क्या जरूरतमंदों तक पहुंच पाएगा बिहार में चुनावी साल में बंटने वाला फसल क्षति मुआवजा?

मार्च के दौरान भारी बारिश और ओलावृष्टि से किसानों को काफी नुकसान हुआ है। सरकार का दावा है कि किसानों को इसका मुआवजा दिया जाएगा
Photo: IStock
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मार्च महीने में बिहार में हुई असमय बारिश और ओलावृष्टि से खड़ी फसल को हुए नुकसान की भरपाई के लिए सरकार ने इनपुट अनुदान देने का फैसला किया है। राज्य में 4-6 मार्च को 11 जिलों में ओलावृष्टि हुई थी और फिर 13-15 मार्च के बीच बारिश हुई। इस दौरान गेहूं, मक्का, सरसों, दहलन और दूसरी फसलों को काफी नुकसान हुआ। 4-6 मार्च के बीच हुई बारिश से नुकसान का सरकार ने आकलन भी करवा लिया है, अनुदान के लिए ऑनलाइन आवेदन भी मांगे जा रहे हैं। चुनावी साल में बिहार सरकार फसल क्षति अनुदान देने के लिए तत्पर भी नजर आ रही है, मगर क्या इससे वाकई किसानों के नुकसान की भरपाई हो पाएगी, यह बड़ा सवाल है।

चार से छह मार्च के बीच हुई बारिश और ओलावृष्टि की वजह से राज्य के 11 जिलों औरंगाबाद, भागलपुर, बक्सर, गया, जहानाबाद, कैमूर, समस्तीपुर, पूर्वी चंपारण, पटना, वैशाली और मुजफ्फरपुर के किसानों को नुकसान हुआ था। इसका आकलन करा लिया गया है, कुल 31,949 हेक्टेयर में खड़ी फसल बर्बाद हुई है। दूसरे चरण में 13-15 मार्च के बीच हुई बारिश से क्षति का आकलन चल रहा है।

इस बीच राज्य सरकार के कृषि विभाग की वेबसाइट पर 1,32,645 किसानों ने इस अनुदान के लिए आवेदन किया है। राज्य सरकार के आदेश के मुताबिक 23 मार्च तक ऑनलाइन आवेदन स्वीकार किये जाएंगे। मगर सवाल यह है कि क्या इन उपायों से वाकई बिहार में किसानों की क्षतिपूर्ति हो पायेगी।

पटना जिले के मोकामा टाल इलाके में इस साल किसानों की दलहन की फसल बड़े पैमाने पर तबाह हुई है। वहां के किसान प्रणव शेखर शाही कहते हैं कि नियमानुसार किसानों को सिर्फ दो हेक्टेयर का अधिकतम मुआवजा दिया जाना है, वह भी असिंचित जमीन के लिए 6800 रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से और सिंचित जमीन के लिए 13,500 रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से। सिंचित जमीन के लिए आवेदन लिया जाना बंद हो चुका है। अब हमें अपनी पूरी फसल के लिए अधिकतम 13,600 रुपये का मुआवजा ही मिलेगा। जबकि आज के समय में लागत काफी अधिक हो गया है। इसमें भी ज्यादातर किसानों को कुछ राशि कृषि सलाहकार और फील्ड कोऑर्डिनेटर को चढ़ावे के रूप में देना पड़ेगा।

दरअसल, बिहार में मुआवजे के लिए आवदेन की फील्ड जांच और जिओ टैगिंग की व्यवस्था इन्हीं दोनों ग्रामीण स्तर के कर्मचारियों के जिम्मे है। इनका काम हर किसान की जमीन पर जाकर बर्बाद फसल के साथ उसकी तस्वीर लेना और उसका जिओ टैगिंग करना है। इसके बाद ही मुआवजा स्वीकृत होता है। प्रणव शेखर कहते हैं कि अमूमन ये लोग खेतों तक नहीं जाते, किसान को ही खुद तसवीर लेकर इन्हें उपलब्ध कराना पड़ता है। कई बार कुछ किसान फोटोशॉप का इस्तेमाल करके नकली तसवीर भी बनवा लेते हैं, क्योंकि सरकारी नियमों के मुताबिक जैसी तसवीर चाहिए वह वे दे नहीं पाते। इस चक्कर में इन कर्मियों को चढ़ावा देना एक बाध्यता बन जाती है।

सीतामढ़ी के किसान नेता नागेंद्र प्रसाद सिंह कहते हैं कि सबसे अधिक दिक्कत बटाइदारों और लीज पर जमीन लेकर खेती करने वालों को होती है। अमूमन भू-स्वामी फसल मुआवजा खुद लेने की कोशिश करता है। अगर बटाइदार किसी तरह मुआवजा हासिल कर भी लेता है तो वह उसके खर्च के मुकाबले काफी कम होता है, क्योंकि उसे खेती के खर्च के साथ-साथ जमीन मालिक के लीज की रकम भी चुकानी पड़ती है।

नागेंद्र प्रसाद फसल क्षति के आकलन की प्रक्रिया पर भी सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि सरकार अपने तरीके से तय कर देती है कि इतने जिले में इतनी जमीन पर खड़ी फसल तबाह हुई है। अब जिन किसानों की पहुंच सरकारी व्यवस्था में होती है, वह अधिकारियों से साठ-गांठ करके मुआवजे का लाभ ले लेते हैं। बाकी किसान ठगे रह जाते हैं। जब तक यह प्रक्रिया और अधिक पारदर्शी नहीं होती, असली औऱ जरूरत मंद किसानों को क्षतिपूर्ति का लाभ नहीं मिलेगा। पूर्णिया जिले के प्रगतिशील किसान शंभु कुमार सिंह खेतों में सपनों की समाधि बन गयी है, मगर हर किसान को लाभ मिलेगा यह कहना मुश्किल है। कुछ को मिलेगा, कुछ को नहीं। हां, आंसू हर किसी के हिस्से बराबर आये हैं।

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