कोविड-19: क्या पहाड़ लौट रहे लोगों को रोक पाएगी चकबंदी?

21 मई को उत्तराखंड पर्वतीय जोत चकबंदी एवं भूमि व्यवस्था नियमावली 2020 को मंत्रिमंडल ने मंजूरी दे दी है
फोटो: विकास चौधरी
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कोरोना की मुश्किल के चलते उत्तराखंड में करीब डेढ़ लाख लोग अपने गांव लौट चुके हैं। हर रोज बड़ी संख्या में बसों-ट्रेनों के ज़रिये प्रवासी पहुंच रहे हैं। अनुमान है कि 3 लाख से अधिक लोग अपने गांव लौट सकते हैं। राज्य सरकार के सामने बड़ी चुनौती इनके रोज़गार की व्यवस्था करना है। जिन खेतों और उससे जुड़ी समस्याओं को छोड़कर लोग शहरों में मामूली वेतन की नौकरियों के लिए पलायन कर गए थे, वापस लौट रहे लोगों को उनके खेतों से कैसे जोड़ा जाए। इसी कड़ी में राज्य सरकार ने एक जरूरी फ़ैसला लिया है। उत्तराखंड पर्वतीय जोत चकबंदी एवं भूमि व्यवस्था नियमावली 2020 को मंत्रिमंडल ने 21 मई को मंजूरी दे दी है। अनिवार्य चकबंदी की दिशा में एक कदम आगे बढ़ा है।

राज्य में चकबंदी से जुड़ा विधेयक वर्ष 2016 में पास हो गया था। लेकिन नियमावली नहीं होने की वजह से एक्ट प्रभावी नहीं हो सका। राज्य के शासकीय प्रवक्ता मदन कौशिक ने बताया कि नियमावली में चकबंदी से जुड़ी प्रक्रिया तय कर दी गई है।

उत्तराखंड राजस्व परिषद के सचिव और आयुक्त बाल मयंक मिश्रा ने बताया कि अभी हरिद्वार और उधमसिंह नगर में चकबंदी चल रही है। हालांकि पहाड़ी क्षेत्रों में चकबंदी अलग है। प्रयोग के तौर पर  पौड़ी और उत्तरकाशी के पांच गांवों में चकबंदी की जा रही है। यहां चकबंदी के लिए एक बड़ी मुश्किल गोलखातों और भूमि के बंदोबस्त से भी जुड़ी है। राज्य में बहुत सी ऐसी ज़मीने हैं, सरकारी दस्तावेज़ों में जिन पर लोगों के दादा-परदादा के नाम दर्ज हैं, वारिसों के नाम नहीं हैं। ऐसे भी लोग हैं जो दो पीढ़ी पहले अपनी ज़मीन छोड़कर जा चुके हैं। इसके लिए चकबंदी समिति गांव के लोगों के साथ बैठक करेगी। भूमि बंदोबस्त होने के बाद गांव के नए नक्शे तैयार होंगे। उनके मुताबिक चकबंदी लागू करने में कम से कम दो साल का समय लगेगा। संभव है फिर पर्वतीय क्षेत्रों में ज़मीन के दाम भी बढ़ें।

पौड़ी के कल्जीखाल ब्लॉक के सूला गांव के किसान गणेश गरीब 84 वर्ष के हो चुके हैं। पर्वतीय क्षेत्र में चकबंदी के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं। वह कहते हैं कि राज्य बनने के बाद बनी सभी सरकारों ने चकबंदी के लिए समिति बनायी, वे उन सभी समितियों में शामिल रहे, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति न होने की वजह से, चकबंदी नहीं हो सकी। अब कोरोना के चलते वापस लौटे लोगों के सामने रोजगार का संकट है, तब जाकर सरकार ने ये जरूरी कदम उठाया। प्रदेश में आठ लाख तो पहले से पंजीकृत बेरोज़गार हैं।

गणेश गरीब ने अपने गांव के लोगों को भी स्वैच्छिक चकबंदी के लिए प्रेरित किया। गांव के 10-12 लोगों ने आपसी सहमति से आंशिक चकबंदी की। जिससे खेतों का उत्पादन बढ़ा। खेतों के पास ही लोगों ने अपने मकान बना लिये। वह कहते हैं कि इसका नतीजा ये हुआ कि उनके गांव से पलायन नहीं हुआ। उनका गांव देखने बहुत से नेता-जन प्रतिनिधि आते रहते हैं।

पर्वतीय खेती के सामने सबसे बड़ी चुनौती बिखरे हुई जोत की है। गणेश गरीब कहते हैं कि पानी होते हुए भी किसान अपने खेतों में सिंचाई नहीं कर सकता था। एक खेत से दूसरे खेत की दूरी 4-5 किलोमीटर है। तो वह कहां-कहां सिंचाई कर पाता। किसान का घर कहीं है, ज़मीन कहीं। इसलिए भी खेत बंजर होते गए और खेती से परिवार का गुजारा मुश्किल हो गया। इसीलिए सरकार की योजनाएं, सिंचाई-बागवानी का बजट भी किसानों के काम नहीं आता। गणेश जी के मुताबिक पर्वतीय खेती को बचाने का सिर्फ एक ही उपाय है, चकबंदी।

राज्य के कृषि मंत्री सुबोध उनियाल कहते हैं कि पहाड़ों में लोगों को चकबंदी का मतलब नहीं पता। वे सोचते हैं कि इससे खराब ज़मीन के बदले उपजाऊ ज़मीन मिल जाएगी। गणेश गरीब कहते हैं कि आप लोगों को कोरोना के बारे में इतना जागरुक कर रहे हैं। क्या चकबंदी के बारे में जागरुक नहीं कर सकते थे। लोगों को ये समझाना किसका काम है।

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