भारत दाल-चावल, दाल-रोटी खाकर गुजर-बसर करने वाला देश रहा है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से आम आदमी की थाली से दालें गायब हो रही हैं। वजह, दालों का उत्पादन-रकबा आबादी के अनुपात में नहीं बढ़ा है और कीमतें बढ़ने से दालें गरीबों के बजट से बाहर हो रही हैं। वहीं दूसरी ओर कम उपज, लाभकारी मूल्य न मिलना, जलवायु के उतार-चढ़ाव के प्रति अधिक संवेदनशीलता के कारण पोषण का खजाना और पर्यावरण हितैषी इस फसल से किसानों का मोहभंग हो चला है। बहुत से किसानों ने दलहन की जगह गेहूं, धान या सोयाबीन जैसी फसलों से नाता जोड़ लिया है। यह स्थिति क्यों आई और भारतीय कृषि पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? आखिर क्यों दालों के सबसे बड़े उत्पादक और उपभोक्ता देश की आयात पर निर्भरता बढ़ रही है? दालों की कम उपलब्धता स्वास्थ्य को किस प्रकार प्रभावित करेगी और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? डाउन टू अर्थ ने इन तमाम प्रश्नों के उत्तर तलाशती एक रिपोर्ट तैयार की। पहली कड़ी आप पढ़ चुके हैं। दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा कि किसान सोयाबीन की फसल को तरजीह दे रहे हैं । इससे आगे की कड़ी में आपने पढ़ा, गेहूं चावल की तरह मुफ्त में क्यों नहीं मिल रही दाल । पढ़ें अगली कड़ी -
भारत में दालों की खपत लगभग 2.6 करोड़ टन तक पहुंच चुकी है और एक अनुमान के मुताबिक 2050 तक यह खपत 3.9 करोड़ टन तक पहुंच जाएगी। दालों की बढ़ती मांग की वजह से कॉरपोरेट समूह भी दालों के कारोबार में दखल बढ़ाने लगे हैं। खासकर तब जब भारत में ऑनलाइन रिटेल मार्केटिंग का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। अब तक दालों को उपभोक्ताओं तक पहुंचने के लिए कई चैनलों से होकर गुजरना पड़ता है। जैसे कि एक किसान से गांव का व्यापारी दलहन की फसल खरीदता है और दाल मिल वाले यह फसल उस व्यापारी से खरीदते हैं। प्रोसेसिंग के बाद दाल मिल से थोक व्यापारी दाल खरीदता है और फुटकर व्यापारी तक पहुंचाता है। फुटकर व्यापारी यानी दुकानदार से आम उपभोक्ता दालें खरीदते हैं। इस लंबी चेन को लेकर कई बार सवाल उठते रहे हैं। इन सवालों का फायदा उठाते हुए कॉरपोरेट समूह सीधे किसानों से लेकर उपभोक्ताओं तक पहुंचाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। इसे “फार्म टु फॉर्क” नाम दिया गया है यानी सीधे खेत से खाने की प्लेट तक।
देश के तीनों बड़े कॉरपोरेट समूह टाटा, अंबानी और अडानी दालों के कारोबार में उतर चुके हैं। मुकेश अंबानी के नेतृत्व वाले रिलायंस ग्रुप की कंपनी रिलायंस होम प्रोडक्ट्स ने 2009 में गुड लाइफ नाम से ब्रांड की शुरुआत की थी। इसके अलावा टाटा समूह की कंपनी टाटा केमिकल्स ने 2010 में ब्रांडेड दाल का कारोबार शुरू किया था। अडानी समूह की कंपनी अडानी-विलमर लिमिटेड ने 2012 में दालों के कारोबार में कदम रखा था। अडानी विलमर, फॉर्च्यून नाम के ब्रांड से देश के खाद्य बाजार में बड़ा दखल रखता है। इसके अलावा बिग बाजार, आईटीसी, राजधानी जैसी कंपनियों की ब्रांडेड दालें सभी प्रमुख बाजार, मॉल्स और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है।
टाटा केमिकल्स की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में जब अंग्रेजों ने मिलिंग की परंपरा शुरू की थी, तब से ही भारतीय उपभोक्ताओं को पॉलिश की हुई दालें खरीदने की आदत हो गई है। पॉलिश की हुई दालों को भूसी निकालने के लिए मिलों में पानी या तेल में धोया जाता है, जिससे वे आवश्यक प्रोटीन से वंचित हो जाती हैं। लेकिन टाटा केमिकल्स द्वारा जो दालें बेची जा रही हैं, उन्हें पॉलिश नहीं किया जाता, जिस वजह से उनमें प्रोटीन की मात्रा अधिक है। टाटा के इस दावे के बाद बाजार में कुछ और कंपनियां भी बाजार में बिना पॉलिश वाली दालें बेचने का दावा करने लगी हैं।
कॉरपोरेट समूह न केवल बड़ी मात्रा में फसलें खरीदकर उन्हें रखने के लिए बड़े-बड़े गोदाम बना रहे हैं, बल्कि कुछ समूह दालों की प्रोसेसिंग यूनिट तक लगा रहे हैं। प्रोसेसिंग के बाद दालें सीधे रिटेल मार्केट में पहुंचा दी जाएगी। ऑल इंडिया दाल मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश अग्रवाल कहते हैं कि बड़े समूहों के आने के बाद छोटे दाल मिल मालिकों के कारोबार पर असर पड़ रहा है, क्योंकि बड़े समूहों की क्षमता अधिक है और बड़ी मात्रा में न केवल फसल खरीदते हैं, बल्कि उसे स्टोर भी करते हैं और समय आने पर बाजार में पहुंचा देते हैं। बड़ी कंपनियों की प्रोसेसिंग यूनिट में उच्च स्तरीय तकनीकों का इस्तेमाल होता है, जहां जल्द ही दाल की प्रोसेसिंग हो जाती है। अग्रवाल कहते हैं कि सरकारों को इन बड़ी कंपनियों से मुकाबला करने के लिए छोटे मिल मालिकों की मदद करनी चाहिए। एक दाल व्यापारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि आने वाले समय में जब बड़े कॉरपोरेट समूह दाल के व्यापार पर पूरी तरह काबिज हो जाएंगे और नए कानून के मुताबिक स्टॉक की कोई लिमिट नहीं होगी तो क्या होगा? ये कॉरपोरेट समूह मनमानी कीमतों पर दालें ही नहीं, बल्कि हर तरह का खाने का सामान बेचेंगे।
अब भी रिटेल सेक्टर में बड़ी कंपनियों के आने के कारण ही दालों की कीमतों पर लगाम लगाने के सरकार के प्रयास सफल नहीं हो रहे हैं। कमोडिटी ब्रोकरेज कंपनी जेवीएल एग्रो के निदेशक विवेक अग्रवाल बताते हैं कि इस सीजन में सरकार द्वारा दालों की निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम पर बाजार चल रहा था, लेकिन रिटेल बाजार में दालों की कीमतें बढ़ने लगी और जब मॉल्स में बढ़ी कीमतों की खबरें सरकार तक पहुंची तो सरकार ने दालों का आयात खोला। बावजूद इसके सरकार को लगा कि कीमतें बढ़ रही हैं, जबकि होलसेल बाजार में कीमतें नहीं बढ़ रही थी, बल्कि रिटेल बाजार में कीमतें कम नहीं हो रही थीं। तब सरकार को लगा कि होलसेल व्यापारियों ने दालें स्टॉक कर ली हैं। जब व्यापारियों ने सरकार को समझाया कि जो लिमिट लगाई गई है, वह पूरी तरह वाजिब नहीं है। आखिरकार ने स्टॉक लिमिट बढ़ा दी है।
दाल मिल एसोसिएशन के सुरेश अग्रवाल कहते हैं कि रिटेल सेक्टर की बड़ी कंपनियां जो रेट तय कर देती हैं, वो फिर कम नहीं होता। कंपनियां अपने ब्रांडेड पैकेट में दालें बेचती हैं और एक बार रेट प्रिंट होने के बाद कीमतें कम नहीं होती। जबकि खुले में दाल बेचने वाले व्यापारी समय और मांग के मुताबिक कीमतें कम भी कर लेते हैं। विवेक अग्रवाल भी कहते हैं कि ब्रांडेड दालों की कीमतें अधिक होती हैं और मीडिया में भी उन्हीं दालों की कीमतों को लेकर हंगामा होता है। अब जब भारतीय बाजार करवट ले रहा है और देश में ब्रांडेड सामान की मांग बढ़ रही है, तब यह बड़ा सवाल है कि क्या गरीब की थाली में दालों की मात्रा कम हो जाएगी और बढ़ती कीमतों का किसानों का लाभ मिलेगा?
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