तीन दशक के शोध के बाद भारत में उगेगा रंगीन कपास

सिंधु घाटी सभ्यता में मुख्य तौर पर गहरा भूरा और भूरा से खाकी, सफेद और हरे रंग के कपास का इस्तेमाल किया जाता था
आने वाले दिनों में सफेद कपास की बजाय रंगीन कपास उगा करेंगी। फाइल फोटो: सलाहुद्दीन
आने वाले दिनों में सफेद कपास की बजाय रंगीन कपास उगा करेंगी। फाइल फोटो: सलाहुद्दीन
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अगर आप ये सोचते हैं कि प्राकृतिक कपास केवल सफेद रंग का होता है, तो ये खबर आपको आश्चर्य में डाल सकती है। भारत रंगीन कपास की व्यावसायिक खेती के लिए इसके बीजों की प्रजाति जारी करने से कुछ ही महीने दूर है। शोधकर्ता 16301डीबी और डीडीसीसी1 का फार्म ट्रायल कर रहे हैं। इन प्रजातियों से भूरे रंग के कपास का उत्पादन होगा।

इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) के कपास पर ऑल इंडिया को-ऑर्डिनेटेड रिसर्च प्रोजेक्ट (एआईसीआरपी-कॉटन), कोयम्बटूर का नेतृत्व कर रहे एएच प्रकाश कहते हैं, "इस साल 21 अप्रैल को आईसीएआर की कमेटी की वार्षिक बैठक होगी, जिसमें इस कपास की व्यवहार्यता का मूल्यांकन किया जाएगा और इसके बाद इसकी प्रजातियों को व्यावसायिक खेती के लिए जारी किया जाएगा।" दूसरे संस्थानों और कृषि विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर ये एजेंसी सुनिश्चित कर रही है कि इस कपास के उत्पादन में निरंतरता बनी रहे।

कपास की 16301डीबी प्रजाति को आईसीएआर की सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ कॉटन रिसर्च (सीआईसीआर), नागपुर ने विकसित किया है। दुनियाभर में सबसे ज्यादा उगाये जा रहे गोसोपियम हरसटम की पांच रंगीन कपास की प्रजातियों के मूल्यांकन के बाद इस कपास की प्रजाति विकसित की गई है।

वहीं, डीडीसीसी-1 प्रजाति को एग्रीकल्चरल साइंस यूनिवर्सिटी, धारवाड़ (कर्नाटक) ने विकसित किया है। भारत और अन्य उपोष्णकटिबंधीय देशों में पाई जानेवाली जी अरबोरियम प्रजाति के 6 रंगीन कपास के मूल्यांकन के बाद ये प्रजाति विकसित की गई है। प्रकाश ने कहा कि 15 अन्य रंगीन कपास की प्रजातियों को लेकर परीक्षण चल रहा है और इनके परिणाम अलग-अलग चरणों में हैं।

रंगीन कपास को दोबारा पुनर्जीवित करने में कामयाबी एआईसीआरपी की तीन दशकों की मेहनत का परिणाम है। भारत में 5000 साल पहले रंगीन कपास का इस्तेमाल होता था। विज्ञानियों का मानना है कि सिंधु घाटी सभ्यता में रंगीन कपास का इस्तेमाल किया जाता था। कृषि विज्ञान से जुड़ा वैदिक कालीन ग्रंथ वृक्ष आयुर्वेद में भी रंगीन कपास का जिक्र मिलता है। सिंधु घाटी सभ्यता में मुख्य तौर पर गहरा भूरा और भूरा से खाकी, सफेद और हरे रंग के कपास का इस्तेमाल किया जाता था।

अंग्रेजों के वक्त और आजादी से कुछ साल पहले तक तटीय आंध्रप्रदेश के बारिश वाले इलाकों में जी-अरबोरियम कपास की दो प्रजातियां कोकानाडा1 और कोकनाडा2 उगाई जाती थीं तथा भूरे रेशम को प्रीमियम उत्पाद के रूप में जापान निर्यात किया जाता था। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में असम में बादामी भूरा कपास और जी-हरबैसियम प्रजाति के हल्के धूसर कुमता कपास की खेती कर्नाटक में होती थी। यहां तक कि मशहूर ढाका मुस्लिन भी पारंपरिक तौर पर जी-अरबोरियम प्रजाति के कपास के रंगीन फाइबर और सफेद कपास को मिलाकर बनाया जाता है।

इसके विपरित, अभी हर तरफ मौजूद सफेद कपास की आमद भारत में महज 100 साल पहले हुई है। लेकिन, औद्योगिक क्रांति के कारण ये कपास ख्यात हो गया। आधुनिक कपड़ा फैक्टरियों को लंबा और मजबूत धागे की जरूरत थी, जो रंगीन कपास से नहीं मिल पाया। साथ ही रासायनिक रंगाई ने भी रंगीन कपास को अप्रासंगिक बना दिया।

अभी नेशनल जीन बैंक ऑफ कॉटन ने कपास की लगभग 6000 प्रजातियों के जर्मप्लाज्म को संरक्षित कर रखा है। यहां 50 से ज्यादा रंगों के कपास की प्रजातियां हैं, जिन्हें मैक्सिको, मिस्र, पेरू, इजराइल, पूर्ववर्ती यूएसएसआर और अमेरिका से स्वदेशीय तरीके से संग्रह किया गया है। लेकिन इनमें से केवल कुछेक प्रजातियों की ही खेती अभी की जाती है और वह भी मुठ्ठीभर जनजातीय समुदाय मध्य भारत के नर्मदा बेसिन में इसे उगाते हैं।

लंबा इंतजार

विज्ञानियों का कहना है कि रंगीन कपास के अस्तित्व को बचाने का एक ही उपाय है कि इसकी प्रजातियों के जीन समूहों को सुधार कर इतना मजबूत और लंबा किया जाए कि आधुनिक टेक्सटाइल मशीनों में इसका इस्तेमाल किया जा सके। लेकिन नयी अनुवंशिक प्रजाति तैयार करने में काफी वक्त लगता है और इसकी प्रक्रिया थकाऊ है।

एआईसीआरपी के अधीन खंडवा के बीएम कृषि कॉलेज के पौधा प्रजनक देवेंद्र श्रीवास्तव बताते हैं, पहले चरण में इच्छुक विशेषताओं वाले कपास की रंगीन और सफेद प्रजातियों का चुनाव किया जाता है। इसके बाद छोटे गमलों में इनका संकरण कराया जाता है। इससे नई प्रजातियां तैयार होती है, जिनमें अलग तरह की विशेषताएं होती हैं। इनमें से कुछ विशेषताएं वांछित होती हैं और कुछ नहीं।

वांछित विशेषताओं वाली प्रजातियों के साथ यही प्रक्रिया फिर दोहराई जाती है। इसी तरह सालों तक संकरण का दौर चलता है ताकि वो प्रजाति तैयार हो सके, जिसमें सभी तरह की विशेषताएं स्थाई हो। मतलब कि वांछित विशेषताओं वाली ऐसी प्रजाति विकसित हो जाये, जिसको अगली पीढ़ी को हस्तांतरित किया जा सके। 

इसका अगला चरण सामान्य तौर पर तीन वर्षों का होता है, जिसमें विज्ञानी स्थाई प्रजातियों की पैदावार, लंबाई, मजबूती और रंग की गुणवत्ता को बारीकी से जांच करते हैं। खेतों में परीक्षा इसका अंतिम चरण होता है, जिसमें कपास की इस विकसित प्रजाति को अलग-अलग जलवायु स्थिति वाले क्षेत्रों में स्थित खेतों के छोटे से हिस्से में उगाया जाता है ताकि वास्तविक दुनिया में इसके प्रदर्शन का मूल्यांकन किया जा सके।

पहला संतोषजनक रंगीन कपास केएस 94-2 था, जिसे साल 1996 में जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय खंडवा कैम्पस ने जारी किया था। बादामी भूरे रंग के कपास की प्रजाति कम उत्पादन के कारण फेल हो गई। साल 2000 में केंद्रीय कृषि मंत्रालय के कपास पर टेक्नोलॉजी मिशन के तहत कई तरह के रंगीन कपास की प्रजातियां तैयार की गईं। लेकिन किसी भी प्रजाति में वो मजबूती या लंबाई नहीं थी, जैसी कपड़ा उद्योग को चाहिए। साल 2013 में सीआईसीआर ने गहरे भूरे रंग के कपास की संकर प्रजाति एमएसएच 53 तैयार की। इसे जी हरसटम और जी बरबाडेंस के साथ दो जंगली प्रजातियों जी रैमोंडी और जी थर्बर प्रजातियों में क्रॉस ब्रीडिंग कराकर तैयार किया गया था। ऐसा संभवतः पहली बार हुआ था कि जंगली प्रजातियों के बीच क्रॉस ब्रीडिंग कराकर कपास की नई प्रजाति विकसित की गई थी। ये प्रजाति अभी तक प्रयोग के स्तर पर नहीं पहुंची है।

उद्योग के लिए तैयार

आधुनिक टेक्सटाइन उद्योग में वैसा कपास पसंद किया जा रहा है जिसके फाइबर की लम्बाई 25-29 एमएम हो। फिलहाल दो प्रजाति 16301डीबी व डीडीसीसी1 को व्यावसायिक तौर पर जारी करने के योग्य माना जा रहा है। इनके धागे की लंबाई 23-24 एमएम है, जो मीडियम कैटेगरी में आती है और हथकरघा उद्योग द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है। इन धागों की मजबूती 20-23 जी/टीईएक्स (प्रति 1000 मीटर में ग्राम के हिसाब से) है, जो टेक्सटाइल उद्योग के मानक के अधीन है। इसका उत्पादन भी अधिक होता है। एक हेक्टेयर में इस प्रजाति से 1200-1800 किलोग्राम कपास का उत्पादन होता है जबकि सफेद कपास का उत्पादन प्रति हेक्टेयर 466 किलोग्राम है।

हालांकि, इन प्रजातियों का सबसे अधिक फायदा ये है कि इससे पर्यावरण पर कम प्रभाव पड़ता है और इसके उत्पादन में खर्च भी कम होता है। भारत में कुल कृषि उत्पादन में जितने कीटनाशक का इस्तेमाल किया जाता है, उसका आधा हिस्सा केवल सामान्य सफेद कपास के उत्पादन में इस्तेमाल हो जाता है। इसकी तुलना में रंगीन कपास की प्रजातियां इस तरीके से तैयार की गई हैं कि वो कीड़े के हमले से बच जाती है और कम कीटनाशक की जरूरत पड़ती है।

इसके अलावा इन्हें रंगने की जरूरत या तो एकदम कम पड़ती है या बिल्कुल भी नहीं। रंगने में ज्यादा पानी और जहरीले रसायन की जरूरत पड़ती है। सबसे अहम बात कि प्राकृतिक तौर पर रंगीन कपास किसानों की अनुवंशिक रूप से संशोधित बीटी कॉटन पर निर्भरता कम करती है, जो (बीटी कपास) किसानों के लिए काफी खर्चीला साबित हुआ है और बड़े पैमाने पर कपास की खेती करने वाले देश पर इसका पर्यावरणीय प्रभाव भी पड़ता है। 

अब तक रंगीन कपास को जैविक होने के बावजूद बढ़िया कीमत नहीं मिलती है। कपड़ा उद्योग में भी इसके इस्तेमाल को लेकर दिलचस्पी नजर नहीं आती है। इस प्रजाति के कपास के धागे की लम्बाई और मजबूती तो मसला है ही, मार्केट यार्ड में रंगीन कपास को स्टॉक कर रखने या अलग से बेचने के लिए विशेष सुविधा भी नहीं मिलती है।

लेकिन, उपभोक्ताओं में पर्यावरण को लेकर बढ़ती जागरूकता को देखत हुए इसकी मांग बढ़ रही है। पिछले कुछ सालों में यूरोप के कुछ देशों में प्राकृतिक रूप से रंगीन कपास की मांग बढ़ी है और अनुमान है कि हर साल 5-6 लाख गांठ की सप्लाई हो रही है। बाजार में रंगीन कपास की बढ़ती मांग से लगता है कि इसका कारोबार वापस पटरी पर लौटेगा।

"इसमें कीड़े नहीं लगते, आग नहीं लगती और ऊन की तरह मुलायम है"

हैली फॉक्स अमेरिका की कपास प्रजनक (ब्रीडर) हैं, जिन्होंने रंगीन कपास की पहली प्रजाति विकसित की है। इस कपास को मशीन में डालकर धागा बुना जा सकता है। डाउन टू अर्थ ने हैली फॉक्स से बात की-

प्राकृतिक तौर पर रंगीन कपास को लेकर आपने कब शोध शुरू किया और आपको इसकी प्रेरणा कहां से मिली?

साल 1982 में मैं एक स्वतंत्र कपास प्रजनक के साथ काम कर रही थी। उन्होंने रंगीन कपास की प्रजाति को ग्रीनहाउस में रखा था क्योंकि इनमें बीमारियों और कीड़ों से लड़ने की प्रबल क्षमता होती है। मैंने एक रंगीन कपास देखा, तो मुझे उससे धागे बनाने की इच्छा हुई। लेकिन भूरे रंग के कपास का फाइबर इतना सख्त था कि उससे धागा बुना नहीं जा सकता था। मैंने उनसे पूछा कि हमने इन प्रजातियों से ऐसे कपास क्यों नहीं उगाये, जिससे बेहतर फाइबर निकलता। इसपर उन्होंने कहा कि इसका कोई बाजार नहीं है। मैंने कहा कि फाइबर में सुधार कर हम इसका बाजार क्यों नहीं तैयार करते? उस वक्त उनकी उम्र कोई 70 साल थी और मैं 20 साल की थी। हम दोनों हंस पड़े और मैंने अपना काम शुरू किया, जो अब भी जारी है।

क्या आपके शोध से पहले रंगीन कपास अमेरिका में खेती का हिस्सा था?

हां, दरअसल शीतयुद्ध से पहले मूल रूप से अफ्रीकी गुलाम इसकी खेती करते थे। इसके बाद लुसियाना के आर्केडियन ने इसे उगाया। मेरे बॉस को ये बीज यूनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट आॅफ एग्रीकल्चर के सीड बैंक से मिला था। इस बीज को साल 1930 में अमेरिका के लुसियाना से संग्रह किया गया था। सच ये है कि यहां कुछ समय से रंगीन कपास का इस्तेमाल हो रहा था।

पेरू में रंगीन कपास का इस्तेमाल 7500 साल पहले हो रहा था। इसी वक्त मैक्सिको और सेंट्रल अमेरिका में भी कपास का इस्तेमाल हो रहा था। जहां तक मेरा अनुमान है कि भारत में 'खाकी' शब्द की उत्पत्ति इसी कपास से बने कपड़ों से हुई होगी। इस कपास का इस्तेमाल पारंपरिक तौर पर पूरे एशिया में साधू-संन्यासियों और धार्मिक लोगों के कपड़े बनाने के लिए होता था।

आपने फाइबर और कताई की गुणवत्ता में सुधार कैसे किया? क्या कपास की इन प्रजातियों से जैविक नुकसान को लेकर भी कोई चिंता है?

मैंने हर बीज को लेकर हथकरघा से फाइबर की कताई शुरू की थी और उन बीजों को लगाया, जिनका रंग बढ़िया और कताई आसानी से हो जाती थी। मैंने इनका परागन सफेद कपास के साथ कराया, जिनका फाहा सुंदर था। परागन से तैयार बीज को बोया और साल दर साल बेहतर बीजों का चुनाव किया। चूंकि कपास अपना परागन खुद करता है इसलिए बीजों के क्रास कंटेमिनेशन खतरा प्राय: नहीं रहता है।

आपके खरीदार कौन हैं और आपका खेत कितना बड़ा है?

साल 1990 तक प्राकृतिक रूप से रंगीन कपास की भरोसेमंद प्रजातियां तैयार कर ली थीं, जिन्हें जैविक तरीके से उगाया और मशीन से बुना जा सकता था। मेरा पहला ग्राहक जापान की कताई मिल था। इसके बाद मैंने अमेरिका व यूरोप के डिजाइनरों के साथ काम करना शुरू किया और फिर जल्दी ही दुनिया भर के मिलों को कपास बेचने लगी। एक समय मैं हजारों हेक्टेयर में कपास उगाती थी और दुनिया भर की 38 मिलों में सप्लाई करती थी।

बाजार का विस्तार बहुत तेजी से हुआ तथा पांच सालों में ही ये चरम पहुंच गया। इसके बाद इसका बाजार वैश्वीकरण के कारण धराशाई हो गया और जिन कताई मिलों को मैं कपास बेचती थी, उनका व्यापार खत्म हो गया। अभी मैं आर्डर के हिसाब से कपास की सप्लाई करती हूं। फिलहाल मैं जापान और अमेरिका की एक-एक कताई मिलों में कपास की सप्लाई करती हूं। इसके अलावा खुद भी कपड़े तैयार करती हूं।

क्या दूसरे देशों के शोधकर्ताओं ने कपास की इस प्रजाति के कुछ नमूने और उन्हें उगाने के लिए आपसे संपर्क किया है?

नहीं, मैं कोई शोध संस्था नहीं चलाती हूं बल्कि छोटा व्यापार करती हूं। दुःख की बात है कि मुझे किसी संस्थान से कोई सहयोग नहीं मिलता है। मैं अपने सभी शोध के लिए फंड का इंतजाम कपास और उससे निर्मित उत्पाद बेचकर करती हूं।

रंगीन कपास का बाजार कितना बड़ा है?

मुझे लगता है कि इस कपास की गुणवत्ता और इसके प्राकृतिक रंगों के चलते इसके बाजार की कोई सीमा नहीं है। इसमें कीड़े-मकोड़े और बीमारी नहीं लगते हैं; इसमें आग नहीं पकड़ती; ये सूक्ष्मजीवरोधी है; ये एकदम ऊन की तरह मुलायम है। इसे बहुत कम रंग करने या बिलकुल भी रंग करने की जरूरत नहीं पड़ती है। इससे ऊर्जा की खपत कम होती है, पानी बचता है और कूड़ा भी कम निकलता है। लेकिन सवाल है कि क्या इसके लिए बाजार है? मुझे ऐसा लगता है कि इस दिशा में काम प्रगति पर है।

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