हरियाणा व पंजाब में पराली जलाने की घटना बढ़ रही हैं। फाइल फोटो: विकास चौधरी
हरियाणा व पंजाब में पराली जलाने की घटना बढ़ रही हैं। फाइल फोटो: विकास चौधरी

जलाने से नहीं, दबाने से होगा पराली का इंतजाम

पराली के प्रबंधन को लेकर अब तक किए गए सरकारी प्रयास नाकाफी साबित हुए हैं
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1970 के दशक से भारतीय खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली "हरित क्रांति" का श्रेय मुख्य रूप से बौनी उच्च उत्पादक क्षमता वाली गेहूं की किस्मों और धान की किस्मों की शुरुआत को दिया जाता है। भारतीय शोधकर्ताओं ने इन फसलों में और सुधार किया और साथ ही रासायनिक उर्वरकों के उपयोग और भूजल आधारित नलकूप सिंचाई को बढ़ावा दिया। खासतौर पर पंजाब, हरियाणा जैसे उत्तर-पश्चिमी राज्यों में इस पर खास ध्यान दिया गया।

इसका परिणाम यह हुआ कि 1961 से 2021 के बीच इन राज्यों में धान की खेती के क्षेत्रफल में 10 गुना वृद्धि हुई। वर्तमान में पंजाब और हरियाणा में कुल धान का क्षेत्रफल 50 लाख हेक्टेयर से अधिक हो गया है, जिसकी कुल उत्पादन क्षमता 2.5 करोड़ मीट्रिक टन से अधिक है। इसमें सुगंधित बासमती चावल और लगभग 3 करोड़ मीट्रिक टन धान के भूसे का उत्पादन शामिल है।

फसल चक्र और धान के भूसे का जलना

धान की कटाई अक्टूबर-नवंबर में की जाती है। इसके बाद किसानों के पास अगली फसल—जैसे गेहूं, सरसों, आलू और सब्जियों—की बुवाई के लिए केवल 15-20 दिन का समय होता है। इस कम समय में खेत तैयार करने के लिए किसान धान के भूसे को जलाने का विकल्प अपनाते हैं, जिससे उत्तर-पश्चिम भारत, विशेषकर दिल्ली-एनसीआर में गंभीर वायु प्रदूषण फैलता है। इस स्थिति को हिमालय क्षेत्र से आने वाली ठंडी हवाओं और धीमी हवा की गति (4 किमी प्रति घंटा से कम) जैसे मौसमी कारकों ने और अधिक जटिल बना दिया है।

इस पर्यावरणीय समस्या का समाधान करने के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने पिछले 6 वर्षों में 6,000 करोड़ रुपए खर्च कर भारी मशीनरी वितरित की। लेकिन, इन 30 मिलियन मीट्रिक टन धान के भूसे के प्रबंधन के लिए सिर्फ 15 दिन का समय होने के कारण, ये प्रयास अप्रभावी साबित हुए। इसका परिणाम यह निकला कि वायु गुणवत्ता सूचकांक में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ।

धान की कटाई के लिए अधिकांश किसान कॉम्बाइन हार्वेस्टर का उपयोग करते हैं, जिनका डिजाइन मुख्यतः गेहूं की कटाई के लिए किया गया है। ये मशीनें खेत में असामान्य रूप से लंबे भूसे छोड़ती हैं। इन भूसे को हटाने के लिए श्रम और संसाधनों की आवश्यकता होती है, जो किसानों के लिए व्यावहारिक और किफायती नहीं हैं। इस स्थिति ने किसानों को पर्यावरणीय रूप से हानिकारक पराली जलाने के तरीकों को अपनाने पर मजबूर किया।

हरियाणा सरकार को 2018 से कॉम्बाइन हार्वेस्टर के इस दोषपूर्ण डिजाइन की जानकारी थी और उन्होंने मशीनों में "स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम" को अनिवार्य बनाने का आदेश दिया था। लेकिन प्रशासनिक स्तर पर इस फैसले को ठीक से लागू नहीं किया गया, जो पराली जलाने की समस्या का मुख्य कारण बन गया।

स्थानीय प्रबंधन: समाधान का बेहतर तरीका

इंसिटू (स्थानीय) फसल अवशेष प्रबंधन विधियां पर्यावरण-अनुकूल हैं। इन विधियों के तहत भूसे को मिट्टी की गहराई (6 इंच से नीचे) में मिलाया जाता है, जिससे मिट्टी के पोषक तत्व सुरक्षित रहते हैं। इसके बाद अगली फसल की बुवाई के साथ प्रति हेक्टेयर 50 किलोग्राम यूरिया के उपयोग से भूसा एक महीने में जैविक पदार्थ में बदल जाता है, जिससे अगली फसल पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता।

हालांकि, इंसिटू प्रबंधन केवल तभी संभव होगा जब कॉम्बाइन हार्वेस्टर में "स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम" लगाया जाए, जो भूसे को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट सके।

सरकार को कानूनी रूप से अनिवार्य करना चाहिए कि सभी कॉम्बाइन हार्वेस्टर मालिक अपनी मशीनों में "स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम" लगवाएं। इससे छोटे किसान पारंपरिक कृषि उपकरणों जैसे हारो का उपयोग करके आसानी से भूसे को मिट्टी में मिला सकेंगे। इससे समय पर अगली फसल की बुवाई संभव होगी, पराली जलाने की समस्या खत्म होगी, और वायु प्रदूषण नियंत्रित होगा। इसके साथ ही मिट्टी की उपजाऊ क्षमता, जल धारण क्षमता, और वायु संचार बेहतर होगा। यह समाधान सभी संबंधित पक्षों के लिए लाभकारी सिद्ध होगा।

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