"अगर सरकार गंभीर हो तो सामूहिक खेती भारतीय कृषि को बदल सकती है"

डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स एंड एनवॉयरमेंट, यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर में प्रोफेसर बीना अग्रवाल का कहना है कि सामूहिक खेती छोटे किसानों की उत्पादन समस्याओं को हल कर सकती है
आंध्रप्रदेश के गांव मुलिगोडा में किसान पटि्टका सुलोचना का खेत। फोटो: सीएसई
आंध्रप्रदेश के गांव मुलिगोडा में किसान पटि्टका सुलोचना का खेत। फोटो: सीएसई
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आपने 10 से अधिक वर्षों तक सामूहिक खेती का अध्ययन किया है। यह क्या लाभ दे सकता है?

सामूहिक खेती में स्वेच्छा से भूमि, श्रम और पूंजी को एकत्रित करना और खेती करना शामिल है। इससे छोटे किसानों को अपनी उत्पादन बाधाओं को दूर करने में मदद मिल सकती है। अधिकांश भारतीय खेत बहुत छोटे हैं, जो आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं है। करीब 86 फीसदी किसान 2 हेक्टेयर से कम जमीन के टुकड़ों पर खेती करते हैं। अधिकांश के पास सिंचाई की सुविधा नहीं है। बैंक ऋण, प्रौद्योगिकियां और सूचना और बाजारों में सौदेबाजी की शक्ति नहीं है। बड़ी संख्या में महिलाएं हैं। समूह खेती एक संस्थागत समाधान प्रदान कर सकती है। किसान बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं का आनंद लेंगे तो अधिक निवेश आ सकता है। धन और कौशल, इनपुट लागत को कम करना और जलवायु परिवर्तन से निपटना जरूरी है। महिलाएं किसान के रूप में स्वतंत्र पहचान हासिल कर सकती हैं। मेरे अनुसंधान, जिसने भारत और नेपाल में नए प्रयोगों को भी उत्प्रेरित किया है, यह प्रदर्शित करता है। 2020 के कोविड-19 राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान अधिकांश समूह आर्थिक रूप से सक्षम रहे, जबकि अधिकांश व्यक्तिगत किसानों को नुकसान हुआ।

क्या इसे पट्टे की भूमि पर भी किया जा सकता है?

बिल्कुल। केरल में, सामूहिक खेती बड़े पैमाने पर भूमि पट्टे पर आधारित है। 2000 के दशक की शुरुआत में राज्य सरकार ने अपने गरीबी उन्मूलन मिशन, कुदुम्बश्री के तहत समूह फार्म के जरिये महिलाओं को बढ़ावा देना शुरू किया। आज ऐसे 68,000 से अधिक फार्म हैं। तेलंगाना में, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा 500 समूह फार्म बनाने के लिए एक छोटा प्रयोग किया गया था। इसे 2001 में केंद्र के सहयोग से और एक एनजीओ, आंध्र प्रदेश महिला समथा सोसाइटी (एपीएमएसएस) द्वारा कार्यान्वित किया गया। यहां भी महिला समूह मुख्य रूप से पट्टे की भूमि पर निर्भर थीं, क्योंकि कुछ ही महिलाओं के पास जमीन है। हालांकि, बिहार और उत्तरी बंगाल में आप मिश्रित-लिंग समूह पाते हैं। आमतौर पर पुरुष जमीन की व्यवस्था खुद ही करते हैं।

आपने केरल और तेलंगाना में सामूहिक खेती का गहन अध्ययन किया। आपने क्या पाया?

मैंने 2012-13 में पूरे एक साल के लिए हर इनपुट और आउटपुट, फसल और प्लॉट के लिए साप्ताहिक डेटा का एक सावधानीपूर्वक कलेक्शन किया। डेटा ने केरल के दो जिलों में 250 समूह और व्यक्तिगत खेतों और तेलंगाना के तीन जिलों में 763 खेतों को कवर किया। केरल में मैंने पाया कि समूह खेतों ने व्यक्तिगत खेतों (जिनमें से 95 प्रतिशत पुरुष प्रबंधित थे) के सापेक्ष प्रति हेक्टेयर उत्पादन के वार्षिक मूल्य का 1.8 गुना और 5 गुना शुद्ध रिटर्न हासिल किया था। तेलंगाना में समूह खेती ने उत्पादकता के मामले में व्यक्तिगत खेतों से भी बदतर प्रदर्शन किया लेकिन शुद्ध रिटर्न अच्छा रहा, क्योंकि उन्होंने किराए के श्रम पर बचत की। दोनों राज्यों में सामूहिक खेती ने महिलाओं को सामाजिक और राजनीतिक रूप से सशक्त बनाया।

केरल ने बेहतर प्रदर्शन क्यों किया?

केरल के समूहों को कुदुम्बश्री मिशन से तकनीकी प्रशिक्षण और समर्थन प्राप्त हुआ। वे पंजीकृत पंचायत-स्तरीय सामुदायिक विकास समितियों के माध्यम से जुड़े हुए थे, जिन्होंने उन्हें स्थानीय स्तर पर मोलतोल की शक्ति प्रदान की। 5-6 महिलाओं के छोटे समूह सहयोग के लिए और नाबार्ड से रियायती ऋण प्राप्त करने के लिए उपयुक्त हैं। सदस्य साक्षर हैं और जातीय विविधता उनके सामाजिक नेटवर्क और पट्टे पर दी गई भूमि तक पहुंच को बढ़ाती है और व्यावसायिक फसल से लाभ में सुधार होता है। 2005 में यूएनडीपी परियोजना समाप्त होने के बाद तेलंगाना के समूहों को राज्य के समर्थन की कमी थी। हालांकि एपीएमएसएस से समर्थन मिलना जारी रहा। समूह बहुत बड़े थे (औसतन 22 सदस्य) और अधिकांश सदस्य अनुसूचित जाति के थे, जिसने उनकी सामाजिक पहुंच और भूमि पहुंच को सीमित कर दिया। सिंचाई के बिना पैदावार कम हुई। मूलरूप से, तेलंगाना ने मौजूदा सामाजिक सशक्तिकरण कार्यक्रम के रूप में समूह खेती को देखा, जबकि केरल ने आजीविका में वृद्धि के लिए इसे डिजाइन किया।

बिहार और पश्चिम बंगाल में सामूहिक खेती का प्रदर्शन कैसा रहा है?

यहां सामूहिक खेती मेरे लेखन से प्रभावित थी। अलग-अलग लिंग संरचना के साथ रोमांचक मॉडल सामने आए हैं। कुछ साल भर सामूहिक रूप से खेती करते हैं, अन्य एक मौसम या फसल के लिए। किसान सटे हुए भूखंडों को पूल करते हैं जो कुशल सिंचाई को सक्षम करते हैं। सभी समूह व्यक्तिगत खेतों की तुलना में अधिक फसल पैदावार रिपोर्ट करते हैं। बिहार में, जमीन को पट्टे पर देने वालों ने शक्तिशाली जमींदारों से कम किराए के लिए मोलतोल किया। यह समूह खेती सामंती संदर्भों में काम कर सकती है जो मूल मॉडल की प्रतिकृति को प्रदर्शित करती है।

क्या उपाय इस मॉडल को व्यापक बना सकते हैं?

किसानों को सरकार से तकनीकी सहायता और प्रदर्शन प्रोत्साहन की आवश्यकता है। शुरुआत में एक लोकल एनजीओ से उन्हें मार्गदर्शन मिलना चाहिए। समूह का आकार छोटा हो। सदस्यों के बीच जातीय विविधता हो। वाणिज्यिक फसलों सहित स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल फसलें उगाई जाए।

क्या किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) समूह खेती से अलग हैं?

एफपीओ मुख्य रूप से आउटपुट का संयुक्त विपणन और कभी-कभी थोक इनपुट खरीद करते हैं। वे शायद ही कभी संयुक्त खेती करते हैं या किसानों के साथ भूमि और श्रम की पूलिंग करते हैं। हालांकि, समूह फार्म और एफपीओ पूरक कार्य कर सकते हैं, यदि एफपीओ समूह फार्म बनाते हैं।

समूह खेती को बढ़ावा देने में सरकार क्यों हिचक रही है?

सबसे पहले, वह कृषि विपणन में व्यस्त है। सरकार उत्पादन बाधाओं पर कम ध्यान दे रही है, जिसका सामना छोटे किसान कर रहे हैं। दूसरा, 1960 के दशक में समूह खेती के असफल प्रयोगों के कारण सरकार संशयपूर्ण स्थिति में है। हालांकि, सरकार ने ये विश्लेषण नहीं किया कि वे विफल क्यों हुए। मूलरूप से उन्होंने एक त्रुटिपूर्ण मॉडल का उपयोग किया, जो छोटे और बड़े किसानों को आपसी सहायता के लिए आगे करता है (जिनके परस्पर विरोधी हित हैं)। संस्थागत डिजाइन की बहुत कम समझ थी। आज के समूह कृषि कार्यक्रमों ने सफल स्व-सहायता समूह मॉडल को अपनाया है, जिसने बचत और ऋण के लिए बेहतर काम किया है। यह स्वैच्छिकता, छोटे समूह के आकार और समतावादी संबंधों के सिद्धांतों पर आधारित है। अगर सरकार सामूहिक खेती का गंभीरता से समर्थन करती तो यह संस्थागत रूप से भारतीय कृषि और किसानों की आजीविका को बदल देती।

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