पर्यावरण और स्वास्थ्य पर रासायनिक खेती के गंभीर दुष्प्रभाव को देखते हुए धीरे-धीरे ही सही लेकिन जैविक व प्राकृतिक खेती की तरफ लोगों का झुकाव बढ़ रहा है। यह खेती अपार संभावना ओं का दरवाजा खोलती है। हालांकि भारत में यह खेती अब भी सीमित क्षेत्रफल में ही हो रही है। सरकारों द्वारा अभी काफी कुछ करना बाकी है। अमित खुराना व विनीत कुमार ने जैविक खेती के तमाम पहलुओं की गहन पड़ताल की। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, खेती बचाने का एकमात्र रास्ता, लेकिन... । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, सरकार चला रही है कौन से कार्यक्रम। इसके बाद आपने पढ़ा, खामियों से भरे हैं सरकारी कार्यक्रम । अगली कड़ी में आपने पढ़ा, राज्य सरकारें नहीं ले रही हैं दिलचस्पी- । पढ़ें आगे की कड़ी-
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा किए गए सर्वे में काफी सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। 10 जिलों के 24 मंडलों में 35 गांवों के 142 किसानों के साथ फोकस्ड ग्रुप डिस्कशन और 40 किसानों के साथ विस्तृत साक्षात्कार किया गया। प्राकृतिक विधि आधारित खेतों की उपज, आय, खर्चा, मजदूरी आदि सवालों को सर्वे में शामिल किया गया। इन सर्वे में मिश्रित नतीजे सामने आए। अधिकतर प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों ने उपज, खर्चा और कृषि आय संबंधी सकारात्मक विचार प्रकट किए। जैसे फोकस ग्रुप डिस्कशन में शामिल 57 प्रतिशत किसानों की उपज बढ़ी, वहीं 35 प्रतिशत की बराबर रही और 8 प्रतिशत की घट गई। वहीं व्यक्तिगत साक्षात्कार में भाग लेने वाले किसानों में 47 प्रतिशत खेतों की उपज बढ़ी, 18 प्रतिशत की बराबर रही और 35 प्रतिशत की घट गई। इसी प्रकार प्राकृतिक कृषि में संलग्न किसानों का खर्च घट गया, लेकिन उनका शारीरिक श्रम बहुत ज्यादा बढ़ गया। चर्चा में शामिल 90 प्रतिशत किसानों की आमदनी बढ़ गई, जबकि व्यक्तिगत साक्षात्कार में भाग लेने वाले किसानों की 98 प्रतिशत आय बढ़ गई। इसके अतिरिक्त किसानों को मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार, पानी की बचत, जलवायु आधारित घटनाओं से फसल के कम नुकसान जैसे लाभ का भी दावा किया गया।
पश्चिमी गोदावरी जिले से वल्लूरु गांव के रोहिणी प्रताप मुन्ककला सॉफ्टवेयर इंजीनियर थे, जो गांव आकर 12 एकड़ में सफलतापूर्वक प्राकृतिक विधि से खेती कर रहे हैं। रोहिणी प्रताप बताते हैं कि प्राकृतिक खेती से उनकी खरीफ धान की पैदावार तो अच्छी हो गई है पर रबी धान की पैदावार कम हो गई है। वहीं नारियल की पैदावार दोगुना बढ़ गई है। इस सबके चलते उसका खेती का खर्चा घट गया है और शुद्ध आमदनी पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई है। इसी तरह प्रकाशम जिले के एथेमुकुला गांव की वरि राजेश्वरी लगभग एक एकड़ में खेती करती हैं। वह बताती हैं कि प्राकृतिक खेती से अब रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक नहीं खरीदने पड़ते। इससे खर्च काफी कम हो गया है। रयथु साधिकार संस्था ने सेंटर फॉर इकोनॉमिक एंड सोशल स्टडीज, हैदराबाद से कार्यक्रम का मूल्यांकन करवाया, जिसमें काफी सकारात्मक परिणाम सामने आए। इस अध्ययन के अनुसार मक्का, मूंगफली, कपास, बंगाल चना, काला चना, हरा चना, तिल, केला और गन्ने की प्राकृतिक खेती से पैदावार, रासायनिक खेतों की तुलना में 2 से 38 प्रतिशत बढ़ गई। हालांकि धान, मक्का और ज्वार की पैदावार 1-7 प्रतिशत घट गई। फसलों में खर्चा कम हो गया और किसान की कमाई बढ़ गई। सेंटर फॉर साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी संस्थान ने आंध्र प्रदेश के प्राकृतिक विधि आधारित सिंचित खेतों के अध्ययन में पाया कि ये खेत रासायनिक खेतों की तुलना कम पानी, कम इनपुट ऊर्जा की खपत और कम गैस उत्सर्जन करते हैं।
जैविक और प्राकृतिक खेती की बाधाएं
रसायन मुक्त खेती अब भी मुख्यधारा में आने के लिए संघर्ष कर रही है। केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से इस सिलसिले में गंभीर प्रयास नहीं हुए। किसान, उपभोक्ता और सरकारों के सामने भी रसायन मुक्त उत्पाद को बढ़ावा न देने के अपने कारण हैं। इन बाधाओं की वजह से जैविक और प्राकृतिक खेती के आंदोलन पर नकारात्मक असर पड़ा है। आज देश में राष्ट्रीय स्तर का मिशन या महत्वाकांक्षी एक्शन प्लान नहीं है। राष्ट्रीय जैविक खेती नीति निष्क्रिय-सी हो चुकी है। एक तरफ जहां रासायनिक उर्वरकों को साल में सरकार की तरफ से 70 से 80 हजार करोड़ की सब्सिडी दी जाती है, वहीं जैविक की मुख्य योजनाओं को भी सिर्फ कुछ सौ करोड़ ही दिए जाते हैं। आश्चर्य की बात है कि अब तक भी वैज्ञानिक समुदाय और नीति निर्माताओं ने जैविक और प्राकृतिक खेती के सम्पूर्ण फायदों जैसे- पर्यावरण, आर्थिक , सामाजिक, पोषण और सतत विकास लक्ष्य संबंधी तथ्यों को पूरी तरह से या तो समझा नहीं या समझकर भी नीति निर्माण में महत्व नहीं दिया।
एक तरफ जहां रासायनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए एग्रो-केमिकल इंडस्ट्रीज की बड़ी लॉबी रहती है, वहीं बहुत सारी आशंकाओं के चलते रसायन मुक्त खेती को उच्च स्तर पर राजनैतिक सहयोग भी हासिल नहीं हो पाता। देश की कृषि शिक्षा व्यवस्था और वैज्ञानिक समुदाय रासायनिक खेती पर ही बात करता है और रसायन मुक्त खेती को बड़े स्तर पर ले जाने की ओर अग्रसर नहीं है। हमारे देश का कृषि तंत्र किसानों का सही मार्गदर्शन और सहयोग करने में सक्षम प्रतीत नहीं होता। किसानों को उत्पादों का सही मूल्य लेने के लिए संघर्ष करना पड़ता है और काफी समय बाजार की भागदौड़ में निकालना पड़ता है। वर्तमान में जैविक मार्केट लिंकेज की सरकार द्वारा लगभग नगण्य व्यवस्था है, या जहां है भी तो बहुत ही छोटे स्तर पर है। रसायन मुक्त खेती का तेजी से प्रचार-प्रसार न होने का एक बड़ा कारण उचित दाम न मिल पाना है। सरकार की किसी भी योजना में किसानों द्वारा योजना के तहत उत्पादित कृषि उत्पादों को खरीदने का कोई प्रावधान नहीं है। इसी के साथ किसानों को उत्तम गुणवत्ता और उचित दाम पर जैविक बीज, जैविक खाद आदि की व्यवस्था नहीं है। कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में या तो जैविक नीति है ही नहीं या है भी तो सही तरीके से लागू नहीं हो पा रही है।
जल्द पढ़ें अगली कड़ी-