दो दशक में छह बड़े औद्योगिक क्षेत्रों को रेटिंग देने के बाद अब सीएसई और ग्रीन रेटिंग प्रोजेक्ट ने उर्वरक बनाने वाले उद्योगों का आकलन किया है और उन्हें ग्रीन रेटिंग दी है। रसायनिक उद्योग ने भारत में खाद्यान्न उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साल 1951 में देश में खाद्यान्न उत्पादन 5.2 करोड़ टन था, जो 2017-18 में बढ़ कर 27.7 करोड़ टन हो गया। साथ ही साथ, उवर्रकों की खपत में कई गुणा वृद्धि हुई। जहां पहले एक हेक्टेयर में 1 किलोग्राम उर्वरक इस्तेमाल होता था, वहीं अब 1 हेक्टेयर में 135 किलोग्राम उर्वरक इस्तेमाल हो रहा है।
यूरिया उर्वरक उद्योग का आधार है। 2016-17 में लगभग 4.1 करोड़ टन उर्वरक का उत्पादन हुआ था, इसमें 60 फीसदी हिस्सेदारी यूरिया की थी। साल 1980 में देश में जहां 60 लाख टन यूरिया की खपत हुई थी, 2017 में यह बढ़ कर 3 करोड़ टन हो गई। यूरिया उत्पादन में देशी कंपनियां प्रमुख निभा रही हैं। 2017 में देशी कंपनियों ने लगभग 2.4 करोड़ टन यूरिया का उत्पादन किया, बाकी यूरिया का आयात किया गया। यानी कि देशी उद्योग बड़ी मात्रा में यूरिया का उत्पादन करते हैं, सीएसई ने अपने अध्ययन में इन देशी उद्योगों को शामिल किया है। इनकी संख्या लगभग 23 है, जो अभी चालू हालत में हैं। इन्हें छह श्रेणियों में बांटा गया और इनके लिए 54 इंडिकेटर्स तय किए गए।
कंपनियों से खुद ही इस अध्ययन में शामिल होने की अपील की गई, लेकिन जो कंपनी इसमें शामिल नहीं हुई, उन्हें स्थानीय लोगों, मीडिया, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और सीएसई की टीम द्वारा एकत्र गई सूचना के आधार पर रेटिंग दी गई। यूरिया उत्पादन की प्रक्रिया में ऊर्जा की बहुत जरूरत पड़ती है और कुल उत्पादन लागत में 70-80 फीसदी खर्च ऊर्जा की खपत पर होता है। इसलिए इस सेक्टर में ऊर्जा खपत और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को सबसे अधिक वेटेज (30 फीसदी) दिया गया। वायु और जल प्रदूषण और ठोस एवं खतरनाक कचरे के उत्पादन को दूसरे नंबर पर रखा गया। इसे 20 फीसदी वेटेज दी गई। इसके बाद पानी के इस्तेमाल में दक्षता को 15 फीसदी वेटेज दी गई।
पर्यावरण प्रबंधन सिस्टम, स्वास्थ्य एवं संरक्षा, उद्योगों में लंबे समय तक चलने वाले संयंत्रों का उपयोग जैसे उपायों को 17 फीसदी वेटेज दी गई। प्लांट के कामकाज पर रखने वाले स्थानीय लोगों की भूमिका को भी इस अध्ययन में जगह दी गई और उन्हें 10 फीसदी वेटेज दी गई। इसके अलावा प्लांट द्वारा पर्यावरण संबंधी आंकड़ों की जानकारी लोगों को देने पर पारदर्शिता के लिए 8 फीसदी वेटेज दी गई।
सेक्टर ने पर्यावरण प्रबंधन प्रणाली को अपनाने में तत्परता दिखाई। यूरिया उद्योग ने प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल बढ़ाया और इस समय देश में लगभग 30 फीसदी प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल यूरिया उद्योग द्वारा किया जा रहा है। जो तेल (नाफ्था) के मुकाबले स्वच्छ ईंधन है। हालांकि अभी भी तीन ऐसे प्लांट हैं, जहां तेल का इस्तेमाल किया जा रहा है। सेक्टर को ऊर्जा इस्तेमाल और गीन गैस उत्सर्जन के मामले में 43 फीसदी अंक दिए गए। यूरिया उत्पादन में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन काफी कम है। हालांकि खेतों में उर्वरकों के छिड़काव के वक्त कार्बन डाई ऑक्साइड का बड़ी मात्रा में उत्सर्जन होता है। लेकिन इसे रेटिंग में शामिल नहीं किया गया।
अध्ययन में पाया गया गया कि यूरिया उत्पादन करने वाले प्लांट्स में हर साल लगभग 191 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी का इस्तेमाल होता है। सीएसई ने सेक्टर को पानी के इस्तेमाल में दक्षता को लेकर 40 फीसदी अंक दिए हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि 26 फीसदी प्लांट्स में भूजल का बहुत अधिक इस्तेमाल हो रहा है। इनमें से चार प्लांट उत्तर प्रदेश में हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा उर्वरक उद्योगों को प्रदूषण के मामले में रेड श्रेणी में रखा गया है। इन उद्योगों से निकलने वाली पानी कापी प्रदूषित होता है। कई प्लांट्स में जल शोधन संयंत्र (डब्ल्यूटीपी) नहीं लगे हैं। 14 प्लांट्स से लिए गए सेंपल में से 57 फीसदी सेंपल पर्यावरण मंत्रालय द्वारा मानकों के अनुरूप नहीं पाए गए।
18 प्लांट्स से लिए गए भूजल के सेंपल में 83 फीसदी में अमोनिया नाइट्रोजन तत्व मानक से 187 फीसदी अधिक पाए गए। चूंकि यूरिया प्लांट से निकलने वाले पानी का इस्तेमाल बागवानी में किया जा रहा है, इसलिए इससे भूजल भी प्रदूषित होने का खतरा बना हुआ है। वायु प्रदूषण का मुद्दा तेल से चलने वाले यूरिया प्लांट्स में अधिक देखा गया। सीपीएसबी नियमों के मुताबिक सभी यूरिया प्रीलिंग टावर में सीईएमएस लगाना अनिवार्य हे, लेकिन संबंधित टेक्नोलॉजी के न होने के कारण ज्यादातर यूरिया प्लांट्स में लगे सीईएमएस नहीं लगे हैं। यूरिया उद्योग हवा में कार्बन डाई आक्साइड, सल्फर, नाइट्रोजन ऑक्साइट और धूल कण (पीएम) भेज रहा है।
कई प्लांट्स में फ्लाई ऐश पॉन्ड भी काम नहीं कर रहा है। स्थानीय लोगों की भागीदारी को लेकर भी यूरिया उद्योग का प्रदर्शन अच्छा है। कई प्लांट्स में अमोनिया की बदबू आने की शिकायतें मिलती रहती हैं, लेकिन कंपनियों की ओर से स्थानीय लोगों को अमोनिया लीकेज जैसी स्थिति में बचाव के तरीके तक नहीं बताए गए हैं। स्थानीय लोगों ने भूजल दोहन और प्लांट से निकलने वाले प्रदूषित पानी के फैले होने की शिकायत की।
सरकारी क्षेत्र की कंपनी एनएफएल द्वारा चार और कॉ-ओपरेटिव संस्थान इफको द्वारा तीन प्लांट चलाए जा रहे हैं, जो कुल खपत का क्रमश 16 एवं 18 फीसदी उत्पादन करते हैं। इन दोनों संस्थानों ने काफी निराश किया। सीएसई टीम ने इनके प्रबंधन से बार-बार अध्ययम में सहयोग करने की अपील की, लेकिन कोई सहयोग नहीं मिला। इसलिए बाहर से मिली सूचनाओं के आधार पर इनको रेटिंग दी गई। एनएफएल के भटिंडा, नांगल और पानीपत प्लांट का प्रदर्शन काफी खराब रहा। पानी के इस्तेमाल की दक्षता को लेकर भटिंडा और पानीपत प्लांट ‘केवल एक लीफ’ रेटिंग दी गई, जबकि नांगल को एक भी ‘लीफ’ नहीं मिली। ये प्लांट एनर्जी एफिशिएंसी के मामले में काफी खराब प्रदर्शन कर रहे थे।