पड़ताल: किसानों के लिए सरकार और बाजार दोनों जरूरी

तीन कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसान आखिर सरकारी सहायता को जारी रखने की मांग क्यों कर रहे हैं, पड़ताल करती रिपोर्ट की तीसरी कड़ी-
Photo: Agnimirh Basu
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हाल ही में बने तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसान देश की राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर बैठ गया है। उन्हें दिल्ली के भीतर नहीं घुसने दिया जा रहा है। सरकार से कई दौर की वार्ता हो चुकी है। सरकार कानूनों में संशोधन को तैयार है, लेकिन किसान तीनों कानूनों को वापस लेने की मांग पर अड़े हैं। किसान संगठनों का कहना है कि तीनों कानूनों के माध्यम से सरकार कृषि क्षेत्र से अपना पल्ला झाड़ कर कॉरपोरेट्स के हवाले करना चाहती है, लेकिन आखिर किसान सरकार के दामन से क्यों जुड़ा रहना चाहता है। डाउन टू अर्थ ने कारण जानने के लिए व्यापक पड़ताल की। पहली कड़ी पढ़ें, क्यों सरकार के दामन से जुड़ा रहना चाहता है किसान । दूसरी कड़ी पढ़ने के लिए क्लिक करें - पंजाब-हरियाणा जैसा मंडी सिस्टम क्यों चाहते हैं दूसरे राज्यों के किसान? । पढ़ें, अगली कड़ी-

दुनिया के सिर्फ 54 देश अपने किसानों को रोजाना लगभग दो बिलियन डॉलर की सहायता प्रदान करते हैं। ओईसीडी की हाल ही में जारी रिपोर्ट बताती है कि 2017-19 के दौरान इन देशों ने अपने किसानों को लगभग 619 बिलियन डॉलर की सहायता प्रदान की।

टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस के सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग इकोनॉमीज के प्रोफेसर आर रामाकुमार कहते हैं कि कोविड-19 महामारी के दौरान दुनिया भर ने अपने किसानों को सहायता प्रदान की, ताकि कृषि एवं खाद्य सुरक्षा बरकरार रहे। यही वजह है कि इस महामारी में कृषि क्षेत्र में गिरावट नहीं आई, बल्कि कई जगह इस क्षेत्र ने तरक्की की।

रामाकुमार कहते हैं कि अब तक इतिहास देखें तो सरकारों ने कृषि को काफी सहायता दी है। बिना सरकारी सहायता के भोजन को उगाया ही नहीं जा सकता। अगर विकसित देश किसानों को सब्सिडी नहीं देते तो अब तक वे अंतर्राष्ट्रीय कृषि बाजार की  प्रतिस्पर्धा से बाहर हो गए होते।

उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका की बात करें तो वहां  चीनी और मकई जैसे वस्तुओं के उत्पादन के मूल्य का 55 प्रतिशत के बराबर सरकारी सहायता मिलती है। इसी तरह, यूरोपीय संघ में वर्ष 2000 में सामान्य कृषि नीति के तहत सब्सिडी योजना का नाम बदलकर "ग्रामीण विकास सहायता योजना" कर दिया गया।

इस "सिंगल पेमेंट स्कीम" के तहत किसानों को उनके कब्जे की जमीन के आधार पर सब्सिडी सपोर्ट दिया जाता है। जमीन का आकार और जमीन के प्रकार के आधार पर किसान को उसके बैंक खाते में सीधे भुगतान किया जाता है। इतना ही नहीं, इन किसानों के खेतों में अगर पेड़ लगे हैं तो उन्हें उन पेड़ों की संख्या के आधार पर ग्रीन पेमेंट भी की जाती है।

जो किसान 40 साल से कम उम्र का है, उसके परिवार को यंग फार्मर पेमेंट स्कीम की भी शुरुआत की गई थी।

केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय के तहत गठित सेंटर फॉर डब्ल्यूटीओ स्टडीज के एसोसिएट प्रोफेसर सचिन कुमार शर्मा कहते हैं कि सरकार के हस्तक्षेप के बिना खेती बहुत मुश्किल काम है। सरकार के सहयोग की उस समय बहुत जरूरत होती है, जब उपज अच्छी होने के बावजूद बाजार में बिक्री नहीं हो पाती है। अन्य क्षेत्रों के अलावा कृषि क्षेत्र में बाजार की विफलता ज्यादा महत्व रखती है। इसके अलावा मौसम की दशा, सिंचाई की कमी आदि भी कृषि क्षेत्र को अधिक प्रभावित करते हैं। कोई भी देश कृषि को बाजार के हाथों नहीं सौंप सकता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कृषि क्षेत्र में बाजार की कोई भूमिका नहीं है। सरकार और बाजार दोनों को साथ रहने की जरूरत है।

एक अनुमान के मुताबिक, यूरोपीय संघ में एक किसान को जितना प्रत्यक्ष भुगतान (डायरेक्ट पेमेंट) किया जाता है, वह उसकी आय का लगभग आधा होता है। इसमें किसी भी तरह की निर्यात सब्सिडी शामिल नहीं है।

सचिन कहते हैं कि हम यह नहीं कह सकते कि सरकार के सपोर्ट सिस्टम कितने प्रभावी रहे, यह अलग-अलग मापदंडों पर निर्भर करता है। भारत की बात करें तो  हमने उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल की है, इसलिए इनपुट सब्सिडी बहुत प्रभावी रही, लेकिन अगर हम पर्यावरण या राजकोषीय दृष्टिकोण से देखें, तो वे बहुत प्रभावी नहीं हैं। बावजूद इसके सभी सरकारें किसानों का समर्थन करना चाहती हैं।

इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (आईआईएम), के सेंटर फॉर मैनेजमेंट इन एग्रीकल्चर के प्रोफेसर सुखपाल सिंह कहते है, "मुद्दा यह नहीं है कि सरकार सारी फसल खरीद लें। बाजार में हस्तक्षेप का सिद्धांत कहता है कि यदि आप 15-20 प्रतिशत बाजार को नियंत्रित कर सकते हैं, तो बाजार के दूसरे व्यापारी भी अपना व्यवहार बदल देंगे। इसे मार्केट सैल्यूटरी इफेक्ट (लाभकारी प्रभाव) कहा जाता है। आपको अपने सभी संसाधनों को गेहूं और धान में लगाने की जरूरत नहीं है। किसानों को अन्य विविध फसलों में भी ऐसा ही करने की जरूरत है, ताकि बाजार भुगतान के कुछ न्यूनतम भुगतान के स्तर पर आ सके।"

इंटरनेशनल मेज (मक्का) एंड वीट (गेहूं) इंप्रूवमेंट सेंटर के प्रमुख वैज्ञानिक एमएल जाट कहते हैं, “मुझे लगता है कि सरकारी समर्थन के बिना भोजन उगाया जा सकता है बशर्ते उसे एक अच्छा बाजार उपलब्ध हो। यह सरकार के समर्थन या सब्सिडी का मुद्दा नहीं है, यह निवेश पर वापसी का मामला है। इसलिए अगर कोई सरकारी सहायता नहीं है, तो उत्पादन की लागत अधिक होगी। ऐसे में उपभोक्ता को इसके लिए भुगतान करना होगा। इसलिए एक सरकार को यह तय करना होगा कि वह किसान या उपभोक्ता का समर्थन करना चाहती है या नहीं। इसके आधार पर अलग-अलग मॉडल बनाने होंगे।”

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