हरित क्रांति का गढ़ रहा दिल्ली का जौन्ती गांव जहां एक ओर कृषि संकट से जूझ रहा है, वहीं दूसरी तरफ बिजली के बिल भी किसानों को झटके पर झटके दे रहे हैं। परेशानी का कारण घरों के बिजली बिल नहीं बल्कि सिंचाई के लिए लगाए गए ट्यूबवेल कनेक्शन के बिल हैं। दरअसल ये ट्यूबवेल साल में केवल तीन से चार महीने ही चलते हैं लेकिन बिल हर महीने आ जाता है। ग्रामीण इससे खासे नाराज हैं। गांव में रहने वाले वीरेंद्र सिंह गुस्से में कहते हैं कि बिजली के फिक्स चार्ज के अलावा अनाप-शनाप जार्च जोड़े जा रहे हैं। मोटर न चलने पर फिक्स चार्ज के रूप में 200 रुपए का बिल आना चाहिए लेकिन हर महीने इससे कई गुणा ज्यादा बिल आ रहा है। ग्रामीण धर्मवीर का दो महीने का ट्यूबवेल बिल 5,853 रुपए आया है। इस दौरान उन्होंने ट्यूबवेल भी नहीं चलाया। बिल को विभिन्न प्रकार के चार्ज ने काफी बढ़ा दिया है।
जौन्ती गांव में रहने वाले 66 वर्षीय साहब सिंह बताते हैं कि उनके ट्यूबवेल का बिल बिना मोटर चले 7000-8000 रुपए के बीच आ रहा है। बिना बिजली का उपयोग किए इतनी बड़ी राशि के भुगतान से किसानों की कमर टूट रही है। वह बताते हैं कि गांव लंबे समय से खेती के संकट से गुजर रहा है। बिजली के बिल उस संकट में इजाफा कर रहे हैं। वह बताते हैं कि जब से बिजली का निजीकरण हुआ तब से इस तरह की परेशानी आ रही है। उनका कहना है कि बिजली बिल पर विभिन्न प्रकार के अनावश्यक चार्ज लगाए गए हैं। पहले से ही बदहाल किसानों को इस तरह चूसना बंद करना चाहिए।
ग्रामीण राज सिंह को इस साल खेती से भारी नुकसान पहुंचा है। उन्होंने करीब 70 एकड़ में गाजर उगाई थी। उनकी गाजर की फसल का बड़ा हिस्सा कीड़े लगने से खराब हो गई। जब बची हुई गाजर को उखाड़ने पर वक्त आया तो बाजार भाव इतना गिरा हुआ था कि उन्होंने गाजर खेत से नहीं उखाड़ी और उसे पशुओं के लिए छोड़ दी। वह प्रश्न करते हैं कि इस तरह की स्थिति का सामना करने वाले किसान भारी भरकम बिजली का बिल कैसे चुकाएंगे?
सत्तर वर्षीय बुजुर्ग संतोष चंदरवत्स याद करते हुए बताते हैं कि 1977-78 से गांव में नहर का पानी बंद है। मॉनसून में पर्याप्त पानी न बरसने पर किसानों को मजबूरन ट्यूबवेल लगाने पड़े ताकि फसलों की सिंचाई की जा सके। अब यही ट्यूबवेल किसानों का खून चूस रहे हैं। उनका कहना है कि शीला दीक्षित के कार्यकाल में दिल्ली देहात का दर्जा समाप्त होने के बाद किसानों को मिलने वाली सब्सिडी भी बंद कर दी गई। वह बताते हैं कि हरित क्रांति के समय नहरों में पर्याप्त पानी था। भूमिगत जल करीब 40 फीट की गहराई पर था जो अब 80-90 फीट पर पहुंच गया है। उनका कहना है कि ट्यूबवेल लगाना किसानों की मजबूरी है। इसके बिना खेती की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
उल्लेखनीय है कि जौन्ती गांव में हरित क्रांति के लिए बीज तैयार किए गए थे। साठ के दशक में एमएस स्वामीनाथन ने इस गांव को विशेष रूप से चुना था। तब इस गांव को बीज ग्राम के नाम से जाना जाता था। देशभर के किसान बीजों को लेने गांव पहुंचते थे। बलजीत सिंह बताते हैं कि 1967 में स्वामीनाथन ने जौन्ती को बीज ग्राम बनाया था। किसानों को जानकारी देकर उन्नत बीजों के प्रति जागरुक किया गया था। स्वामीनाथन द्वारा दिए गए बीजों से पैदावार में अभूतपूर्ण बढ़ोतरी हुई। वह बताते हैं कि गांव में तैयार हुए बीज देश भर में फैले और हरित क्रांति की नींव पड़ी।