दुनिया भर के सामने आज खाद्य सुरक्षा एक बड़ा सवाल है। इतना ही नहीं क्या पारम्परिक फसलों की मदद से तेजी से बढ़ती आबादी का पेट भरा जा सकता है, इसपर विचार करने की जरुरत है। देखा जाए तो बढ़ती शहरी जरूरतों को पूरा करने के लिए शहरी कृषि एक अहम भूमिका निभा सकती है, जिसे स्थानीय खाद्य स्रोत के रूप में देखा जा रहा है। जो खाद्य पदार्थों की कमी और उसमें व्याप्त असमानता को दूर कर सकती है।
संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम द्वारा जारी आंकड़ों को देखें तो हर रोज 82.8 करोड़ लोग खाली पेट सोने को मजबूर हैं। वहीं 45 देशों में पांच करोड़ से ज्यादा लोग अकाल जैसी स्थिति का सामना कर रहे हैं। लेकिन क्या पैदावार के मामले में शहरों कृषि की तुलना पारम्परिक खेतों से की जा सकती है, इस बारे में बहुत सीमित जानकारी उपलब्ध है।
इस पर लैंकेस्टर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा एक नई रिसर्च की गई है जिससे पता चला है कि शहरी माली हाइड्रोपोनिक्स जैसी तकनीकों की मदद से कभी-कभी ग्रामीण खेतों की तुलना में कहीं ज्यादा पैदावार प्राप्त कर सकते हैं।
इस बारे में रुर्बन क्रांति परियोजना के प्रमुख प्रोफेसर जेस डेविस का कहना है कि शहरी खाद्य उत्पादन को अक्सर खारिज कर दिया जाता है कि वो खाद्य सुरक्षा में सार्थक योगदान नहीं दे सकती है। ऐसे में शहरी क्षेत्रों में कौन से फैसले बेहतर तरीके से उगाई जा सकती हैं। साथ ही खेती के कौन से तरीके सबसे प्रभावित हैं और शहरों में किन स्थानों को खेती के लिए उपयोग किया जा सकता है इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने दुनिया भर में शहरी कृषि को लेकर 53 देश में किए गए अध्ययन में सामने आए परिणामों का विश्लेषण किया है।
इस रिसर्च के नतीजे जर्नल एडवांसिंग अर्थ एंड स्पेस साइंसेज में प्रकाशित हुए हैं। शोध के जो नतीजे सामने आए हैं वो चौंका देने वाले हैं। शोधकर्ताओं को पता चला है कि कुछ फसलों जैसे खीरा, कंद और सलाद की शहरी पैदावार तो पारम्परिक खेती की तुलना में दो से चार गुना तक ज्यादा है। वहीं कई अन्य फसलों की पैदावार लगभग ग्रामीण परिवेश की तुलना में समान और कुछ मामलों में ज्यादा भी है। लेकिन इसकी लागत अब भी एक बड़ा प्रश्न है।
शहरी कृषि को लेकर किए गए अधिकांश अध्ययनों में निजी और सामुदायिक उद्यानों, पार्कों और हरे भरे स्थानों पर ध्यान केंद्रित किया है। लेकिन इस पेपर में 'ग्रे' स्पेस को शामिल किया गया है। 'ग्रे' स्पेस का मतलब उन स्थानों से है जहां निर्माण हुआ है लेकिन उन स्थानों का उपयोग फसलों के लिए किया जा सकता है जैसे छत और भवनों के आगे की जगह इसमें शामिल हैं। साथ ही इस रिसर्च में मिट्टी बनाम हाइड्रोपोनिक्स, क्षैतिज बनाम ऊर्ध्वाधर खेती और प्राकृतिक बनाम नियंत्रित स्थितियों में उगाई जाने वाली फसलों की जांच की गई है।
शहरों में पैदा किया जाता है 15 से 20 फीसदी फूड
इस बारे में लैंकेस्टर एनवायरनमेंट सेंटर प्रमुख और शोध से जुड़े शोधकर्ता फ्लोरियन पायन का कहना है कि भवनों के अंदर और बाहर खुले मैदानों में उगाई फसलों की पैदावार में आश्चर्यजनक रूप से अन्तर था। पता चला है कि कुछ फसलें जैसे सलाद पत्ता, गोभी और ब्रोकली अन्य फसलों की तुलना में इंडोर स्थानों के लिए कहीं ज्यादा उपयुक्त हैं जहां उन्हें लम्बवत उगाया गया था। उनका कहना है कि दूसरी तरफ आप सेब जैसी फसलों को इस तरह नहीं ऊगा सकते हैं।
हालांकि एक अध्ययन ऐसा पाया गया है जिसमें इस तरह एक एक ऊपर एक गेहूं को उगाने में कामयाबी मिली है। इसी तरह शोध में सामने आया है कि कुछ फसलें जिनमें ज्यादा मात्रा में पानी होता है जैसे टमाटर और पत्तेदार साग ने हाइड्रोपोनिक वातावरण में अच्छा प्रदर्शन किया था।
इतना ही नहीं पूरी तरह से नियंत्रित वातावरण में उगाई जाने वाली फसलें पूरे वर्ष लगाई जा सकती हैं, जिससे साल में कई बार उनसे पैदावार प्राप्त की जा सकती है, जबकि खेतों में ऐसा करना संभव नहीं है। साल में कई फसलें प्राप्त करने से इनकी वार्षिक पैदावार कहीं ज्यादा होती है। लेकिन इन प्रणालियों को लागत प्रभावी बनाने के लिए अभी भी इन फसलों पर अध्ययन करना होगा।
अनुमान है कि 5 से 10 फीसदी फलियां, कंद और सब्जियां शहरों में पैदा की जाती हैं। वहीं वैश्विक खाद्य उत्पादन की 15 से 20 फीसदी पैदावार शहरों में होती है। लेकिन उपज के बारे में सटीक जानकारी के आभाव में यह कहना मुश्किल है कि एक शहर अपने लिए कितना भोजन पैदा कर सकता है।
लेकिन इस अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है कि कुछ फसलों को शहरी वातावरण में बेहतर तरीके से उगाया जा सकता है और उनसे अच्छी पैदावार भी प्राप्त की जा सकती है। देखा जाए तो भले ही शहरों में खेती से प्राप्त पैदावार भले ही उसकी पूरी आबादी का पेट नहीं भर सकती, लेकिन इतना जरूर है कि खाद्य उत्पादन के बढ़ते दबाव को कुछ हद तक कम कर सकती है।