यूरोप में कोरोना महामारी से बढ़ी हिमालय के इन लोगों की मुसीबतें

हिमालय में उगने वाली गुच्छी (मोर्चेला एस्कुलेंटा) मशरूम की सबसे अच्छी कीमत यूरोप के बाजार में मिलती है
हिमाचल के जंगल से गुच्ची बिनाता एक स्थानीय युवक। फोटो: रजत शर्मा
हिमाचल के जंगल से गुच्ची बिनाता एक स्थानीय युवक। फोटो: रजत शर्मा
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कोरोनावायरस का यूरोपीय देशों पर व्यापक असर हुआ है। 12 अप्रैल तक करीब 9 लाख कोरोना पॉजीटिव केस सामने आए हैं। 75 हजार लोगों की जान जा चुकी है। लेकिन यह तत्कालिक असर है। निकट भविष्य में आर्थिक दुश्वारियां आनी बाकी हैं। यूरोपीय अर्थव्यवस्था पर कोरोना के असर का आकलन अभी जारी है, लेकिन इस झटके की आहट हजारों मील दूर हिमालय के दूर-दराज गांवों तक महसूस की जाने लगी है।

दरअसल, हि भारतीय बाजार में 10-12 हजार रुपए प्रति किलो की कीमत वाली गुच्छी, यूरोप के मार्किट में पहुंचने तक 35 हजार तक की हो जाती है। पहाड़ी लोग जंगलों से गुच्छी चुनते हैं क्योंकि, इसकी खेती नहीं होती। इसलिए बेतहाशा मांग के बावजूद पार्याप्त आपूर्ति नहीं हो पाती। इससे गुच्छी बेचने वालों का ही फायदा होता है और कभी दाम गिरते नहीं हैं।

पहाड़ के लोगों ने लिए ये आमदनी का स्थायी जरिया है। हिमाचल के चंबा में 2 दशकों से जड़ी-बूटी का काम करने वाले यासीन बताते हैं, "आजकल हम लोग गुच्छी, फुलगूलर, पौड, रौंचड़ी वगैरह बेचते थे। गुच्छी तीन महीने की फसल है। अप्रैल, मई और जून। तीन महीने में ठीक-ठाक माल इकट्ठा हो जाता है। 10 हजार प्रति किलो तक रेट मिल जाता है। पर इस बार अमृतसर मंडी में पता किया, तो कहते 3-4 हजार ही रेट है।" 

करीब 2000 मीटर की ऊंचाई पर बसे चंबा जिले के भरमौर कस्बे में लोगों की आमदनी का बड़ा हिस्सा जड़ी-बूटियों से आता है। बर्फबारी के दौरान 4 महीने तक पूरी दुनिया से कट जाने वाले इन ठंडे इलाकों सबसे कीमती जड़ी-बूटियां मिलती हैं। कुछ जंगली, तो कुछ की खेती होती है। सुधीर यहां के मझौले, लेकिन प्रगतिशील किसान हैं, इसलिए आम फसलों की जगह जड़ी-बूटियां उगाते हैं।

वह बताते हैं- "हमारा इलाका ज्यादा ऊंचाई पर है, इसलिए गुच्छी कम होती है, लेकिन गुच्छी का दाम अच्छा मिल जाता है। नागछतरी, कुटकी, पतीश, सालम पंजा जैसी जड़ी-बूटियां हमारे इलाके में ज्यादा हैं। मैं इन्हें उगाता भी हूं। आज तक कभी नुकसान नहीं हुआ। कारोबार में घाटा हो भी, तो गुच्छी से ही पूरा होता जाता है, लेकिन अब इस लॉकडाउन से डरा हुआ हूं. खेत में मजदूरों को लगाया था। अगर एक महीना भी लॉकडाउन बढ़ा, तो बहुत नुकसान हो जाएगा। मुझे नहीं लगता कि इस बार गुच्छी का रेट 5 हजार भी मिलेगा!" 

हिमाचल में किसानों और बागवानों के लिए प्राकृतिक नुकसान की भरपाई के लिए कई योजनाएं हैं, लेकिन जड़ी-बूटियों के कारोबारियों और किसानों के लिए सीधे तौर पर कोई योजना नहीं है। 

किन्नौर, नारकंडा, रामपुर और सिरमौर के इलाकों में बीते 15 साल से काम कर रहे रविंदर वर्मा ने लॉकडाउन पर कहा, "लोग जंगल से माल ला रहे हैं। घरों में पड़ा है, लेकिन खरीदने को कोई तैयार नहीं। 20 से ज्यादा किसानों से मैं खरीदता हूं, लेकिन इन हालात में कैसे खरीद लूं? क्या पता कब तक लॉकडाउन चलेगा? और पैसा दिए बिना कितने दिन तक सामान अपने पास रखूंगा? बड़े ट्रेडर से बात करके लगा कि माल विदेशों में जाएगा नहीं, ऐसे में किसानों से महंगी गुच्छी खरीद ली तो फंस जाऊंगा."

रविंदर जैसे छोटे व्यापारी पहाड़ी जड़ी-बूटियां अमृतसर की मजीठ मंडी में बेचते हैं. यहां बिचौलियों के ज़रिए माल बड़े उद्योगों और एक्सपोर्टर्स  के पास जाता है। जगदीश कुमार ऐसे ही बिचौलिए हैं। गुच्छी के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया, "गुच्छी की डिमांड आती है यूरोप से, लेकिन कोरोना ने पूरे यूरोप को बर्बाद कर दिया। होटल बिजनेस और फार्मा कंपनियां गुच्छी का इस्तेमाल करती हैं। मुझे नहीं लगता कि दो साल पहले 18 हजार में बिकने वाली गुच्छी अब 4 हजार में भी बिकेगी। पहाड़ से मेरे पास फोन आ रहे हैं कि रेट बताइए? मैं कैसे ही बता दूं! मेरा धंधा बिल्कुल चौपट हो गया है. अप्रैल-मई-जून में जितनी सेल होती है, उतनी बचे 9 महीनों में नहीं होती। महीने-डेढ़ महीने में लॉकडाउन खत्म हो भी जाए तो दोबारा काम खड़ा होने में वक्त लगेगा। हम तो मान रहे हैं कि ये सीजन चौपट हो गया।"

लोकसभा में दिए सरकार के जवाब के मुताबिक, भारत से करीब 6 हजार करोड़ की जड़ी-बूटियां निर्यात होती हैं। अब आशंका है कि अगर कोरोना इसी तरह बढ़ता रहा, तो निर्यात में बड़ी कमी आएगी। यूरोपीय देशों को लगा कोरोना ये झटका चंबा के भरमौर तक महसूस किया जाएगा।

किसान से ज्यादा कमाते हैं बिचौलिए और एक्सपोर्ट्स

गांवों से गुच्छी की खरीद एजेंट करते हैं। एक एजेंट अमूमन 10-15 गांवों के किसानों को प्रति 1 किलो 8-10 हजार चुकाकर गुच्छी की खरीद करता है। इन एजेंटों से छोटे व्यापारियों का पक्का नाता होता है, जो इन्हें कमीशन देकर क्विंटल के हिसाब से सामान मंडी तक लाते हैं। यहां बिचौलियों को देते हैं। बिचौलियों का 2-4% कमीशन होता है। बिचौलिए के जरिए एक्सपोर्टर्स माल खरीदते हैं। मंडी पहुंचते-पहुंचते गुच्छी की कीमत 18 हजार तक हो जाती है।

बिचौलिए सुनिश्चित करते हैं कि एक्सपोर्टर को कभी माल की कमी न हो, इसलिए इसे मंडी का तयशुदा नियम ही मानें कि एक्सपोर्टर कभी सीधा व्यापारी से माल नहीं खरीदता। एक्सपोर्टर यूरोप तक गुच्छी की सप्लाई करते हैं। बेहतर पैकेजिंग, उत्पाद में कांट-छांट और उत्पाद को प्रोसेस करने की जिम्मेदारी एक्सपोर्टर की होती है। पूरी तरह से प्रोसेस हुई एक किलो गुच्छी की कीमत यूरोपीय बाजार में 35 हजार तक पहुंच जाती है। 

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