डाउन टू अर्थ तफ्तीश: अंधेरे में तीर मारने जैसी है किसानों की आय में वृद्धि की कवायद

गुड़गांव के कृषि विज्ञान केंद्र ने सकतपुर और लोकरा गांव को किसानों की आमदनी को दोगुना करने के लिए गोद लिया है, लेकिन किसी को इस बारे में पता ही नहीं है
हरियाणा के जिला गुड़गांव के गांव लोकरा के किसान अशोक कुमार। फोटो: भागीरथ
हरियाणा के जिला गुड़गांव के गांव लोकरा के किसान अशोक कुमार। फोटो: भागीरथ
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की है कि देश की आजादी के 75 साल पूरे होने पर किसानों की आय दोगुनी हो जाए। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अलग-अलग स्तर पर योजनाएं चल रही हैं। इनमें से एक बड़ी योजना हर जिले में दो "डबलिंग फार्मर्स इनकम विलेज " बनाना, ताकि इन गांवों से सीख लेते हुए जिले के सभी गांवों के किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाए। डाउन टू अर्थ ने इनमें से कुछ गांवों की तफ्तीश शुरू की है। इस कड़ी में पढ़ें, हरियाणा के गुड़गांव जिले के दो गांवों की हकीकत -   

हरियाणा के गुड़गांव जिले की मानेसर तहसील में स्थित सकतपुर और लोकरा गांव किसानों की आमदनी दोगुनी करने के पायलट प्रोजेक्ट में शामिल हैं। शिकोहपुर के कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) ने जुलाई 2019 में इन दोनों गांवों को गोद लिया था। इन दोनों गांवों को गोद लिए करीब सवा साल हो गए हैं। इस दौरान किसानों की आय बढ़ाने के लिए क्या प्रयास किए गए हैं और ये प्रयास कितने सफल रहे हैं, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ सकतपुर और लोकरा गांव पहुंचा। गांव जाकर पता चला कि न सरपंचों को और न ही किसानों को इस बारे में कोई जानकारी है। सकतपुर के सरपंच प्रीतम और लोकरा के सरपंच पंकज से जब हमने ऐसे किसानों के बारे में जानकारी मांगी तो उन्होंने कहा कि उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है।  

हालांकि सकतपुर में कुछ युवा जरूर मिले जिन्होंने केवीके से मशरूम की खेती का प्रशिक्षण लिया है, लेकिन इससे आमदमी बढ़ाने में कोई मदद नहीं मिली है। प्रशिक्षण लेने वाले गांव के युवा गौरव बताते हैं कि पिछले महीने अक्टूबर में गांव के 4 युवाओं को 21 दिन का प्रशिक्षण दिया गया था। लेकिन इससे कुछ हासिल नहीं हुआ है। गौरव के पिता गुलाब सिंह ने भी पिछले साल प्रशिक्षण लेकर कृषि विज्ञान केंद्र के सहयोग से एक कमरे में पहली बार मशरूम लगाया था। इसकी खेती से उन्हें किसी प्रकार की आय नहीं हुई। सारी उपज को उन्होंने या तो खुद उपभोग कर लिया या गांव वालों को मुफ्त में बांट दिया।

केवीके से लगातार संपर्क में रहने वाले गुलाब सिंह ने अपने आधे एकड़ के खेत में कृषि विज्ञान केंद्र की मदद और मार्गदर्शन से पॉलीहाउस लगाया है। इसमें वह टमाटर की नर्सरी तैयार कर हैं। उनके बेटे गौरव बताते हैं, “गांव में पहली बार हम पॉलीहाउस में खेती का प्रयोग कर रहे हैं। यह अभी शुरुआती चरण में है। इसके नतीजे आने पर ही आमदनी में वृद्धि का पता चलेगा।” केवीके के वैज्ञानिकों ने उन्हें बताया है कि इस प्रकार की खेती से टमाटर कीड़ों और मौसम की मार से सुरक्षित रहते हैं। इससे पैदावार काफी बढ़ जाती है। गौरव बताते हैं कि अगर आमदनी में इजाफा होता है तो वह एक और खेत में पॉलीहाउस लगा लेंगे।

केवीके ने आमदनी में वृद्धि के उद्देश्य से गांव के कुछ पशुपालकों को बकरियां भी दी हैं। ऐसे ही एक पशुपालक हारून ने डाउन टू अर्थ को बताया, “केवीके ने कुल छह बकरियां पिछले साल दी थीं। इनमें से पांच बकरियां कुछ समय बाद मर गईं।” हारुन का कहना है कि बकरियों से कोई आमदनी नहीं हुई बल्कि दवाई में 1,500 रुपए खर्च हो गए।

सकतपुर में हमें भीम सिंह नामक केवल एक शख्स ऐसा मिला जो यह कह सकने की स्थिति में था कि उसकी आमदनी दोगुनी से ज्यादा बढ़ी है। हालांकि आमदनी में हुई वृद्धि केवीके द्वारा गांव को गोद लिए जाने से पहले की है लेकिन वह इसका श्रेय केवीके को देते हैं। भीम सिंह ने 2014 में केवीके से मसालों के प्रसंस्करण का प्रशिक्षण लिया था। ट्रेनिंग के बाद उन्होंने अपने घर में प्रसंस्करण ईकाई स्थापित कर ली और कच्चे और खड़े मसालों की सफाई, पिसाई और पैकेजिंग का काम शुरू किया। इन मसालों को वह आरजू मसाला के नाम से स्थानीय बाजार में बेचने लगे। उन्होंने 5,000 रुपए की लागत से यह काम शुरू था। अब हर महीने वह करीब तीन लाख रुपए का मसाला बेचते हैं। 30 प्रतिशत मार्जिन निकालकर उन्हें हर महीने करीब 50 हजार रुपए का शुद्ध लाभ मिल जाता है। उनके इस काम से गांव के 20 लोगों को रोजगार भी मिल गया है। भीम सिंह बताते हैं कि केवीके से उन्हें तकनीकी सहयोग मिलता रहता है।

लोकरा गांव के किसान अशोक कुमार भी अपनी आय दोगुनी से अधिक बढ़ाने में कामयाब हुए हैं, लेकिन इसका श्रेय वह केवीके को नहीं देते। उनकी आय में वृद्धि खेती में नए प्रयोग करके हुई है। अशोक कुमार कुल पांच एकड़ में जैविक खेती करते हैं। वह मुख्य रूप से गेंदा, बाजरा, कपास, अरण्डी, लौकी, ब्रोकली, मटर उपजाते हैं। एक एकड़ में वह जैविक गेहूं की कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग भी करते हैं। इसके लिए उन्होंने गुडगांव की एक कंपनी से करार किया है। इसके अलावा वह काला गेहूं भी 10 हजार रुपए प्रति क्विंटल के भाव पर बेचते हैं। अशोक कुमार कहते हैं, “जैविक उपज बेचने के लिए मंडी नहीं जाना पड़ता, खरीदार खेत पर ही आकर मुंह मांगे भाव पर उपज खरीद लेते हैं।” अशोक कुमार जैविक गेहूं 4,000 रुपए प्रति क्विंटल के भाव पर बेचते हैं। वह अपनी आमदनी में हुई वृद्धि को आंकड़ों में तो नहीं बताते लेकिन इतना जरूर कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में यह दोगुने से ज्यादा हो गई है।

लोकरा गांव के ही एक अन्य किसान मंगतराम ने अपनी आय में 2015 के मुकाबले कई गुणा बढ़ा ली है। आय में वृद्धि सब्जियों की खेती, जैविक खेती और पशुपालन की मदद से हुई है। मंगतराम सहीवाल और गीर नस्ल की 17 गायों के दूध से हर महीने 80 हजार रुपए बचा रहे हैं। पांच साल पहले उनकी आय 15-20 हजार रुपए प्रति माह के आसपास थी। मंगतराम बताते हैं आय में वृद्धि के लिए केवीके से कोई मदद नहीं मिली।

केवीके की मुख्य वैज्ञानिक अनामिका शर्मा ने डाउन टू अर्थ को बताया कि गोद लिए गए गांवों आमदनी दोगुनी करने के लिए अलग से फंडिंग या अन्य किसी प्रकार का सहयोग नहीं मिला है। वह बताती हैं, “हमने बैंकेबल प्रोजेक्ट बनाकर नाबार्ड को भेजा है लेकिन वहां से कोई सकारात्मक जवाब नहीं आया है।” उनका कहना है कि इसके बावजूद केवीके किसानों की आय बढ़ाने के लिए अपने स्तर पर प्रयासरत है। उनका दावा है कि केवीके ने दोनों गांवों के कुल 48 किसानों को अब तक लाभांवित किया है। वह बताती है, “केवीके के प्रयासों से किसानों की आमदनी बढ़ी जरूर है, भले ही वह दोगुनी न हुई हो।” उनका दावा है कि किसानों की आय डेढ़ गुणा तक बढ़ गई है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आय बढ़ाने में केवीके के प्रयास अभी जमीन पर दिखाई नहीं दे रहे हैं। गांवों में जिन चुनिंदा किसानों की आय बढ़ी है, वह उनकी दूरदर्शिता और मेहनत का नतीजा है। केवीके के पास फंडिंग की कमी है। ऐसी स्थिति में किसानों की आय बढ़ाना, उसके लिए अंधेरे में तीर मारने जैसा है।

कल पढ़ें, कुछ और गांवों की हकीकत

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