मिसाल: महाराष्ट्र के एक परिवार ने कब्बूरी मक्का को बचाया

पांच दशकों से एक परिवार ने मकई की एक पारंपरिक किस्म को संरक्षित रखा है जो जल्द ही विलुप्त हो सकती है
महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के जांभली गांव की कुसुम गायकवाड़ स्थानीय कबुरी मक्का किस्म के मक्के से बने दलिया के साथ
महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के जांभली गांव की कुसुम गायकवाड़ स्थानीय कबुरी मक्का किस्म के मक्के से बने दलिया के साथ
Published on

कुसुम और नारायण गायकवाड़ को महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के अपने गांव जांभली में लंबे समय तक याद किया जाएगा। पिछले पांच दशकों से वे मक्का की एक देशी किस्म, कब्बूरी मक्का के एकमात्र किसान हैं।

वो भी ऐसे कृषि प्रधान गांव में, जहां अन्य सभी परिवार संकर (हाइब्रिड) मक्का की खेती करते हैं, वहीं कुसुम गायकवाड़ साल में दो बार ऑफ-व्हाइट कब्बूरी मक्का के बीज बोती हैं।

कटाई के बाद वह मकई के चार दाने निकालती हैं, उन्हें अन्य मक्के के साथ बांधती हैं और एक साल तक बीजों को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें अपने घर की छत से लटका देती हैं। बाकी मक्के का इस्तेमाल परिवार, पड़ोसियों और दोस्तों के लिए दलिया और चपाती बनाने में किया जाता है।

कब्बूरी मक्का की खेती पहले पश्चिमी महाराष्ट्र और उत्तरी कर्नाटक के गांवों में की जाती थी, जहां लोगों का मानना ​​था कि यह मक्का की अन्य किस्मों की तुलना में अधिक स्वादिष्ट और पौष्टिक है। लेकिन हरित क्रांति के आगमन और संकर फसल किस्मों पर जोर देने के बाद यह लुप्त होने लगी।

कुसुम गायकवाड़ कहती हैं, "किसानों ने 1970 के दशक की शुरुआत में संकर किस्मों की खेती शुरू की और अगले दो दशकों में पारंपरिक किस्मों को छोड़ दिया गया।" वह कहती हैं कि इस बदलाव के पीछे मुख्य कारण यह था कि संकर मक्का की कटाई तीन महीने में की जा सकती थी, जबकि पारंपरिक किस्मों को उगने में चार-पांच महीने लगते थे।

आज, उनके कई पड़ोसी 2,000 किलोग्राम उच्च उपज वाली संकर मक्का की फसल उगाने में सक्षम हैं, जबकि पारंपरिक किस्मों की फसल 1,000-1,500 किलोग्राम होती है।

वह कहती हैं, "संकर और देशी दोनों किस्में 20 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिकती हैं; पारंपरिक फसलों को बनाए रखने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है।"

देश भर में पारिस्थितिक खेती और टिकाऊ आजीविका पर काम करने वाली गैर-लाभकारी संस्था निर्माण के कार्यकारी निदेशक प्रशांत मोहंती कहते हैं, "कई क्षेत्रों में सरकारी मक्का कार्यक्रमों की वजह से संकर किस्मों ने पारंपरिक बीजों की जगह ले ली है। हाइब्रिड मक्का का अपना बाजार है।"

दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया की शोधकर्ता डेजी जॉन कहती हैं, "किसान हाइब्रिड किस्मों पर निर्भर हैं, क्योंकि उन्हें पारंपरिक फसलों के लिए पर्याप्त पैसा नहीं मिल रहा है, जिनका फसल चक्र लंबा होता है।"

लेकिन कुसुम गायकवाड़ कहती हैं कि देशी फसलों के खत्म होने से पारंपरिक भोजन जैसे कब्बूरी मक्का दलिया और चपाती भी गायब हो गई है।

वह कहती हैं, "हाइब्रिड मक्का का उपयोग करके दलिया बनाया जा सकता है, लेकिन इसका स्वाद अच्छा नहीं होता और इसमें आवश्यक पोषक तत्व भी नहीं होते।"

इसके अलावा जैसे-जैसे उनके पड़ोसियों ने हाइब्रिड मक्का की खेती शुरू की, कीटनाशकों और उर्वरकों पर उनकी निर्भरता बढ़ती गई। यह जानते हुए कि इससे लंबे समय में मिट्टी की सेहत को नुकसान पहुंचेगा, कुसुम और नारायण गायकवाड़ ने देशी किस्मों की खेती जारी रखने का फैसला किया।

वह अपने 1.3 हेक्टेयर में से 0.4 हेक्टेयर कब्बूरी मक्का के साथ-साथ देशी किस्में जैसे खपली गेहूं, ज्वार, बाजरा, चावल और सब्जियां उगाती हैं। बाकी जमीन पर वह अपनी मुख्य फसल गन्ना उगाती हैं।

कुसुम गायकवाड़ कहती हैं, "हम लाभ के लिए कब्बूरी मक्का नहीं उगाते, लेकिन इसने हमें कई दशकों तक जीवित रहने में मदद की है, जब हमारे पास सिंचाई की सुविधा नहीं थी। अन्य देशी मक्का फसलों की तरह यह किस्म भी केवल बारिश से अच्छी तरह से उगती है।"

अब गायकवाड़ परिवार कब्बूरी मक्का की व्यापक खेती को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहा है। वे अक्सर अपने और आस-पास के गांवों में बीज वितरित करते हैं और साथ ही उनसे बने व्यंजन भी वितरित करते हैं, ताकि अन्य किसान भी इसे उगाने के लिए प्रोत्साहित हों।

जांभली से 32 किलोमीटर दूर खोची गांव की किसान सुप्रिया कागवाडे कुसुम की पारंपरिक बीजों को संरक्षित करने की पहल से प्रेरित हुई हैं।

पिछले पांच सालों से वे अपने परिवार के लिए कब्बूरी मक्का दलिया बना रही हैं। वे कहती हैं, "हर कोई इसे खाना पसंद करता है, लेकिन दुर्भाग्य से कोई भी इसके बीजों को संरक्षित करने में दिलचस्पी नहीं रखता है। लेकिन गायकवाड़ परिवार कब्बूरी मक्का को बचाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है।"

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in