क्या नौ माह में दूसरे राज्यों तक पहुंच बना पाया किसान आंदोलन?

दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों के आंदोलन को नौ माह हो चुके हैं, लेकिन दिल्ली से दूर इस आंदोलन के बारे में क्या जानते हैं आम किसान-
कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमा पर बैठे किसान। फोटो: विकास चौधरी
कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमा पर बैठे किसान। फोटो: विकास चौधरी
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तीन कृषि कानूनों को वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्च (एमएसपी) की गारंटी की मांग को लेकर चल रहा किसानों के आंदोलन को नौ माह पूरे हो गए। इतने लंबे समय तक चला यह आंदोलन अपने आप में रिकॉर्ड हो सकता है, लेकिन इन नौ माह के दौरान क्या यह आंदोलन दिल्ली से दूर के इलाकों में पहुंच पाया। डाउन टू अर्थ ने यह जानने के लिए छह राज्यों के किसानों से बात की।

आइए जानते हैं, क्या कहते हैं आम किसान-

बिहार

बिहार के बेगूसराय जिले के बछवारा की राजरुदौली पंचायत निवासी 39 वर्षीय किसान पप्पू कुंवर ने कहा, “किसान 9 महीने से आंदोलन कर रहे हैं लगातार, ऐसे में सरकार को उनकी मांगों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। किसान अपने निजी स्वार्थ के लिए 9 महीने से आंदोलन नहीं कर रहे हैं। उन्हें मालूम है कि सरकार के कृषि कानूनों से न केवल वे और उनकी पीढ़ी बर्बाद हो जाएगी, बल्कि देश भी संकट में आ जाएगा।”

पप्पू छोटी जोत के किसान हैं। उन्होंने कहा, सरकार किसानों से जमीन भी ले लेना चाहती है। ये उचित नहीं है। किसानों के पास कोई और विकल्प नहीं है, इसलिए वे आंदोलन कर रहे हैं। सरकार को उन्हें गंभीरता से लेना चाहिए।

गया के डुमरिया के किसान लखन ठाकुर ने कहा कि 9 महीने से लगातार आंदोलन कर रहे किसानों की तरफ ध्यान न देना केंद्र सरकार की संवेदनहीनता को दर्शाता है। सरकार को चाहिए था कि वह पहले दिन ही किसानों से मुलाकात कर उनकी मांगों को मान लेती, लेकिन सरकार हठधर्मिता पर उतर आई है।

“मैं छोटा किसान हूं। मेरे पास कोई विकल्प नहीं है वरना मैं खुद दिल्ली जाकर आंदोलन कर रहे किसानों का साथ देता। लेकिन फिर भी मैं किसानों के आंदोलन के साथ हूं। हां, अगर बिहार में ऐसा आंदोलन होता है, तो मैं जरूर जाऊंगा,” लखन ने कहा।   

पटना जिले के बिहटा के किसान गोपाल सिंह कहते हैं कि वे सितंबर में अपने साथी किसानों के साथ दिल्ली जाएंगे और आंदोलनरत किसानों को हिम्मत देंगे। “किसानों का सवाल देश की आत्मनिर्भरता का सवाल है। खेती में तमाम तरह की दिक्कतें हैं, लेकिन ये काफी हद तक देश को आत्मनिर्भर बनाता है, लेकिन सरकार इसे भी कॉरपोरेट के हाथों में सौंप रही है। अगर खेती-किसानी भी निजी हाथों में चली जाएगी, तो लोगों को पास आखिरकार बचेगा क्या?,” उन्होंने कहा।

बिहार के सुपौल जिला के सिमरा पंचायत के वार्ड नंबर 13 के रहवासी हरिशंकर मंडल (72वर्ष) कहते हैं कि,  "मुझे इस बात का ज्यादा दुख है किपंजाब-हरियाणा के किसानों को देख कर भी बिहार के किसानों का खून नहीं खोल रहा हैं। क्योंकि सच तो यह हैं कि बिहार के किसानों को नहीं पता है कि एमएसपी किस चिड़िया का नाम है, यहां के किसान भगवान भरोसे चल रहे हैं।"

वहीं कोशी नव निर्माण किसान संगठन के अध्यक्ष महेंद्र यादव कहते हैं कि देश का दुर्भाग्य हैं कि अन्नदाता रोड पर बैठा हुआ हैं। दिल्ली के किसान आंदोलन में बिहार के किसान को भी शामिल होना चाहिए, क्योंकि इस क़ानून से सबसे अधिक बिहार के किसानों का नुकसान होने वाला है।"

वहीं बिहार के सहरसा जिले  के महिषी पंचायत के महेंद्र यादव कहते हैं कि, "तिरंगा हटाकर अपना झंडा लहराने वाले किसान कैसे हो सकते हैं? यह किसान नहीं बल्कि एक राजनैतिक साजिश के तहत हो रहा आंदोलन हैं।" जब उनसे पूछा गया कि क्या वह जानते हैं कि इस आंदोलन का मांग क्या है? तो महेंद्र यादव खामोश रह गए।

सुपौल जिला के बीना बभनगामा गांव के प्रेम मोहन झा इस आंदोलन पर कहते हैं कि, "यहां एक दिन काम ना करें तो दूसरे दिन खाने के लिए सोचना पड़ता हैं। पता नहीं किसानों के नाम पर नवंबर से आंदोलन कर रहे ये लोग कौन हैं।" 

उत्तर प्रदेश :

लखीमपुर जिले के शाहपुर गांव के रहने वाले अमनदीप सिंह (39) कहते हैं, "यह देश का दुर्भाग्य है कि किसानों को नौ महीने से सड़कों पर बैठना पड़ा है. सरकार अब भी उनकी मांग सुने और उन्हें सम्मान के साथ अपने गांव वापस भेजे। किसान अपना अधिकार मांग रहे हैं, इसमें कोई गलत बात नहीं है, सरकार को सुनना ही पड़ेगा।"

अमनदीप गन्ने के दाम पर भी नाराजगी जाहिर करते हैं. वो कहते हैं, "पंजाब सरकार ने गन्ने का रेट बढ़ा दिया, लेकिन यूपी सरकार रेट नहीं बढ़ा रही है. कल केंद्र सरकार ने 5 रुपए बढ़ाए हैं, आज के वक्त में 5 रुपए में क्या होता है?"

लखनऊ के बांदेखेड़ा गांव के रहने वाले नरपति सुमन (42) कहते हैं, "सरकार बहुमत में है इसका मतलब ये नहीं कि किसी की सुनी न जाए. लंबा वक्त हो गया, बहुत से किसान मर गए, सरकार को अड़ियल रवैया छोड़कर किसानों की सुननी चाहिए. किसानों का बुरा हाल है और किसानों की मांग सही है।" 

मध्य प्रदेश :

होशंगाबाद जिले के किसान सुनील गौर का कहना है कि ऐसा व्यवहार केवल किसान के साथ ही हो सकता है इतना लंबा तो कोई आंदोलन ही शायद ही चला हो, जितना लंबा अपना किसान आंदोलन हो गया है। इतने किसान भाई शहीद हो गए हैं, लेकिन भाजपा सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि यह बिल सही है तो किसानों से लाइव चर्चा की जानी चाहिए। सीहोर जिले के नसरूल्लागंज के किसान सोनू पटेल कहते हैं कि इतने लंबे समय से यदि किसान दिल्ली में बैठकर परेशान हो रहे हैं तो इसमें कोई एक आदमी का स्वार्थ नहीं हो सकता, किसानों के मुद्दे हैं और उन पर सरकार को बात करनी चाहिए। इस आंदोलन को लंबा खींचने में सरकार का योगदान भी है। किसान यदि समर्थन मूल्य की लिखित गारंटी चाहते हैं तो उन्हें देने में क्या दिक्कत है।

भोपाल के गोलखेड़ी गांव के किसान श्याम सिंह कुशवाहा का कहना है कि इतने लंबे समय तक अपनी खेती—बाड़ी छोड़कर दिल्ली में बैठने वाले किसान नहीं हो सकते, ये बड़े लोग हैं। उनका यह भी मानना है कि यदि बिल खराब होता तो अब तक मंडियां बंद होने लग जातीं। 

आंध्र प्रदेश :

चितूर जिले के पूठालापट्टू मंडल के गांव अबीरेड्डीवुरु के रहने वाले 45 वर्षीय किसान बी. वासुदेव रेड्डी कहते हैं कि उन्हें कृषि कानूनों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, इतना जरूर पता है कि दिल्ली में किसान मंडी सिस्टम और बिजली क्षेत्र में किए जा रहे बदलावों का विरोध कर रहे हैं। इससे ज्यादा वह कुछ नहीं जानते। वह कहते हैं कि यह सही है कि किसानों की दिक्कत बहुत हैं। जैसे कि इस बार उन्हें आम में भारी नुकसान हुआ है। उनका 12 एकड़ में आम का बाग है, जिससे उन्हें लगभग 10 लाख रुपए मिलने चाहिए थे, लेकिन केवल 5 लाख रुपए ही मिले । वह कहते हैं कि किसानों को इस बात की गारंटी तो मिलनी ही चाहिए कि उन्हें उनकी फसल का कितना दाम मिलेगा।

इसी जिले के एम. जनार्धन रेड्डी कहते हैं कि उन्हें नए कृषि कानूनों के बारे में नहीं पता,लेकिन इतना जानते हैं कि पंजाब और हरियाणा के किसान दिल्ली में डीजल की कीमतों में वृद्धि के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। यह खबर उन्हें टीवी न्यूज से पता चली। 

ओडिशा

जाजपुर जिले में सुकिंडा निवासी अजया बेहेरा कहते हैं कि यह बात समझ नहीं आती कि जब किसान कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं तो सरकार क्यों इसे लागू करने पर तुली हुई है। सरकार को चाहिए कि वह कृषि कानूनों को लागू करने की जिद छोड़ कर सिंचाई परियोजनाओं पर पैसा खर्च करे, ताकि किसानों के खेतों तक पानी पहुंचाया जा सके। इस बार के मानसून की कमी की वजह से किसानों को भारी नुकसान होगा।

कृषक सभा के उपाध्यक्ष उमेश चंद्र सिंह कहते हैं कि किसानों का आंदोलन पूरे देश का आंदोलन है और सरकार को हर हाल में ये कानून वापस लेने पड़ेंगे।

पश्चिम बंगाल

बुरदावान जिले के मेमारी गांव के किसान रमन बेग कहते हैं कि वह बहुत छोटे किसान हैं। उनके पास 2-3 बीघा खेत है। आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है। बावजूद इसके वे जो धान लगाते हैं, उसमें भी 300-400 रुपए का नुकसान हो जाता है। पिछले दिनों उन्हें पता चा कि दिल्ली में किसान आंदोलन कर रहे हैं। वे किसानों के लिए फसल की सही कीमत की मांग कर रहे हैं। इसके अलावा कृषि कानूनों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता, लेकिन सरकार को किसानों की बात सुननी चाहिए।

पश्चिम मदनीपुर के केशपुर गांव के किसान लियाकत अली कहते हैं कि वह किसानों के आंदोलन का पूरा समर्थन करते हैं, पिछले दिनों जब भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत नंदी ग्राम आए थे तो वह (लियाकल अली) उस सभा में गए थे। केंद्र सरकार को ये कानून वापस ले लेने चाहिए। 

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