आज जिस तरह से कृषि और मवेशियों में एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग बढ़ रहा है वो मानव प्रतिरक्षा प्रणाली को खतरे में डाल रहा है। वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि जिस तरह से खेतों और मवेशियों पर एंटीबायोटिक दवाओं का अंधाधुंध इस्तेमाल हो रहा है उससे ऐसे बैक्टीरिया सामने आए हैं जो मानव प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए कहीं ज्यादा प्रतिरोधी हैं।
यह जानकारी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से जुड़े वैज्ञानिकों के नेतृत्व में किए नए अध्ययन में सामने आई है। इस रिसर्च के नतीजे 25 अप्रैल 2023 को जर्नल ई-लाइफ में प्रकाशित हुए हैं। रिसर्च के मुताबिक फार्म में पाले गई सूअर और मुर्गियां बड़े पैमाने पर इन प्रतिरोधी बैक्टीरिया का स्रोत हो सकती हैं, जो भविष्य में महामारियों को फैला सकती हैं।
रिसर्च से पता चला है कि चीन के फार्म्स में एंटीबायोटिक कोलिस्टिन का दशकों तक धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया था, जिससे सूअरों और मुर्गियों को बेहतर और जल्द तैयार किया जा सके। लेकिन इस एंटीबायोटिक के बेतहाशा उपयोग से बैक्टीरिया एस्चेरिकिया कोलाई (ई-कोलाई) के ऐसे उपभेदों का उदय हुआ, जो हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली की पहली पंक्ति में सेंध लगा सकते थे, और उनकी इससे बचने की सम्भावना अधिक थी।
हालांकि चीन की सरकार ने 2016 में मवेशियों में कोलिस्टिन के उपयोग को प्रतिबंधित कर दिया था, लेकिन इस रिसर्च के नतीजे दर्शाते हैं कि कृषि में इस तरह की एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक उपयोग इंसानी स्वास्थ्य के लिए नए खतरे पैदा कर सकता है। गौरतलब है कि चीन अकेला देश नहीं है जहां मवेशियों को जल्द तैयार करने और बेहतर बनाने के लिए इन एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किया जा रहा है। आज दुनिया के कई देश धड़ल्ले से इन दवाओं का उपयोग कर रहे हैं, इनमें भारत भी शामिल है।
क्या कुछ निकलकर आया अध्ययन में सामने
इस बारे में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से जुड़े और शोध का नेतृत्व करने वाले प्रोफेसर क्रेग आर मैकलीन का कहना है कि, "यह संभावित रूप से एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोध से कहीं ज्यादा खतरनाक है। यह कृषि में एंटीबायोटिक्स के अंधाधुंध उपयोग के खतरे पर प्रकाश डालता है।" उनके अनुसार मोटी मुर्गियां पाने के लिए हमने गलती से अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली से ही खिलवाड़ कर लिया है।
उन्होंने आगे बताया कि अध्ययन स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि कोलिस्टिन जैसे एंटीबायोटिक पेप्टाइड्स का इंसानों द्वारा बेतहाशा उपयोग मनुष्यों और जानवरों में उनके जन्म के साथ पैदा हुई प्रतिरक्षा प्रणाली के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर रहा है। ऐसे में स्वास्थ्य क्षेत्र में इस तरह के एंटीबायोटिक पेप्टाइड्स के डिजाइन और उपयोग की जरूरत है जो इस खतरे से बच सकें। इससे पता चलता है कि भले ही कृषि में इस तरह के एंटीबायोटिक पेप्टाइड का उपयोग बंद भी कर दिया जाए तो भी प्रतिरोधी जीन को वातावरण से खत्म करना मुश्किल हो सकता है।
कोलिस्टिन, जिसे एंटीमाइक्रोबियल पेप्टाइड्स (एएमपी) के रूप में जाना जाता है, इसकी तरह की नई एंटीबायोटिक दवाओं को विकसित करने से पहले वैज्ञानिकों का सुझाव है कि इनसे जुड़े खतरों पर भी ध्यान देने की जरूरत है।
देखा जाए तो एएमपी अधिकांश जीवित जीवों द्वारा उनकी सहज प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया में निर्मित यौगिक होते हैं, जो उनमें संक्रमण के खिलाफ रक्षा की पहली पंक्ति होते हैं। वहीं कोलिस्टिन एक जीवाणु आधारित एएमपी है, जो रोगाणु प्रतिस्पर्धियों के खिलाफ खुद को ढालने के लिए यौगिकों का उपयोग करते हैं - लेकिन वो रासायनिक रूप से मानव प्रतिरक्षा प्रणाली में बनने वाले कुछ एएमपी के जैसे ही हैं।
दुनिया भर में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स एक बड़ा खतरा बन चुका है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जर्नल लैंसेट में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेन्स (एएमआर) मलेरिया और एड्स से भी ज्यादा लोगों की जान ले रहा है। आंकड़े दर्शाते हैं कि 2019 में इसने सीधे तौर पर 12.7 लाख लोगों की जान ली थी। वहीं अनुमान है कि इस वर्ष में जान गंवाने वाले 49.5 लाख लोग कम से कम एक दवा प्रतिरोधी संक्रमण से पीड़ित थे।
2050 तक हर साल एक करोड़ जिंदगियों को लील लेंगे 'सुपरबग्स'
वहीं संयुक्त राष्ट्र ने आगाह किया है कि 2050 तक सुपरबग्स साल में कम से कम एक करोड़ लोगों को लील लेंगें। ऐसे में उनसे निपटने के लिए नई एंटीबायोटिक दवाओं की आवश्यकता होगी। वहीं विश्व बैंक का अनुमान है कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध का इलाज कराने के लिए अस्पताल के चक्कर लगाने से 2030 तक और 2.4 करोड़ लोग गरीबी के गर्त में जा सकते हैं।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स तब पैदा होता है, जब रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीव जैसे बैक्टीरिया, कवक, वायरस, और परजीवी रोगाणुरोधी दवाओं के लगातार संपर्क में आने के कारण अपने शरीर को इन दवाओं के अनुरूप ढाल लेते हैं। शरीर में आए बदलावों के चलते वो धीरे-धीरे इन एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। नतीजतन, यह दवाएं उन पर असर नहीं करती। इन्हें कभी-कभी "सुपरबग्स" भी कहा जाता है। इनकी वजह से मनुष्य के शरीर में लगा संक्रमण जल्द ठीक नहीं होता।
अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस में छपी एक अन्य रिपोर्ट से पता चला है कि कृषि में बेतहाशा उपयोग के चलते भारत और चीन के पशुओं में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स का खतरा करीब तीन गुना बढ़ गया हैं, जो इंसानो पर मंडराते एक बड़े खतरे की ओर इशारा करता है। इसकी गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दुनिया भर में बेची जाने वाले 73 फीसदी एंटीबायोटिक्स का उपयोग उन जानवरों पर किया जाता है, जिन्हे भोजन के लिए पाला गया है।
बाकी 27 फीसदी एंटीबायोटिकस को मनुष्यों के लिए दवाई और अन्य जगहों पर प्रयोग किया जाता है। हालांकि इसके बावजूद जानवरों में बढ़ रहे एंटीबायोटिक्स रेसिस्टेन्स पर बहुत कम गौर किया जाता है।
सीएसई भी बढ़ते खतरे को लेकर लम्बे समय से करता रहा है आगाह
कुछ समय पहले नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने भी अपने अध्ययन में चेताया था कि पोल्ट्री इंडस्ट्री में एंटीबायोटिक दवाओं के बड़े पैमाने पर धड्ड्ले से होते उपयोग के चलते एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के मामले बढ़ रहे हैं ।
इस बारे में जानी-मानी पर्यावरणविद और सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण का कहना है कि एंटीबायोटिक्स का प्रयाग आज केवल मनुष्यों की दवाई तक ही सीमित नहीं है। इसके अलावा भी कई जगह इनका धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है।
उदाहरण के लिए, पोल्ट्री इंडस्ट्री में मुर्गियों पर बड़े पैमाने पर इनका प्रयोग किया जा रहा है, जिससे मुर्गियों का वजन बढ़ सके और उनका जल्दी विकास हो सके। आपकी जानकारी के लिए बता दें की सीएसई लैब द्वारा भारत में अध्ययन किये गए, चिकन के 40 फीसदी नमूनों में एंटीबायोटिक दवाओं के अंश पाए गए थे।
शोधकर्ताओं के मुताबिक भारत में पोल्ट्री इंडस्ट्री हर साल 10 फीसदी की दर से बढ़ रही है। देखा जाए तो भारत में मांस का जितना सेवन किया जाता है, उसका 50 फीसदी हिस्सा मुर्गियों से प्राप्त होता है। ऐसे में भारत को इस समस्या से निपटने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा। इससे जुड़ी सबसे बड़ी समस्या मवेशियों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स का खतरा और उसके भोजन और पर्यावरण में फैलने से जुड़ा है। ऐसे में जब तक हम जानवरों में इन एंटीबायोटिक दवाओं का दुरुपयोग करते रहेंगे, तब तक एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स की समस्या को हल नहीं कर पाएंगे।