रीका में खनन और उत्तरी अफ्रीका में बढ़ता शहरी प्रदूषण, मिट्टी में बढ़ते प्रदूषण के लिए मुख्य रूप से जिम्मेवार है।
इस समस्या को हल करने के लिए सबसे पहले उन स्थानों की पहचान करना जरुरी है जहां मृदा बड़े पैमाने पर दूषित हो चुकी है। साथ ही इसके लिए जिम्मेवार लोगों की पहचान भी जरुरी है। हालांकि कई देशों में पॉल्यूटर पे सिद्धांत के तहत प्रदूषण फैलाने वालों के लिए जवाबदेही तय की गई है पर अभी भी कई देशों में प्रदूषण फैलाने वालों पर शिकंजा कसने के लिए इस तरह के नियमों को नहीं अपनाया गया है।
रिपोर्ट में यह भी माना गया है कि यदि इस समस्या पर अभी ध्यान न दिया गया तो यह समय के साथ और विकराल रूप लेती जाएगी। जिससे बचने के लिए उत्पादन और खपत के वर्तमान पैटर्न में व्यापक बदलाव करने की जरुरत है। जहरीले प्रदूषकों के स्थान पर उसके वैकल्पिक समाधानों को खोजने और अपनाने की जरुरत है, जिसके लिए वैश्विक स्तर पर राजनीतिक, व्यापारिक और सामाजिक प्रतिबद्धता की जरूरत है। इसके लिए रिसर्च और प्रदूषकों की रोकथाम और निवारण के लिए निवेश में बढ़ोतरी करने की भी जरुरत है।
आज वैश्विक स्तर पर सहयोग को बढ़ावा देने की भी जरुरत है। जिसके लिए देशों को अपने ज्ञान और अनुभवों को बांटना होगा। सभी के लिए बेहतर और नवीनतम तकनीकों और प्रौद्योगिकियों तक पहुंच सुनिश्चित करनी होगी, जिससे कोई भी पीछे न रहे।