बहुसंख्यक ग्रामीण भारत इस सत्य को मानता है कि "कृषि, भारतीय अर्थतंत्र की रीढ़ है"। वास्तव में पुराने पाठ्यपुस्तकों में भी कृषि को भारतीय अर्थतंत्र की रीढ़ के रूप में मान्यता दी गयी थी। लेकिन भारतीय (राज) नीति के आधुनिकीकरण और शिक्षा के अतिआधुनिकीकरण ने इस रीढ़ को राजतंत्र से निकाल बाहर कर दिया है। वह महज संयोग नहीं था कि उदारीकरण के उदय के साथ-साथ तत्कालीन भारत सरकार के योजना भवन में अक्सर गंभीर बहसें होती थी कि- आखिर कैसे कृषि तंत्र से (तथाकथित अनुपयोगी) श्रमशक्ति को बाहर निकालकर उनका उद्धार किया जाये। योजना आयोग की अनेक रिपोर्टों में इन तर्कों और तथ्यों के आधार पर बनाये गये लालबुझक्कड़ी योजनाओं की अधूरी कहानियों, और उन कहानियों के नायकों-खलनायकों में- इसके इतिहास, वर्तमान और भविष्य को देखा-पढ़ा जा सकता है।
एक के बाद एक अनगिनत रिपोर्टें आयीं, शोध हुये, वार्तायें आयोजित की गयी, समितियों का गठन हुआ जिसका समग्र परिणाम ये रहा कि सकल घरेलू उत्पाद (अर्थात जीडीपी) में भारतीय कृषि का योगदान, गर्त में गिरता चला गया। केवल यही नहीं, दिशाहीन कायदे-कानूनों के चलते लाखों किसानों को भूमिहीन बना दिया गया। दुर्भाग्य से यह उस महात्मा गांधी जी के भारत में हुआ, जो मानते और कहते थे स्वाधीनता के बाद हमारा ध्येय 'भूमिहीनों को किसान' बनाने का होना चाहिये।
इसके साथ-साथ भारतीय कृषि के इतिहास का सबसे काला अध्याय शुरू हुआ जब 'अनिश्चितताओं, असुरक्षाओं और आपदाओं' की त्रासदी से त्रस्त हजारों अन्नदाताओं ने हिम्मत हारकर अपनी जान दे दी। आश्चर्य है खेती-किसानी के लिये मानसून को अनिश्चितता का जुआ मानने वाला, तमाम जोखिमों के बाद भी कृषि-तंत्र में मानवीय दायित्वों का वहन करने वाला, अपनी विपन्नता को लादकर भी देश को संपन्न करने वाला भारतीय अर्थतंत्र का स्थापित योद्धा, आखिर आत्महत्या के लिये क्यों प्रेरित हुआ? क्या उन कारणों और लोगों की निष्पक्ष पड़ताल नहीं होना चाहिये, जिन्होंने हजारों किसानों को आत्महत्या के कगार पर धकेल दिया? आखिर क्यों लाखों किसानों को खेती से बाहर धकियाते हुये उन्हें शहरों का सस्ता मजदूर बना दिया गया ? क्या समाज और सरकार दोनों ही किसानों के अधिकारों के अवमानना के दोषी नहीं हैं? ऐसे अनेक अनुत्तरित सवालों का जवाब, तलाशे और तराशे बिना भारतीय कृषि के परमार्थ के प्रयास न केवल अधूरे रहेंगे, बल्कि पूरे कृषि तंत्र को ही पतन की ओर धकेल देंगे। सकल घरेलू उत्पाद (अर्थात जीडीपी) में कृषि के योगदान का लगातार घटता अनुपात, इस त्रासदी का केवल एक अधूरा अक्स है।
भारतीय प्रशासनिक/अर्थ - व्यवस्था के हकीमों को यह जानना ही चाहिये कि वर्ष 1970 में कृषि का सकल घरेलू उत्पाद लगभग 25 बिलियन डॉलर था, जिसमें विगत पांच दशकों के दौरान मेहनतकश किसानों के अथक प्रयासों के चलते उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। भारत सरकार (जुलाई 2020) के अनुसार आज कृषि का सकल घरेलू उत्पाद अनुमानतः 4546 बिलियन रुपए (अर्थात 619 बिलियन डॉलर) हो चुका है। अर्थात केवल 50 बरस के दौरान कृषि के सकल घरेलू उत्पाद में बेहद सकारात्मक 24 गुना से अधिक की वृद्धि हुई है। सरकार यदि इस विकास और वृद्धि का श्रेय लेना चाहती है तो उसे इस बात का उत्तर पहले देना चाहिये कि वर्ष 1970 से 2020 के मध्य, कृषि के लिये निर्धारित बजट में आखिर कब-कैसे-क्यों और कितने गुना की वृद्धि हुई है?
आज महामारी के दौर में जब विकास की मीनारों के नीचे की ज़मीन खिसक रही हैं तब केवल और केवल किसान-मज़दूर ही हैं जो अपने ज़मीन और ज़मीर की ओर पूरी हिम्मत के साथ लौट रहे हैं। भारत सरकार द्वारा जारी रिपोर्ट (सितम्बर 2020) के अनुसार औद्योगिक विकास, करोड़ों रुपयों की ज्ञात-अज्ञात राजकीय सहायता के बावज़ूद 38 फ़ीसदी के ऋणात्मक विकास पर पूरी रफ़्तार के साथ उलटी राह चल पड़ा है। करोड़ों बेरोज़गारों को पालने का कागज़ी दावा करने वाला सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) 20 फ़ीसदी ऋणात्मक विकास दर के साथ अब तक के सबसे बड़े ढलान पर बेबस औंधा पड़ा है। समाज और सरकार को आज गर्व होना ही चाहिये कि हज़ारों किसानों के असामयिक अंत के दुःख के बावज़ूद भी किसान ही हैं जो देश की उम्मीदों का ध्वजवाहक बना हुआ है।
सैद्धांतिक तौर पर यह सही है कि वर्ष 2024 तक (अर्थात अब से मात्र 3-4 वर्ष के भीतर) किसानों की आय दोगुनी होनी ही चाहिये लेकिन अभी तय होना बाकी है कि यह किसान तय करेगा अथवा सरकार ? सरकार जो कुछ कर सकती थी/है, वह सब तो केवल किसानों की आत्महत्या की जिंदा कहानियों और उनके बेमौत त्रासदी के सापेक्ष हुये राजनैतिक और नैतिक प्रायश्चितों के बानगी देखा-समझा जा सकता है। आज महामारी के दौर में भी कृषि क्षेत्र में विकास दर 3.4 फ़ीसदी रहने का अर्थ समझने के लिये समाज और सरकारों को योजनाओं की आत्मकेंद्रित राजनीति के दौर से बाहर आना चाहिये। किसानों को अपनी आय दुगुनी करने के लिये योजनाओं का मानसून नहीं बल्कि अधिकारों की ठोस ज़मीन चाहिये। अच्छा होता यदि आय दुगुनी करने के राजनैतिक अवसरों के बजाये किसानों को उनके नैतिक अधिकार दिये जाते।
गर्व होना चाहिये कि आज भारत का किसान अनुदानों की भीख नहीं बल्कि आत्मसम्मान के मूल्यों के लिये संघर्ष कर रहा है। यह परिस्थितियाँ, संपन्न उत्तरी देशों के उन नीतियों से बिलकुल अलग है जहाँ स्वयं सरकारें, किसानों के ख़ातिर रंग-बिरंगे अनुदानों के पक्ष में खड़ी हैं। भारतीय किसानों की तो अभी, लागत मूल्य के अधिकार की पहली मैदानी लड़ाई भी खत्म नहीं हुई है। ऐसे में किसानों के लिये घोषित, अंतहीन योजनाओं की कोई भी राजनैतिक परियोजना अब तक तो आधा-अधूरा प्रयोग ही साबित होता आया है। इसीलिये महामारी के दौर में किसानों के लिये घोषित विभिन्न योजनाओं में अवसर और उनके असर भी सीमित ही हैं/होंगे। दुर्भाग्य है कि आजादी के सात दशकों के बाद भी इस देश के नीति-नियंता, राजनैतिक योजनाओं के चौसर में अंतहीन बाजी खेल रहे हैं। यथार्थ तो यह है कि इस देश का बहुसंख्यक किसान, योजनायें के अवसर नहीं, बल्कि अपने नैतिक - राजनैतिक अधिकार चाहता है। योजनाएं तो केवल एक पात्रता का आधा-अधूरा अवसर है - इस सत्य को समझने और स्वीकारने में अब तक लगभग हरेक सरकारों की समग्र विफलतायें ही भारतीय कृषि और कृषकों की सबसे बड़ी त्रासदी बन चुकी है।
बरसों पहले, भारत देश / देह से कृषि की रीढ़ को निकालने वाले अनगिनत नीति-निर्माताओं, योग्य-राजनेताओं, नीमहकीम-विशेषज्ञों और बुद्धिजीवी-प्रशासकों के सामने ही नहीं, उस स्वकेंद्रित उपभोक्ता- समाज के समक्ष भी आज, किसानों के परमार्थ के रास्ते सीमित ही हैं। यदि सब चाहें तो अवसाद के कगार पर खड़े लाखों करोड़ों अन्नदाताओं को उनके अपने सपने और अधिकारों की नई इबारतें स्वयं गढ़ने की स्वाधीनता दे सकते हैं जिसका अर्थ होगा कि हम रीढ़ को पुनः सम्मानपूर्वक, देश/देह में स्थापित कर सकेंगे। किंतु यदि ऐसा नहीं होता तो भारतीय कृषि को तबाह करने वाला एक ऐसा नया तंत्र उठ खड़ा होगा जिसमें अन्नदाताओं को अपना अंतिम चुनाव करने से कदाचित कोई नहीं रोक सकेगा। भारतीय कृषि का इतिहास और भारतीय कृषकों का भविष्य, आज इसी दोराहे पर मौन खड़ा है।
(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)