2047 तक भारत में दोगुनी होगी खाद्यान्न की मांग, घट जाएगी कृषि भूमि

एक व्यापक अध्ययन के बाद कृषि वैज्ञानिकों ने भारत की कृषि नीति में बदलाव लाने की सिफरिश की है
Photo by Agnimirh Basu/CSE
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भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान से संबंद्ध नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी रिसर्च (आईसीएआर-एनआईएपी) के एक विश्लेषण में कहा गया है कि साल 2047 तक भारत की कुल खाद्य मांग मौजूदा मांग से दोगुनी से अधिक हो जाएगी, जबकि पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य पदार्थों — जैसे बागवानी और पशु उत्पादों — की मांग तीन से चार गुना बढ़ने की संभावना है।

हालांकि, इस बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए आवश्यक कृषि भूमि घटकर 176 मिलियन हेक्टेयर रह जाएगी, जो फिलहाल लगभग 180 मिलियन हेक्टेयर है।

इन बदलावों को देखते हुए वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि अब पारंपरिक अनाजों को ज्यादा पोषक और विविध बनाने की जरूरत है।

लेखकों के अनुसार, “बढ़ती पोषण संबंधी जरूरतों और बदलती आहार प्राथमिकताओं को पूरा करने के लिए फल, सब्जियां, दालें और तिलहन जैसी प्रमुख फसलों के बारे में अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। साथ ही, चावल व गेहूं जैसी पारंपरिक फसलों से वैकल्पिक फसलों की ओर धीरे-धीरे संसाधनों का स्थानांतरण अत्यावश्यक है।”

भारत को 2047 तक एक विकसित राष्ट्र का दर्जा प्राप्त करने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को लगभग 8 प्रतिशत की वार्षिक दर से विकसित करना होगा। इसी दौरान, देश की जनसंख्या बढ़कर 1.6 अरब तक पहुंच जाएगी और लगभग आधी आबादी शहरी क्षेत्रों में निवास करेगी।

इस आर्थिक और जनसांख्यिकीय बदलाव के चलते भारतीय आहार पैटर्न में भी बड़ा बदलाव आएगा, विशेष रूप से पोषक तत्वों से भरपूर बागवानी और पशु उत्पादों की मांग में वृद्धि होगी।

नीति पत्र में कहा गया है कि वर्ष 2047 तक फलों की मांग सालाना 3 प्रतिशत की दर से बढ़कर 233 मिलियन टन और सब्जियों की मांग 2.3 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़कर 365 मिलियन टन हो जाएगी। दालों की मांग दोगुनी होकर 49 मिलियन टन तक पहुंच सकती है, जबकि खाद्य तेलों और चीनी की मांग क्रमशः 50 प्रतिशत और 29 प्रतिशत तक बढ़ने की संभावना है।

लेकिन दूसरी ओर, प्रति किसान औसत जोत का आकार वर्तमान लगभग एक हेक्टेयर से घटकर केवल 0.6 हेक्टेयर रह जाएगा। इससे इकोनॉमीज ऑफ स्केल (अर्थशास्त्र की एक अवधारणा जो बताती है कि बड़े पैमाने पर उत्पादन करने से कंपनियों को अधिक लाभ मिलता है और उनके उत्पादन की लागत कम होती है)

प्राप्त करना किसानों के लिए कठिन हो सकता है, जिससे कृषि और उस पर आधारित आजीविकाओं की आर्थिक व्यवहार्यता प्रभावित हो सकती है।

इसके अलावा, शुद्ध बोया गया क्षेत्र घटकर 138 मिलियन हेक्टेयर तक आ सकता है, जिससे फसल चक्र की तीव्रता 156 प्रतिशत से बढ़कर 170 प्रतिशत हो जाएगी।

हालांकि, कृषि भूमि के इस तीव्र उपयोग के पर्यावरणीय परिणाम भी होंगे — जल और ऊर्जा जैसे पहले से ही तनावग्रस्त संसाधनों पर दबाव और बढ़ेगा। वर्तमान में कृषि जल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है (83 प्रतिशत), और 2047 तक जल की मांग मौजूदा उपयोग से लगभग 18 प्रतिशत अधिक हो सकती है।

इन चुनौतियों को देखते हुए, नीति पत्र में कृषि-खाद्य प्रणाली में “रणनीतिक बदलाव” लाने की जरूरत बताई गई है — विशेष फसलों के उत्पादन को बढ़ाना या पारंपरिक अनाजों से विविध व पोषक फसलों की ओर संसाधनों का स्थानांतरण करना आवश्यक है ताकि वस्तुओं के असंतुलन को रोका जा सके।

रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि 2047 तक कृषि उत्पादन के सकल मूल्य में पशुपालन की हिस्सेदारी वर्तमान 31 प्रतिशत से बढ़कर 39 प्रतिशत हो सकती है, जबकि मत्स्य पालन की हिस्सेदारी 7 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत तक पहुंच सकती है।

इस नीति पत्र का एक अन्य महत्वपूर्ण विश्लेषण जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर केंद्रित था। पिछले पांच दशकों में सूखा, लू और बाढ़ जैसी चरम मौसमी घटनाओं के चलते भारत की कृषि उत्पादकता में लगभग 25 प्रतिशत की गिरावट आई है।

नीति पत्र में चेतावनी देते हुए कहा गया है, “चूंकि भविष्य में इन घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ने की संभावना है, यह फसल पैदावार और खाद्य आपूर्ति को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकती हैं, जिससे देश की खाद्य और पोषण सुरक्षा पर असर पड़ेगा।”

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