जुलाई का महीना था। बरखा के दिन थे। सुबह सात बजने में कुछ मिनट बचे होंगे। नीले-अंबर से धूप खुली और चट्टानों से टकराने लगी। हम उत्तर प्रदेश में झांसी की सरहद छोड़ कर महोबा जिले की ओर बढ़ रहे थे। प्रयोजन था कुछ किसानों के जरिए महोबा और बांदा जिले में सूखे और अकाल से निपटने के लिए जलश्रोतों पर किए गए काम को देखने और समझने का। यात्रा में बीच रास्ते आप वह भी देखेंगे और समझ जाएंगे कि महानगरों के विकास की नींव का पत्थर कहां से और किन शर्तों पर आता है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट के साथी थे। कुछ बुंदेलखंड व राजस्थान के अनुभवी जलपुरुषों की टोली भी, साथ थी।
झांसी से भगवंतपुरा सड़क पर महोबा की ओर बढ़ते चले जाइए। झांसी शहर छोड़ते ही भगवंतपुरा वन क्षेत्र का एक बोर्ड आपके आगमन का स्वागत करेगा। सड़क के इर्द-गिर्द हरियाली और कुछ पहाड़ी चट्टानों को देखकर दिल को सुकून जरूर मिलेगा लेकिन सड़क के दोनों ओर किनारों पर उसी हरियाली में शहरी ठोस कूड़े-कचरे की डंपिंग आपका मिजाज खराब कर देगी। यह नए दौर की त्रासदी है। महानगरों में हम कूड़े के पहाड़ बनाते हैं और छोटे शहरों में जंगलों को कूड़ेदान। यह उसी बुंदेलखंड की बात है जहां बीते कुछ वर्षों में सूखते पनघट धीरे-धीरे मरघट बन गए।
यात्रा आगे बढ़ी नाम भर के बचे वन क्षेत्र खत्म होते ही प्रतापपुरा औद्योगिक क्षेत्र से सामना हुआ। भगवंतपुरा से पहले जो बची-कुची चट्टानें शांत थीं, इस इलाके में उनपर दैत्याकार मशीनों से आरी चलाई जा रही है। आवाजें नहीं थी, पहाड़ों की सिसकियां थीं। नए दौर की परिभाषा के मुताबिक यह सब सुनकर आगे बढ़ जाना किसी दौड़ में फर्स्ट आने जैसा है, असंवेदनशीलता नहीं। हमें जो सिर्फ प्रकृति की भेंट के रूप में चट्टानें दिखाई दे रही थी दरअसल वह ग्रेनाइट पत्थरों का बहुमूल्य भंडार था। हमारी यात्रा भी आगे बढ़ गई। बीच रास्ते मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ का कुछ इलाका, फिर से झांसी का बडगांव आया। धूप की बढ़ती तेजी पर अचानक हरियाली की छाया पड़ी। बडगांव में एक बड़ी नर्सरी है। कई किस्मों के पौधे और वनस्पतियों का अकूत संग्रह है यहां। सूखे की सरहद पर हरियाली देखना अच्छा लगा। अब जैसे-जैसे हम सूखा ग्रस्त महोबा की ओर बढ़ रहे थे वैसे-वैसे रास्ते अपनी पहचान बताते। सागरों के नाम पर कई इलाके बीच रास्ते आए। इन्हीं में पहला था बरुआ सागर। पहले शहरी इलाका फिर विस्तार वाली नई बस्ती। एक जगह पड़ी जिसका नाम था बसभिरे की टौडरिया, यहां के बारे में बताते हैं कि मध्ययुग से ही नर्सरी का काम होता है। हल्दी, अदरक, अरबी जैसे पौधे यहां आपको मिल जाएंगे। बरुआ सागर में चंदेलकालीन बरुआ झील दिखाई देगी। सज-धज कर तैयार खेतों की लाल मिट्टी, मवेशी, किसान की तरह बीच रास्ते पड़ने वाले इन पुरातन तालाबों को भी बादलों से पानी की आस है। बीच रास्तों में पलायन करने वाले जत्थों को भी आप देख सकते हैं।
इन दृश्यों के साथ महोबा में हम प्रवेश कर गए। एक बड़ा पुराना कुआं मिला। नाम नहीं पता चला। हालांकि इस्तेमाल में नहीं रहा। कुछ दूर पर ही महोबा क्रॉसिंग से लगा हुआ एक तालाब दिखाई दिया। इसे तीरथसागर कहा जाता है। पता चला कई सालों से सरकार इस तालाब की सफाई कर रही है। राजस्थान के दुधू ब्लॉक में लापोड़िया इलाके में सन 1977 से तालाब सृजन कर रहे लक्ष्मण सिंह ने बताया कि तालाब की ऊपरी परत बेहद ऊपजाऊ होती है। इसे बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए। यह खेतों में पैदावार को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल की जा सकती है। वहीं तालाब की ऊपरी परत जब निकल जाए तो मिट्टी की गाद का इस्तेमाल तालाब को बांधे रखने वाले पाल की मजबूती के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इस बातचीत के साथ हमारी यात्रा आगे बढ़ती रही। हम महोबा के कबरई इलाके में पहुंचे।
कबरई देश के सबसे बड़े ग्रेनाइट खनन किए जाने वाले स्थानों में शामिल है। यात्रा में शामिल मध्य प्रदेश में शिवपुरी जिले के वयोवृद्ध राम प्रसाद शर्मा ने बताया कि इन इलाकों में कई तरह के खूबसूरत ग्रेनाइट पत्थर मिलते हैं। चट्टानों की अंधाधुंध कटान इस संकटग्रस्त महोबा की जिंदगी को और कठिन बनाती है। आप इन चट्टानों से उड़ते गुबार में लिपट जाएंगे। खनन के दौरान वायु प्रदूषण पर नियंत्रण रखने के लिए सारे एहतियाद यहां नहीं अपनाए जाते। खुले में ही गाड़ियां ग्रेनाइट पत्थरों को भर-भर कर देश के अन्य इलाकों में पहुंचाती हैं। इसी इलाके में कुछ बशगिद भी है जो जहरीली सांस की आदि हो चुकी है।
हम महोबा के उस स्थान पर पहुंच गए जहां हमें स्थानीय किसानों के प्रयासों से खेतों में बनाया गया तालाब दिखाया जाना था। हम महोबा के रिवई पंचायत पहुंचे। यहां पहले हमारे स्वागत में तिलक लगाया गया और हमें एक सफेद गमछा दिया गया। यहां अपना तालाब अभियान के पुष्पेंद्र सिंह ने नई पहल के तहत खेतों में मानसून से पहले जल संचय के लिए बनाए गए तालाबों का एक संक्षिप्त परिचय दिया। उन्होंने बताया कि सूखा उतनी बड़ी समस्या नहीं है बड़ी समस्या है खेती के बेहतर समय पर पानी का न मिलना। इसलिए जल संरक्षण बेहद जरूरी है। यदि उत्पादकता बढ़ाना है तो जल संरक्षण ही किसान के पास सिर्फ एकमात्र उपाय बचा है। कुल 50 लोगों ने इलाके में अपने खेत में तालाब बनाने की हामी भरी है। इसमें से अभी तक 25 तालाब बनाए जा चुके हैं। इनमें से एक खेत में बनाए गए तालाब को हम देखने पहुंचे। यह तालाब धनजंय सिंह के खेत में बनाया गया है। पुष्पेंद्र सिंह ने बताया कि सबसे पहले धनंजय सिंह ने यह पहल की। हमने यह मॉडल मध्य प्रदेश के देवास से अपनाया है। सूखे से निपटने के लिए इस तरह की पहल की गई थी। पहले यहां भू-संरक्षण विभाग के अधिकारी तालाब निर्माण के लिए तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि तालाब का आधा खर्च किसान नहीं उठा पाएंगे। इस तालाब की कुल लागत करीब एक लाख 10 हजार रुपये आंकी गई थी। लेकिन किसान ने इसकी आधी कीमत में ही यह तालाब तैयार कर लिया।
पुष्पेंद्र सिंह ने बताया कि महोबा में तालाबों की एक विस्तृत संस्कृति रही है। हमने किसानों को तालाब की उपयोगिता बताई। मसलन किसानों से कहा गया कि सबसे ज्यादा संकट जनवरी से मानसून आने तक होता है। यदि हम बर्बाद होने वाला जल हम संरक्षित कर लें तो यह संकट खत्म हो सकता है। तालाब न सिर्फ खेतों में नमी बनाए रखने के लिए है बल्कि मवेशी के लिए पानी, सिंचाई जैसी किसानों की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकता है। इसके बाद हम एक सामुदायिक तालाब जिसे भगवत सागर कहा जाता है। उसे देखने पहुंचे। इस तालाब को फिर से जीवित किया गया है। तीन बड़ी पाल और पानी के आने वाले स्थान यानी आगर का निर्माण कर दिया गया है। फिलहाल यह अभी सूखा था। हालांकि किसानों का कहना था कि बरसात के वक्त इसमें पानी भर जाएगा।
महोबा के बाद हम बांदा पहुंचे। इस बीच जहां हमनें कुछ ऐसे सकारात्मक प्रयास देखे। वहीं तमाम सूखे कुंए भी दिखाई दिए। ज्यादातर यह कुएं छोटे और मझोले किसानों के हिस्से में हैं जो अपने खेतों पर निजी तालाब नहीं बना सकते। महोबा से बांदा के बीच रास्ते सिमट और सिकुड़ चुकी केन नदी भी दिखाई दी। यहां इंडिया वाटर पोर्टल के संयोजक केसर सिंह और बांदा जिले के स्थानीय निवासी व छायाकार प्रेम शंकर गुप्ता ने बताया कि अवैध खनन के चलते उत्तर प्रदेश में केन नदी का अस्तित्व ही खत्म होने को है। वहीं केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना यदि तैयार होती है तो बांदा और आस-पास के इलाकों को केन का पानी नसीब नहीं होगा। वहीं शिवपुरी के राम प्रसाद शर्मा ने बताया कि नदियों से रेता व खनिज निकाले जाने से नदियों की मूल प्रकृति नष्ट हो जाती है। रेता न सिर्फ पानी को साफ करते हैं बल्कि नदी के जीवन को भी बनाए रखते हैं। यदि उसका खनन किया जाएगा तो नदी का यही हश्र होगा।
हमारा अंतिम पड़ाव बांदा जिले के बडोखर गांव में था। यहां सूखे को मात देकर हरी-भरी और मुनाफे वाली आवर्तनशील खेती करने वाले स्थानीय किसान प्रेम सिंह के फार्म हाउस पर हम पहुंचे। यह फार्म हाउस भारतीय किसान विद्यापीठ के नाम से स्थापित है। जहां बायोगैस से चलने वाली सामुदायिक रसोई मौजूद है। इसके अलावा स्थानीय बच्चों और लोगों को खेती-किसानी के प्रति जागरूक करने के लिए ह्यूमन एग्रेरियन सेंटर भी स्थापित किया गया है। प्रेम सिंह ने अपने खेती के विशेष तरीके से जैविक अनाज और सब्जी पैदा करते हैं। शुरुआती कठिन दिनों के बाद बुंदेलखंड में सूखे की इस हालत के बावजूद वे अनाज का प्रसंस्करण कर बाजार में भी इसकी बिक्री कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि किसान अपने गेहूं की कीमत नहीं तय कर सकता लेकिन यदि वह गेहूं को दलिया बनाकर बाजार में बेचे तो उससे वह अपनी कीमत वसूल सकता है। प्रेम सिंह की खेती की पाठशाला में एक वाक्य लिखा था किसी भी समय और देशकाल में संग्रहण का अंतिम बिंदु नहीं खोजा जा सका है। हम खेती की इसी पाठशाला से दर्शन ज्ञान लेकर वापस झांसी लौटे। रास्ते में जिन झील-तालाब, कुओं और खेतों को बरखा का मुद्दत से इंतजार था उन्हें भी बरखा ने तर कर दिया।
(सेंटर फॉर साइंड एंड एनवॉयरमेंट की ओर से 2016, जुलाई में जल संरक्षण प्रोत्साहन के मकसद से कराई गई एक यात्रा का वृत्तांत )