सीएसई की रिपोर्ट: देश में जैविक खादों और जैव- उर्वरकों की हालत खराब

पूरे देश में घटिया गुणवत्ता के साथ-साथ नकली जैविक खादें और जैविक उर्वरकों के उत्पाद व्यापक रूप से उपलब्ध हैं
सीएसई की रिपोर्ट: देश में जैविक खादों और जैव- उर्वरकों की हालत खराब
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एक नई रिपोर्ट में पाया गया है कि उपलब्धता, गुणवत्ता और उठाव के लिहाज से भारत में जैव-उर्वरकों और जैविक खादों की हालत ठीक नहीं है।

गैर-रासायनिक विकल्प होने के चलते जैविक और प्राकृतिक खेती की दिशा में ये दोनों प्रभावी भूमिका निभाते हैं। यही वजह है कि लागत-प्रभावी गुणवत्ता वाले जैव-उर्वरकों और जैविक खादों की उपलब्धता अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके बावजूद सालों से देश में इनकी ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

अगर रासायनिक-उर्वरक सेक्टर से तुलना करें तो इन दोनों क्षेत्रों को अब तक केंद्र और अधिकांश राज्य सरकारों द्वारा सीमित ध्यान और समर्थन ही मिला है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट में पाया गया कि 2020-21 में रासायनिक-उर्वरक सेक्टर को मिलने वाली सरकारी सब्सिडी 1.3 लाख करोड़ रुपये थी, जबकि पूरे जैविक-खाद और जैव-उर्वरक क्षेत्र को आवंटित बजट कुछ सौ करोड़ रुपये तक ही सीमित था।

दिल्ली स्थित थिंक-टैंक, सीएसई ने हाल ही में 19-21 अप्रैल 2022 को टिकाऊ खाद्य प्रणालियों पर सम्पन्न अपने नेशनल कॉन्क्लेव में ‘बायोफर्टिलाइजर्स एंड ऑर्गेनिक फर्टिलाइजर्स इन इंडिया’ रिपोर्ट जारी की थी।

रासायनिक उर्वरकों के उत्पादन और उनके इस्तेमाल में भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर पहुंच चुका है। पिछले दो दशकों के साथ ही कई सालों से देश में रासायनिक उर्वरकों का प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल लगातार बढ़ता जा रहा है।

देश में खेतों की मिट्टी की हालत भी ठीक नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक, मिट्टी के नमूना परीक्षण के परिणामों में देखा गया कि देश की मिट्टी में जैविक कार्बन, स्थूल और सूक्ष्म पोषक तत्वों की गंभीर और व्यापक तौर पर कमी है।

योजनाएं बनाने तक सीमित हैं सरकारी प्रयास
केंद्र सरकार ने जैव-उर्वरकों और जैविक खादों को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं और कार्यक्रम चलाए हैं। इनमें से कुछ योजनाएं किसानों को ध्यान में रखकर तो कुछ जैव-उर्वरकों और जैविक खादों के उत्पादकों को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं।

हालांकि इन योजनाओं का बहुत छोटा हिस्सा ही इस क्षेत्र में अपना योगदान देता है। इन योजनाओं की क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है। इनकी शुरुआत से लेकर अब तक इनमें बहुत कम राशि खर्च की गई है। ज्यादातर राज्यों ने भी इसमें अपनी ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई है।

यही नहीं, कंपनियों, उनके पंजीकृत उत्पादों, दिए गए प्राधिकरणों और जैव उर्वरक और जैविक खादों के क्षेत्र से संबंधित अलग-अलग तरह के उत्पादकों और उनके उत्पादन विवरण के आंकड़ों की भी कमी है। राज्य सरकारों के पास भले ही इससे संबंधित उनके रिकॉर्ड हों लेकिन इस दिशा में पूरे देश के तौर पर कोई समग्र जानकारी उपलब्ध नहीं है।

जो भी जानकारी उपलब्ध है, वह देश में इस उद्योग और इस क्षेत्र की समग्र-संरचना और संगठन की भावना विकसित करने के लिए काफी नहीं है। इतना ही नहीं, राज्यों और देश के उत्पादन आंकड़ों में बीते कुछ सालों के बीच महत्वपूर्ण बदलाव दर्शाए गए हैं लेकिन उनका स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है।

आंकड़ों के लिहाज केवल कुछ राज्य पूरे देश भर के उत्पादन के लिए जिम्मेदार पाए गए। उदाहरण के लिए, देश भर में करियर-आधारित, ठोस जैव उर्वरकों का 90 फीसदी से अधिक उत्पादन केवल पांच राज्यों तक सीमित है। यही हाल तरल जैव-उर्वरकों का है।

आंकड़ों में विसंगतियां
उपलब्ध आंकड़ों में जैविक खादों में  भारी अनियमितताएं या विसंगतियां पाई गई हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत ने 2020-21 में 38.8 लाख टन जैविक खादों का उत्पादन किया जबकि 2017-18 में उसने 33.872 करोड़ टन जैविक खादों का उत्पादन किया था। यानी इसमें नाटकीय तरीके से कमी आई है।

इसी तरह, 2018-19 के आंकड़ों में कर्नाटक को जैविक खादों के सबसे बड़े उत्पादक के रूप में दिखाया है, और उस साल अकेले इस राज्य ने देश भर में उत्पादन में 94 फीसदी का योगदान दिया।

उत्पादन-क्षमता का इस क्षेत्र में कम इस्तेमाल बना हुआ है। असल में यह सीमित मांग से जुड़ा हुआ क्षेत्र है, जिसके लिए उत्पादों की खराब गुणवत्ता के साथ ही गैर-रासायनिक उर्वरकों को बढ़ावा देने के लिए सीमित सरकारी समर्थन भी जिम्मेदार है।

हम पाते हैं कि जैव-उर्वरकों और जैविक खादों के उत्पादकों के साथ-साथ गैर-रासायनिक उर्वरक विकल्पों का उपयोग करने के इच्छुक किसानों के लिए एक समान अवसर उपलब्ध नहीं है।
पूरे भारत में घटिया गुणवत्ता के साथ-साथ नकली जैविक खादें और जैविक उर्वरकों के उत्पाद व्यापक रूप से पाए जाते हैं।

कई राज्यों में मीडिया लगातार जैव-उर्वरकों और जैविक खादों की खराब क्वालिटी की खबरें प्रकाशित करता रहा है। इसके साथ ही वह राज्यों के कृषि विभागों द्वारा खराब उर्वरक नियंत्रण आदेश (फर्टिलाइजर कंट्रोल ऑर्डर, एफसीओ) के कार्यान्वयन, राज्य और केंद्र के स्वामित्व वाली प्रयोगशालाओं के बीच प्रयोगशाला-परीक्षण के परिणामों में अंतर, नकली कंपनियों की मौजूदगी और किसानों द्वारा की जाने वाली शिकायतों से जुड़े मुद्दे भी उठाता रहा है।

कई बार योजनाओं के तहत राज्यों को मिलने वाले जैव-उर्वरक और जैविक खादें की क्वालिटी काफी खराब होती है। हितधारक इनकी खरीद में व्यापक भ्रष्टाचार और दोषपूर्ण टेंडर प्रक्रिया की ओर इशारा करते हैं। खराब क्वालिटी के उर्वरकों और खादों के चलते ही किसानों को अच्छी फसलें नहीं मिलती जिसके चलते वे बाजार में मिलने वाले जैविक और जैव उत्पादों पर भरोसा करना कम कर देते हैं।

गुणवत्ता-नियंत्रण की आधारभूत संरचना भी दुरुस्त नहीं
इनकी गुणवत्ता को नियंत्रित करने वाली आधारभूत संरचना भी खराब है। कई राज्यों के पास उनकी अपनी जांच-प्रयोगशालाएं नहीं हैं। देश में पहले से मौजूद प्रयोगशालाओं की परीक्षण क्षमताओं का ठीक से उपयोग नहीं किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, 2019-20 में सात क्षेत्रीय जैविक कृषि प्रयोगशालाओं की क्षमता का केवल 28 फीसदी ही इस्तेमाल किया गया।

2013-14 में 654 जैव-उर्वरकों के सैंपलों का परीक्षण किया गया था, जिनकी संख्या 2019-20 में घटकर 483 रह गई। गुणवत्ता परीक्षण में फेल होनेे वाले जैव-उर्वरक नमूनों का अनुपात 2013-14 के 1 फीसदी से बढ़कर 2019-20 में 44 फीसदी हो गया।

जहां तक जैविक खादों के नमूना-परीक्षणें का सवाल है तो 2019-20 में केवल 477 नमूनों का परीक्षण किया गया था। परीक्षण में फेल होनेे वाले इसके नमूनों का जो प्रतिशत 2013-14 में महज नौ था, वह 2019 -20 में 46 तक पहुंच चुका था। दूसरा गंभीर मामला यह है कि इन प्रयोगशालाओं ने उन नमूनों का भी परीक्षण किया है, जो उर्वरक (अकार्बनिक, जैविक या मिश्रित) (नियंत्रण) आदेश द्वारा अनुमोदित भी नहीं हैं।

बड़े और समग्र प्रयास जरूरी
जैव- उर्वरकों और जैविक खादों के गुणवत्ता-नियंत्रण के अलावा इस क्षेत्र की प्रगति को रोकने वाली दूसरी बाधाएं फंड, सब्सिडी,  उन्हें बढ़ावा देने के लिए समर्थन, आंकड़ों को जुटाने और रिपोर्टिंग से जुड़ी हैं।
हालांकि कुछ राज्यों में उनके स्तर पर या निजी स्तर पर इस दिशा में कुछ सकारात्मक प्रयास किए जा रहे हैं। फिर भी अगर देश में जैविक और प्राकृतिक खेती को जनांदोलन का रूप देना है तो इस तरह के प्रयास काफी नहीं हैं और इसके लिए बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है।
जैविक और प्राकृतिक खेती की दिशा में बदलाव लाने के लिए एक लक्षित, महत्वाकांक्षी और अच्छी तरह से वित्त पोषित राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम होना आज के समय की मांग है। इसके लिए  केंद्र और राज्य सरकारों  के बीच सहयोग के माध्यम से एक मजबूत निगरानी और प्रवर्तन तंत्र को विकसित और संस्थागत करके जैव उर्वरकों और जैविक खादों की गुणवत्ता सुनिश्चित की जानी चाहिए।

इसके साथ ही राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम के जरिए इनका उत्पादन और उपलब्धता तय करके केंद्र और राज्यों द्वारा बहु-आयामी दृष्टिकोण के माध्यम से इनके उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। देश में मौजूद इस क्षेत्र की विशाल क्षमता का ढंग से इस्तेमाल करने और इसके जरिए खेती को बेहतर करने की जरूरत है। 

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