किसानों को उर्वरक सब्सिडी का प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण है समाधान
भारत में कुल 40 करोड़ एकड़ (16 करोड़ हेक्टेयर) कृषि योग्य भूमि है, जो अमेरिका के बाद दुनिया में दूसरे स्थान पर है, और भारतीय कृषि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। यह दो-तिहाई आबादी को भोजन और लगभग दो-तिहाई श्रमिकों को रोजगार प्रदान करती है। अधिकांश उद्योगों को भी कच्चा माल कृषि क्षेत्र से ही प्राप्त होता है।
हरित क्रांति के दौर (1965–1980) से पहले किसान प्राकृतिक खेती करते थे, जिसमें रासायनिक उर्वरकों की खपत नगण्य थी। उस समय फसलों का उत्पादन और उत्पादकता बहुत कम थी। देश बार-बार अकालग्रस्त होता था और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विदेशी अनाज के आयात पर निर्भर थी। वर्ष 1943 के बंगाल अकाल में 30 लाख से अधिक भारतीयों की भूख से मृत्यु हो गई थी। इन विकट परिस्थितियों में नीति-निर्माताओं ने हरित क्रांति के जनक डॉ. नॉर्मन बोरलॉग द्वारा विकसित गेहूं की बौनी किस्मों और अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान से धान की बौनी किस्मों का आयात करके हरित क्रांति का सूत्रपात किया।
इन उन्नत किस्मों से पूर्ण उत्पादन लेने हेतु भारी मात्रा में उर्वरकों का आयात और उत्पादन बढ़ाया गया, तथा भूजल आधारित ट्यूबवेल सिंचाई का भी विस्तार किया गया।
हरित क्रांति काल में किए गए कृषि सुधारों से विभिन्न फसलों के उत्पादन और उत्पादकता में कई गुना वृद्धि हुई, जिससे भारत पिछले पाँच दशकों से लगातार बढ़ती जनसंख्या के बावजूद खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बना हुआ है और चावल का 50,000 करोड़ रुपये से अधिक का वार्षिक निर्यात भी कर रहा है।
वर्ष 2022 में भारत में उर्वरक की औसत खपत 193 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी और लगभग 30 करोड़ मीट्रिक टन उर्वरकों की खपत हुई। यह विश्व में दूसरी सबसे बड़ी खपत है। भारत में यूरिया सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला उर्वरक है, और इसकी खपत वर्ष दर वर्ष बढ़ती जा रही है। घरेलू मांग की पूर्ति के लिए सरकार को भारी मात्रा में उर्वरकों का आयात करना पड़ता है।
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार, प्रति हेक्टेयर एक टन गेहूं व चावल के उत्पादन हेतु औसतन 25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 10–12 किलोग्राम फास्फोरस तथा 15–20 किलोग्राम पोटाश की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त पौधों के समुचित विकास के लिए अनेक सूक्ष्म पोषक तत्वों की भी आवश्यकता होती है, जो मिट्टी के प्रकार, फसल की किस्म और जलवायु परिस्थितियों पर निर्भर करती है।
हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में गेहूं-धान फसल चक्र की वार्षिक उत्पादकता 10 टन से अधिक है। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल आदि राज्यों में भी धान की दो–तीन फसलें ली जाती हैं और वहाँ भी उत्पादकता 10 टन से अधिक होती है। ऐसे क्षेत्रों में उर्वरक की खपत राष्ट्रीय औसत से दुगुनी होती है — लगभग 250 किग्रा नाइट्रोजन, 120 किग्रा फास्फोरस और 200 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर। जबकि वर्षा आधारित फसलों (जैसे बाजरा, ज्वार, दलहन, तिलहन) वाले राज्यों में उर्वरक की खपत औसत से कम रहती है। उच्च उत्पादकता वाली गन्ना एवं कंदमूल फसलों को भी अधिक मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु नीति-निर्माताओं ने हरित क्रांति काल से ही कृषि क्षेत्र के लिए उर्वरकों की सस्ती दर पर आपूर्ति हेतु सब्सिडी नीति अपनाई। केंद्र सरकार पिछले कई वर्षों से औसतन ₹1.5 लाख करोड़ की उर्वरक सब्सिडी दे रही है। वित्त वर्ष 2025–26 के लिए सरकार ने उर्वरक सब्सिडी लगभग 1.68 लाख करोड़ रुपए निर्धारित की है, जिसमें यूरिया के लिए 1.19 लाख करोड़ रुपए तथा फॉस्फेटिक एवं पोटाश उर्वरकों के लिए 49,000 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं।
पिछले वित्त वर्ष 2023–24 में उर्वरकों पर सरकारी व्यय 6 प्रतिशत घटकर 1,77,129.5 करोड़ रुपए रहा, जो 2022–23 में 1,88,291.62 करोड़ रुपए था। यह गिरावट मुख्यतः यूरिया और डीएपी के आयात में कमी और अंतरराष्ट्रीय कीमतों में गिरावट के कारण हुई है।
यूरिया, जो पूर्णतः नियंत्रित उर्वरक है, का विक्रय मूल्य वर्षों से 267 रुपए प्रति 45 किग्रा बैग पर स्थिर है, जबकि सब्सिडी के बिना यह 1,750 रुपए प्रति बैग तक हो सकता है। इसी प्रकार, डीएपी का खुदरा मूल्य 1,350 रुपए प्रति बैग निर्धारित है, जबकि बिना सब्सिडी यह 3,500 रुपए प्रति बैग हो सकता है।
दुर्भाग्यवश, सरकारी भ्रष्टाचार के कारण लगभग आधे से अधिक सब्सिडी वाले कृषि-ग्रेड उर्वरकों का गैर-कानूनी उपयोग औद्योगिक क्षेत्रों में हो रहा है। इसका सीधा नुकसान किसानों को हो रहा है, जिन्हें फसल बुवाई के समय उर्वरक नहीं मिल पाता और उन्हें महंगे दामों पर खुले बाजार या ब्लैक में खरीदना पड़ता है। इससे न केवल उनकी लागत बढ़ती है, बल्कि समय पर खाद न मिलने के कारण फसल की उत्पादकता भी घटती है, जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन चुका है।
और तो और, इस कृत्रिम कमी का अनुचित लाभ उठाकर सरकारी सहकारी उर्वरक कंपनी इफ्को वर्ष 2021 से किसानों को जबरन बेकार नैनो यूरिया बेच रही है। इफ्को का दावा है कि नैनो यूरिया (500 मिलीलीटर की एक बोतल जिसकी कीमत 240 रुपए है) 50 किलो दानेदार यूरिया के बराबर है, लेकिन पंजाब कृषि विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के अनुसंधान से यह सिद्ध हो चुका है कि नैनो यूरिया खेती के लिए प्रभावी नहीं है।
इसके बावजूद किसानों पर इसे थोपना, सरकार द्वारा कर्ज में डूबे गरीब किसानों का शोषण है। वर्ष 2024–25 में ही इफ्को ने 876 करोड़ रुपए मूल्य की 365 लाख नैनो यूरिया की बोतलें बेची हैं।
उर्वरक उद्योग में व्याप्त इस गैर-कानूनी दुरुपयोग को रोकने और सब्सिडी का वास्तविक लाभ किसानों तक पहुंचाने हेतु सरकार कई वर्षों से प्रयासरत है। इस दिशा में सबसे तर्कसंगत और प्रभावी उपाय उर्वरक सब्सिडी का प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण (डीबीटी) है।
इस प्रणाली में सरकारी नौकरशाही और बिचौलियों से मुक्ति मिलती है तथा भूमि राजस्व रिकॉर्ड पर आधारित किसान कार्ड बनाकर किसानों को उर्वरक सब्सिडी और अन्य सरकारी लाभ सीधे उनके बैंक खातों में भेजे जाते हैं।
वर्तमान सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रति एकड़ सिंचित भूमि के लिए 7,000 रुपए और वर्षा आधारित (बारानी) भूमि के लिए 4,000 रुपए प्रति वर्ष उर्वरक सब्सिडी दी जानी चाहिए।
कृषि मंत्रालय पहले ही पीएम-किसान, पीएम फसल बीमा योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड जैसी योजनाओं के डेटा — जिसमें भूमि जोत, फसल और उपज जैसी जानकारियाँ शामिल हैं — उर्वरक मंत्रालय के साथ साझा कर चुका है।
प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण से सरकारी योजनाओं का लाभ वास्तविक किसानों तक समय पर पहुँच सकेगा, जिससे पारदर्शिता बढ़ेगी, भ्रष्टाचार में कमी आएगी और योजनाओं की प्रभावशीलता में सुधार होगा। इससे उर्वरकों की उपलब्धता खुली बाजार में सुनिश्चित होगी तथा किसान उर्वरकों का युक्तिसंगत और संतुलित उपयोग करने के लिए प्रेरित होंगे, जिससे देश की कृषि प्रणाली और खाद्य सुरक्षा मजबूत बनेगी।