"मेरी करीब पचास फीसदी धान की फसल इस बार बर्बाद हो गई है, अभी 10 दिन बाद इसकी कटाई होनी है, पीला रोग लगा है अब देखते हैं कितना मिलेगा। कुल एक हेक्टेयर (4 बीघा) में संपूर्णा धान की वेराइटी लगाई थी वहीं, 15 बीघे में बटाईदारों ने धान की खेती की थी लेकिन बड़े-बड़े फंगी गोले लग गए हैं। अगर सफेद कपड़ा पहनकर खेतों में चले जाइए तो लौटते समय कपड़े का रंग पीला हो जाएगा। ऐसा मैंने कभी नहीं देखा था। न बीमा है और न ही कोई सरकारी मदद है। मेरा ही नहीं इस बार गांव के किसानों का बड़ा नुकसान हो गया।"
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में मोहम्मदाबाद तहसील के सुल्तानपुर गांव में रहने वाले एसके प्रधान ने डाउन टू अर्थ से यह बात साझा की। उन्होंने कहा कि एक दो साल पहले यह पीला रोग बिल्कुल न के बराबर था लेकिन इस बार यह भयावह है। पता नहीं कौन सी बला है। इसी तरह सिद्धार्थनगर जिले के जोगिया ब्लॉक में बड़गौ गांव के प्रधान राम अवतार यादव ने डाउन टू अर्थ से बताया कि उनके 15 बीघे खेत में सांबा वेराइटी धान की फसल में पीलापन है। वहीं कुछ कीड़े भी रात में धान की बाली को तोड़कर गिरा देते हैं। समूचे गांव में काफी नुकसान हो चुका है। कटाई तक पता नहीं कितना धान सुरक्षित रहेगा।
यूपी में बलिया, आजमगढ़, देवरिया, मऊ, कुशीनगर जिले में भी धान के खेतों में रोग लग चुका है और किसानों को इस रोग की जानकारी नहीं है। कोई इसे पीला रोग कहते हैं, कोई फंगी गोला और कोई लेढ़ा कहकर पुकारता है। जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में 24 बरस पहले फाल्स स्मट नाम की महामारी ने काफी धान के खेतों को बर्बाद किया था।
यूपी में बलिया जिले के सोरांव स्थित किसान विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक रवि प्रकाश मौर्य ने डाउन टू अर्थ से कहा "यह फाल्स स्मट ही है। इसे कंडुआ रोग भी कहते हैं। इस बार इसका प्रकोप बहुत ही ज्यादा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के करीब 23 जिले और सात मंडल में इसने 80 फीसदी तक धान की फसलों को प्रभावित किया है। इसका सबसे बड़ा कारण जलवायु स्थितियां हैं। बारिश और काफी नमी होने की वजह से फसलों में यह रोग फैला है। पॉयनियर, दामिनी जैसी अन्य कई वेराइटी में किसान इस रोग के लगने की शिकायत कर रहे हैं। यदि यह एक से दो फीसदी तक होता तो शायद दवाओं से इसकी रोकथाम होती लेकिन यह 50 फीसदी से ज्यादा फसलों को प्रभावित कर चुका है। किसान के पास कहां इतना संसाधन है कि वह रोग वाले धान को पहले ढ़के और फिर सावधानी से अलग करके उसे सुरक्षित खेतों से बाहर ले आए। हवा और नमी के कारण यह काफी तेजी से फैला है। हम किसानों के बीच इसे लेकर जागरुकता फैला रहे हैं। "
फिलहाल किसान प्रोपिकोनाजोल-25, कार्बडाजिम 50 डब्ल्यू पी का 200 ग्राम 200 लीटर पाानी में घोल बनाकर इस्तेमाल कर रहे हैं। हालांकि किसानों का कहना है कि अब बहुत देर हो चुकी है और कितनी दवाई डाले। कटाई का वक्त है, ऐसे में धान की बालियों में पीले फंगस वाले गोले काफी नुकसान कर देंगे।
अप्रैल, 1987 में इंटरनेशनल राइस रिसर्च न्यूज लेटर के वॉल्यूम 12 और अंक 2 में सस्य वैज्ञानिकों की पूर्वी उत्तर प्रदेश में फाल्स स्मट से संबंधित एक स्थिति रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि वैज्ञानिकों ने 1975 से फाल्स स्मट का अध्ययन शुरू किया। अध्ययन में मिला कि यह अलग-अलग स्थानों और अलग-अलग वेराइटियों में एक ही समय पाया गया। खासतौर से बारिश के समय जब आद्रता 90 फीसदी से ज्यादा और तापमान 20 डिग्री सेल्सियस के आस-पास रहा और वर्षा का वितरण सतत बना रहा। ऐसी स्थिति में फाल्स स्मट का प्रकोप काफी तेजी से बढ़ा। 1984 से लेकर 1986 तक फाल्स स्मट ने महामारी का रूप ले लिया। और 1984 में जहां इसका नुकसान 10 फीसदी था वह 1986 में बढ़कर 30 फीसदी तक हो गया। इसने उस वक्त काफी धान के खेतों को प्रभावित किया। इस रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया कि जिन खेतों में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटैशियम की अधिकता है यानी उर्वरता ज्यादा है वहां इसका प्रकोप काफी ज्यादा रहा।
डाउन टू अर्थ को हाल ही में जर्मनी के पोट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च इन पोट्सडैम से जुड़ी वरिष्ठ जलवायु वैज्ञानिक एलिना सुरोव्यातकिना ने एक साक्षात्कार दिया। इससे फाल्स स्मट के प्रभावी होने की गुत्थी शायद सुलझे। उन्होंने बताया कि इस बार मानसून का व्यवहार बीते कुछ वर्षों की तरह ही डिस्टर्ब रहा। गर्मी के दो महीने और बारिश शुरु होने के वक्त यूरेशिया, उत्तरी पाकिस्तान समेत उत्तर भारत में रोज का औसत तापमान इस बार 4 डिग्री सेल्सियस कम रहा है। दरअसल 2020 की वर्षा शुरु होने के दौरान पूर्वी रूस में एटमॉसफेरिक उच्च दबाव था। उत्तरी साइबेरिया में आर्कटिक सर्कल में तापमान में काफी बढ़ोत्तरी हुई, वरखोयांश्क कस्बे में 38 डिग्री सेल्सियस तापमान रिकॉर्ड किया गया। मई महीने में साइबेरिया में काफी ज्यादा गर्मी थी, तापमान सामान्य औसत से 10 डिग्री सेल्सियस अधिक था। इसकी वजह से मई में समूचे उत्तरी गोलार्ध और दुनिया ने गर्मी की अधिकता रही। हालांकि साइबेरिया के तटीय इलाके और उत्तरी भारत व उत्तरी पाकिस्तान में इसकी वजह से बादल छाए रहे और इन क्षेत्रों में तापमान में काफी कमी आई, जो कि एक नकारात्मक और असंगति वाला क्षेत्र बन गया।
उर्वरकता की वजह से फाल्स स्मट प्रभावी हो सकता है इसलिए किसानों को फाल्स स्मट से बचने के लिए यूरिया का इस्तेमाल न करने की सलाह दी जा रही है। हालांकि एसके प्रधान बताते हैं कि धान की बालियां जो फंगस का शिकार हो गईं उनके दानें हरे हो जाते हैं। पांच बार की धुलाई में भी उनका रंग नहीं बदलता। इन्हें खाने पर ये बेस्वाद होते हैं और स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा होती हैं। उन्होंने कहा कि किसान मोह में इन बालियों के दानों का भी खाने में इस्तेमाल कर लेता है, जो कि एक बड़ी गलती होती है।
इस बार देश में धान की बंपर रोपनी हुई थी। कोविड-19 के बाद लॉकडाउन में गांव को लौटे प्रवासियों ने खासतौर से उत्तर प्रदेश और बिहार उसके बाद वापस पंजाब और हरियाणा में धान की बंपर रोपनी की। वहीं, 1 जून से 31 अगस्त तक देश ने सामान्य से 10 फीसदी अधिक वर्षा हासिल की। भारत में जब अरब सागर और बंगाल की खाड़ी दोनों तरफ से मानसून मजबूती से आता है तो देश के पूर्व और पश्चचिम दोनों हिस्सों में अच्छी वर्षा होती है लेकिन कुछ वर्षों से यह एक तरफा हो गया है। जिसका परिणाम है कि कुछ हिस्से ज्यादा वर्षा झेल रहे हैं जबकि कुछ हिस्से सूखाग्रस्त हैं।
उत्तर प्रदेश के 70 जिलों में धान की खेती होती है। इनमे ंसे 7 जिले उच्च उत्पादकता (2500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) वाले हैं जबकि 29 जिले मध्यम उत्पादकता (2000-2500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) और 26 जिले (1500-2000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) मध्यम और न्यूनतम उत्पादकता समूह वाले जिलों में शामिल हैं। सिर्फ 3 जिले ही बेहद कम उत्पादकता वाले जिलों के समूह में है। वहीं फाल्स स्मट से प्रभावित होने वाले कुल 23 जिलों में ज्यादातर 2000 से 2500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर चावल उत्पादकता वाले जिलों में शामिल हैं।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस बार हर लगातार बारिश होती रही। उमस यानी आद्रता भी काफी ज्यादा बनी रही। इसकी वजह से सिद्धार्थनगर में केलों की खेती भी प्रभावित हुई थी। अब धान के खेतों पर बड़ा संकट है लेकिन सरकार के समाधान वाले गलियारे में चुप्पी है।