पश्चिम बंगाल में फसल के पैटर्न में महत्वपूर्ण बदलाव देखा जा रहा है। किसान तेजी से गेहूं की खेती छोड़ रहे हैं। खासकर बांग्लादेश की सीमा से लगे मुर्शिदाबाद और नादिया जिले में किसान गेहूं की जगह केला, दाल और मक्के की खेती कर रहे हैं।
सरकारपुरा गांव के किसान मोंटू मंडल ने अपने लगभग 80 प्रतिशत गेहूं के स्थान पर केले की खेती की है। वह कहते हैं कि उनके पास 3.7 हेक्टेयर कृषि भूमि है और लगभग 0.75 हेक्टेयर भूमि बांग्लादेश और भारत सीमा के बीच स्थित है। पहले हमारा परिवार गेहूं उगाता था, लेकिन यह अब हमारे लिए आर्थिक रूप से संभव नहीं है।
खेती में बदलाव के पीछे प्रमुख कारणों में से एक कवक रोग है, जो फसल को प्रभावित करता है, जिसे गेहूं ब्लास्ट भी कहा जाता है। बांग्लादेश में 2016 में इस बीमारी का पता चला था, जिसके बाद राज्य सरकार ने सीमावर्ती क्षेत्रों और दो जिलों में गेहूं की खेती पर दो साल का प्रतिबंध लगा दिया था। बाद में यह प्रतिबंध 2022 तक बढ़ा दिया गया था।
मंडल ने कहा कि उन्होंने गेहूं के स्थान पर केले का उपयोग पूरी तरह से नहीं किया है, इसका एकमात्र कारण यह है कि सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) सीमावर्ती क्षेत्रों में ऊंचे पेड़ों को उगाने की अनुमति नहीं देता है। वह कहते हैं कि गेहूं में पानी की खपत होती है और इसकी बाजार कीमत नहीं बढ़ी है। सरकार खाद्यान्न की कीमतों पर नजर रखती है क्योंकि यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का हिस्सा है।
मंडल ने अफसोस जताया कि ओलावृष्टि और बेमौसम बारिश जैसी चरम मौसम की घटनाओं से गेहूं की फसल की पैदावार को भी नुकसान होता है।
गांव के एक अन्य किसान रिंटू मंडल ने कहा कि केले अधिक लाभदायक होते हैं, खासकर त्योहारी सीजन के दौरान। उन्होंने कहा, "पीक सीजन के दौरान हम प्रति क्लस्टर 350-400 रुपये कमा सकते हैं, जबकि औसतन हम 150-200 रुपये कमा सकते हैं।"
रिंटू ने स्वीकार किया कि केला भी एक जुआ है, क्योंकि बाढ़ या भारी बारिश के दौरान यह क्षतिग्रस्त हो सकता है। लेकिन अभी के लिए, यह गेहूं का एक बेहतर विकल्प प्रतीत होता है।
2016 में मुर्शिदाबाद जिले के रानीनगर ग्राम पंचायत के मजहरदियार गांव के बैदुल इस्लाम की फसल पर गेहूं ब्लास्ट जैसे लक्षण देखे गए थे। उन्होंने कहा, "मुझे अपनी पूरी फसल जलानी पड़ी।"
बैदुल तब से ही गेहूं के बजाय जूट, दाल और अन्य सब्जियों की फसलें उगा रहे हैं। उन्होंने यह भी शिकायत की कि उनके क्षेत्र में भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है, जिसका कारण संभवतः गेहूं की खेती हो सकता है।
बैदुल ने कहा, गेहूं उगाने पर प्रतिबंध से किसानों पर व्यापक असर पड़ा। किसान चिंतित हैं कि बीमारी दोबारा लौटेगी और बड़े पैमाने पर नुकसान होगा। गांव के कुछ किसानों ने धान उगाना भी चुना है, जो इस क्षेत्र के लिए नया है।
क्षेत्र में मक्का तेजी से गेहूं की जगह ले रहा है। राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, मक्के का उत्पादन आठ गुना बढ़ गया है। मक्के का उत्पादन साल 2011 में 325,000 टन था, जो 2023 में बढ़कर 29 लाख टन हो गया है।
पिछले पांच वर्षों में मक्के की खेती का औसत क्षेत्रफल 264,000 हेक्टेयर से बढ़कर 400,000 हेक्टेयर हो गया है।
पश्चिम बंगाल के कोलकाता के एक कृषि अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि गेहूं उत्पादकों को प्रति क्विंटल लगभग 3,200-3,800 रुपए मिलते हैं, जबकि मक्के से उन्हें लगभग 1,800 रुपए मिलते हैं। जो प्रति हेक्टेयर उत्पादन गेहूं की तुलना में अधिक है, इसलिए यह अधिक लाभदायक हो जाता है।
अधिकारी ने कहा कि पोल्ट्री और खाद्य प्रसंस्करण कंपनियां भी मक्का खरीदती हैं, जिससे किसानों को प्रीमियम कीमतें हासिल करने में मदद मिलती है। किसान मक्के को गेहूं और अन्य फसलों की जगह एक नई नकदी फसल के रूप में देखते हैं।
आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले दशक में दालों का उत्पादन 142,000 टन से तीन गुना बढ़कर 440,000 टन हो गया है। तिलहन उत्पादन लगभग दोगुना होकर 700,000 टन से 13 लाख टन हो गया है।
कृषि अधिकारी ने कहा कि गेहूं की खेती पर प्रतिबंध ने वैकल्पिक फसलों के प्रयोग को प्रेरित किया। हाल के वर्षों में राज्य सरकार ने नई संकर (हाइब्रिड) मक्का और दाल की किस्मों को भी बढ़ावा दिया है, जिसके परिणामस्वरूप फसल की खेती में वृद्धि हुई है।
उन्होंने बताया कि गेहूं कभी भी अधिक मुनाफा कमाने वाली फसल नहीं थी, लेकिन यह कायम रहा, क्योंकि किसान इसे पारंपरिक रूप से उगाते थे।
हालांकि फसल पैटर्न में बदलाव से राष्ट्रीय गेहूं सुरक्षा पर असर पड़ने की संभावना नहीं है। अधिकारी ने कहा कि देश में कुल गेहूं उत्पादन में राज्य का योगदान एक प्रतिशत से भी कम है।
उन्होंने कहा, "इससे गेहूं की कुल उपज पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन इससे राज्य के किसानों को अन्य फसलों से बेहतर रिटर्न पाने में मदद मिल सकती है।"