प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो : cgiar.org
प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो : cgiar.org

अर्धशुष्क उत्तर-पश्चिम व मध्य भारत में भी सीधी बिजाई धान को प्रोत्साहित करे केंद्र

यह नीतिगत बदलाव पराली दहन से होने वाले प्रदूषण का स्थायी समाधान होगा और कृषि को टिकाऊ व पर्यावरण अनुकूल बनाएगा
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भारत में वर्ष 2024 में लगभग 145 करोड़ टन धान का उत्पादन हुआ और 12.5 बिलियन डॉलर मूल्य का चावल निर्यात किया गया। देश के लगभग सभी राज्यों में धान की खेती की जाती है। धान और चावल न केवल भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए आवश्यक हैं, बल्कि किसानों की आर्थिक सुरक्षा के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

केंद्रीय कृषि मूल्य एवं लागत आयोग के अनुसार, आर्थिक दृष्टि से गन्ना फसल के बाद गेहूं-धान फसल चक्र ही किसानों के लिए सर्वाधिक लाभदायक है। तकनीकी दृष्टि से भी खरीफ मौसम में मानसूनी वर्षा से जलभराव की स्थिति में धान की फसल सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है।

उल्लेखनीय है कि वर्ष 1968 तक हरियाणा और पंजाब के किसान पारंपरिक, पर्यावरण हितैषी सीधी बिजाई विधि से ही धान की खेती करते थे। लेकिन हरित क्रांति (1966-1985) के दौर में नीतिनिर्माताओं ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से भूजल आधारित रोपाई विधि को ट्यूबवेल सिंचाई के सहारे हरियाणा-पंजाब जैसे अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में लागू किया। इसके परिणामस्वरूप इन राज्यों में गंभीर भूजल संकट उत्पन्न हो गया है, और अधिकांश विकासखंड 'ग्रे ज़ोन' में आ चुके हैं।

इस भूजल संकट के समाधान हेतु पंजाब और हरियाणा में प्रिजर्वेशन ऑफ सब-सॉयल ग्राउंडवॉटर एक्ट, 2009 लागू किया गया, जिसके तहत 15 जून से पहले धान की रोपाई पर कानूनी रोक लगा दी गई। इससे धान की फसल देर से पकती है और कटाई अक्टूबर के मध्य के बाद होती है, जिससे अगली फसल (आलू, सरसों, गेहूं आदि) की बुआई के लिए समय की कमी हो जाती है।

परिणामस्वरूप किसान पराली जलाने के लिए बाध्य हो जाते हैं, जो उत्तर-पश्चिम भारत में हर वर्ष अक्टूबर-दिसंबर के दौरान गंभीर वायु प्रदूषण का कारण बनता है।

हालांकि, कम अवधि वाली धान की किस्मों और सीधी बिजाई तकनीक से इस समस्या का स्थायी समाधान संभव है। यह विधि धान की कटाई और अगली फसल की बुआई के बीच 30-40 दिन का अंतराल प्रदान करती है, जिससे किसान पराली को खेत में ही दबाकर जैविक खाद बना सकते हैं और दहन की आवश्यकता नहीं पड़ती।

दुर्भाग्यवश, नीतिनिर्माताओं ने पराली दहन की इस तकनीकी जड़ को नजरअंदाज कर, बीते एक दशक में एक्स-सीटू समाधानों (जैसे कि पराली के बंडल बनाकर उद्योगों तक पहुंचाना) पर 10,000 करोड़ रुपये से अधिक की सरकारी धनराशि व्यय की है। जबकि 10-20 दिन की इस संक्षिप्त अवधि में 40-50 मिलियन टन पराली का एक्स-सीटू प्रबंधन व्यावहारिक रूप से असंभव है। इसके विपरीत, कंबाइन हार्वेस्टर में सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम (SMS) को अनिवार्य बनाकर पराली को खेत में ही दबाना एक व्यावहारिक और पर्यावरण-सम्मत समाधान सिद्ध हो सकता है।

अब नीतिनिर्माता पुनः पारंपरिक, टिकाऊ सीधी बिजाई विधि को प्रोत्साहित कर रहे हैं। इस विधि से रोपाई की तुलना में लगभग 30% सिंचाई जल, लागत, बिजली, ऊर्जा और श्रम की बचत होती है, जबकि उत्पादन समान रहता है। साथ ही, यह विधि 10-15 दिन कम अवधि में फसल तैयार करती है, जिससे पराली प्रबंधन में सहायता मिलती है और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी घटता है।

हरियाणा सरकार ने खरीफ 2025 के लिए 4 लाख एकड़ भूमि (कुल धान क्षेत्र का लगभग 10%) पर सीधी बिजाई का लक्ष्य रखा है और इसके लिए प्रति एकड़ 4,500 रुपये की प्रोत्साहन राशि देने की घोषणा की है। पराली प्रबंधन हेतु भी 1,200 रुपये प्रति एकड़ की अतिरिक्त सहायता दी जा रही है।

पंजाब सरकार ने भी इसी प्रकार के प्रोत्साहनों की घोषणा की है। इन प्रयासों की बदौलत किसान लाखों एकड़ भूमि पर पर्यावरण हितैषी सीधी बिजाई विधि से धान की खेती कर रहे हैं, जिससे भूजल संरक्षण और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी आ रही है।

निस्संदेह, भूजल संरक्षण हेतु उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत (हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि) में रोपाई आधारित धान खेती के स्थान पर सीधी बिजाई विधि को बढ़ावा देना आवश्यक है। अतः केंद्र सरकार को चाहिए कि:

  1. भूजल बर्बाद करने वाली रोपाई पद्धति पर चरणबद्ध तरीके से पूर्ण प्रतिबंध लगाए;

  2. सीधी बिजाई विधि को सभी अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में अनिवार्य रूप से प्रोत्साहित करे;

  3. सभी कंबाइन हार्वेस्टर में सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम (एसएमएस) को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाए;

  4. किसानों को मोल्ड बोर्ड हल के प्रयोग के लिए प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता प्रदान करे ताकि वे पराली को खेत में दबाकर जैविक खाद बना सकें।

यह नीतिगत बदलाव न केवल पराली जलाने से उत्पन्न वायु प्रदूषण की समस्या का स्थायी समाधान प्रस्तुत करेगा, बल्कि भारत की कृषि प्रणाली को पर्यावरण-सम्मत, टिकाऊ और लाभकारी बनाने में भी निर्णायक भूमिका निभाएगा।

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