"भूजल संरक्षण : उत्तर भारत मे रोपाई धान पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए सरकार"

भूजल को बचाने के लिए किसानों को धान की सीधी बुआई के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाना चाहिए
सरकार को धान की सीधी बुआई के लिए किसानों को प्रेरित करना चाहिए।
सरकार को धान की सीधी बुआई के लिए किसानों को प्रेरित करना चाहिए।
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- विरेन्द्र सिह लाठर-

जल ऊर्जा का भंडार, पोषक तथा जीवनदाता है। इसके बिना जीवन की कल्पना संभव नहीं और साथ ही पीने योग्य जल धरती पर अत्यल्प मात्रा में उपलब्ध है। ऐसे में दुनियाभर में जल बचाने की कोशिशें जारी हैं। विश्व स्तर पर जन जागरूकता अभियान जारी है।

जल संरक्षण एक नागरिक के तौर पर भी हमारा दायित्व है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51ए (7) के मुताबिक, हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है- वनों, झीलों, नदियों, भुजल और वन्य जीवन सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना।

केन्द्रीय भुजल बोर्ड व जल आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार देश की खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण सघन कृषि क्षेत्र वाले उत्तरी राज्यो पंजाब- हरियाणा मे पिछले 50 वर्षो से लगातार धान-गेहूं फसल चक्र अपनाने के कारण भूजल स्तर आधा मीटर प्रतिवर्ष गिरने से इन राज्यो के आधे से ज्यादा ब्लॉक गंभीर भूजल संकट मे आ चुके है।

इसे रोकने के लिए, इन राज्यों ने वर्ष 2009 मे "हरियाणा और पंजाब प्रिज़र्वेशन आफ सबसायल वाटर एक्ट" बनाए, जिसमें 15 जुन से पहले धान फसल की रोपाई पर प्रतिबन्ध लगाया गया, लेकिन इन सब सरकारी प्रयासो के बावजूद अभी तक जल संरक्षण खासतौर पर भुजल संरक्षण के प्रयास निरर्थक साबित हुए हैं।

धान रोपाई भूजल बर्बादी के लिए मुख्यता दोषी

यह सर्वविदित है कि 1970 तक उत्तर भारत मे शिवालिक हिमालय के साथ लगते मैदानी खादर व तराई क्षेत्रों मे भूजल भूमि सतह के बिल्कुल नजदीक था, लेकिन हरित क्रांति दौर की सघन कृषि तकनीक विशेष तौर पर रोपाई धान, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण आदि से भूजल का अंधाधुंध दोहन होने से गंभीर भूजल संकट बनता जा रहा है, जिससे आने वाली पीढ़ियों के लिए जीवन उपयोगी जल की उपलब्धता पर भी सवाल खडा हो रहा है।

आदिकाल से सभी अनाज, दलहन , तिलहन आदि फसलों की खेती के लिए, वत्तर खेत को तैयार करके बीज की सीधी बुआई प्रचालित तकनीक रही है। वर्ष-1966 से पहले, संयुक्त पंजाब और उत्तर भारत में भी किसान सीधी बुआई से ही धान की खेती किया करते थे। तब धान का क्षेत्रफल कम होने व सस्ते मजदूर मिलने से निराई-गुड़ाई से खरपतवार नियंत्रण किया जाता था।

लेकिन सरकार ने हरित क्रांति दौर में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, अंतराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान-मनीला से धान की उन्नत बौनी किस्मो के साथ, भूजल बर्बादी वाली खडे़ पानी वाली रोपाई धान तकनीक आयात करके उत्तर भारतीय किसानों पर थोप दी।

इससे धान की पैदावार तो जरूर बढ़ी, लेकिन खेती लागत मे भी कई गुणा बढोतरी और भूजल की भयंकर बर्बादी हुई, ज़िससे जम्मू से पटना तक सतलूज, यमुना, गंगा नदियों के मैदानी क्षेत्रो में भूजल डार्क ज़ोन मे चला गया।

धान रोपाई से भयंकर भूजल बर्बादी को रोकने के लिए जहां कृषि वैज्ञानिकों ने इस सदी की शुरुआत में सूखे खेत में धान की सीधी बुआई तकनीक को प्रसारित किया, जिसे किसानों ने पूरी तरह से नकार दिया, क्योंकि इस पद्धति में सिचाई पानी की बचत नहीं होने और फसल बुआई के तुरंत बाद सिंचाई और फिर हर तीन दिन बाद सिंचाई लगाने से फसल मे खरपतवार की बहुतायत होने से किसान परेशान हो गए।

दुसरी और सरकार ने तकनीकी तौर पर अव्यावहारिक योजनायों (धान छोड़े मक्की बोये, धान खेत खाली रखने वाले किसान को 7000 रुपए/एकड़ प्रोत्साहन राशि, सुक्षम सिंचाई, फसल विविधिकरण आदि) से किसानों को भ्रमित किया।

तर-वत्तर सीधी बिजाई धान-भूजल बर्बादी रोकने का समाधान

विश्व खाद्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 150 दिन की धान फसल को मात्र 500-700 मिलीलीटर सिंचाई जल की आवश्यकता होती है। जिसमें आधे से ज्यादा सिंचाई जल की पूर्ति मॉनसून वर्षा करती है। लेकिन हरित क्रांति दौर में सरकार द्वारा अनुशंसित भूजल बर्बादी वाली रोपाई धान तकनीक में 1500-2000 मि.ली. सिंचाई जल की जरूरत होती है।

इससे खेती लागत मे बढ़ोतरी और ऊर्जा-भूजल संसाधनों की भारी बर्बादी हुई। जिसे रोकने के लिए, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान-क्षेत्रीय केन्द्र करनाल की हमारी टीम ने वर्ष-2014-15 मे तर-वत्तर सीधी बिजाई धान तकनीक को विकसित करके किसानों मे प्रसारित किया, जिससे खरपतवार नियंत्रण आसान हुआ और पैदावार रोपाई धान के बराबर ही मिलने लगी।

इसके असर से कोरोना आपदा काल वर्ष-2021 में प्रवासी मजदूरों की भारी कमी से पंजाब में किसानो ने लगभग 6 लाख हेक्टेयर यानि कुल धान क्षेत्र के 20 प्रतिशत क्षेत्र में तर-वत्तर सीधी बुआई तकनीक से धान फसल सफलता से उगाई और प्रदेश में रिकार्ड 12.78 मिलियन टन धान का उत्पादन हुआ।

इसी तरह हरियाणा के मुख्यमंत्री द्वारा 1अप्रैल 2023 को दी गई जानकारी के अनुसार खरीफ-2022 में हरियाणा में किसानों ने 72,000 एकड़ से ज्यादा भूमि पर सीधी बिजाई धान तकनीक को सफलतापूर्वक अपनाकर 31,500 करोड लीटर यानि लगभग 40 लाख लीटर /एकड़ भूजल की बचत की।

इसके लिए सरकार ने लगभग 30 करोड़ रुपए प्रोत्साहन राशि किसानों को बांटी। अब हरियाणा सरकार द्वारा भूजल संरक्षण के इन प्रयासों को गति देने के लिए, भूजल बर्बादी वाली रोपाई धान पर पूर्ण प्रतिबंध लगाकर सीधी बिजाई धान पद्धति को 7,000 रुपए प्रति एकड़ प्रोत्साहन देना चाहिए, जिससे 40 लाख लीटर प्रति एकड़ भुजल के साथ-साथ ऊर्जा (बिजली और डीजल) की भारी बचत होगी।

तर-वत्तर सीधी बिजाई धान पद्धति में खेत में पानी खड़े की जरूरत नहीं होने से रोपाई धान के मुकाबले लगभग 40 प्रतिशत भूजल की बचत होती है। तर-वत्तर सीधी बिजाई धान की सफलता के लिए, धान फसल की बुआई 20 मई से 5 जून तक मूंग, अरहर, ज्वार आदि खरीफ फसलों की तरह, पलेवा सिंचाई के बाद तैयार तर-वत्तर खेत मे 8 किलो बीज प्रति एकड़ की दर से 7-9 इंच लाइन से लाइन दूरी और बीज की गहराई मात्र 1-2 इंच पर होती है।

बुआई से पहले 2 ग्राम बाविस्टीन प्रति किलो बीज उपचार जरूर करें। खेत की नमी को बचाने के लिए, बुआई शाम के समय पर छींटा विधि या सीड ड्रिल की मदद से करें और खरपतवार नियंत्रण के लिए बुआई के तुरंत बाद एक लीटर पेंडामेथलीन 30 ई.सी. 100 लीटर पानी मे प्रति एकड़ छिड़काव करें।

बुआई के बाद पहली सिंचाई 15-20 दिन बाद और बाद की सिंचाई 7-10 दिन अंतराल पर वर्षा आधारित करें। अगर बेमौसम वर्षा से, खरपतवार समस्या आए तो बुआई के 30 दिन के बाद 60 ग्राम नोमीनी गोल्ड (बाईस्पायरीबेक सोडीयम -10) + 80 ग्राम साथी (पायरोसल्फूरोन ईथाइल) 100 लीटर पानी मे प्रति एकड छिडकाव करे।

खाद, बीमारी, कीट प्रबंधन रोपाई धान फसल की दर और विधि से ही करें। 10 किलो जिंक सल्फेट+8 किलो फेरस सल्फेट प्रति एकड़ पहली सिचाई के समय पर जरूर डालें। धान खेती की इस भूजल संरक्षण पद्धति में धान की सभी किस्में कामयाब और 10-15 दिन पहले पकती हैं।

पूसा 1509, पीआर -126 आदि कम अवधि वाली किस्में 110-120 दिन मे पक कर कटाई के लिए तैयार हो जाती हैं। इन कम अवधि किस्मों की कटाई मध्य सितम्बर तक हो जाने से फसल अवशेष प्रबंधन आसान और वायु प्रदूषण रोकने मे भी मदद मिलेंगी और किसान गेहूं फसल की बुआई से पहले हरी खाद के लिए 45 दिन की ढ़ेंचा व मूंग आदि फसल लेकर भूमि की ऊर्वरा शक्ति को जैविक तौर पर बनाए रख सकते है।

(लेखक विरेन्द्र सिह लाठर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएमआर), नयी दिल्ली के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक हैं)

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