शोध और अनुसंधान के दम पर ही अफ्रीका के बजाए भारत में हुई हरित क्रांति

भारत में कृषि और कृषि शिक्षा की दशा को लेकर डाउन टू अर्थ ने व्यापक पड़ताल की, जिसे एक सीरीज के तौर पर प्रकाशित किया जा रहा है। इस कड़ी में प्रस्तुत है आईसीएआर के पूर्व महानिदेशक आरएस परोडा का लेख
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दुनिया को हरित क्रांति का पाठ पढ़ाने वाले और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता नॉर्मन बोरलॉग से मैंने एक बार पूछा था कि आप अफ्रीका में भी काम कर रहे हैं लेकिन वहां हरित क्रांति क्यों नहीं हुई जबकि भारत में आप ने काम किया और यहां हरित क्रांति हो गई? उनका जवाब था कि अफ्रीका में हरित क्रांति इसलिए नहीं कर पाया क्योंकि न तो वहां भारत की तरह अच्छे कृषि वैज्ञानिक हैं और न ही भारत की तरह अच्छे शोध और अनुसंधान संस्थान। यह मानना ठीक नहीं होगा कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और शोध के अन्य संस्थान बिल्कुल काम नहीं कर रहे हैं। इनके ही बदौलत हमने हरित क्रांति हासिल की है और अब भी इन्हीं संस्थानों और वैज्ञानिकों से उम्मीद बाकी है। हां, इसमें सबसे जरूरी भूमिका युवाओं और सरकारी-निजी साझेदारी की हो सकती है। 


मेरा मानना है कि अगली हरित क्रांति पूर्वी भारत से होगी और यह हरित क्रांति खाद्य सुरक्षा के लिए नहीं बल्कि पोषण सुरक्षा के लिए होगी। जो अनुभव हमें अतीत से हासिल हुए हैं हम उसका इस्तेमाल करेंगे। जब पहले हमारे पास खाने को नहीं था तब हमने हरित क्रांति की, अब हमारे पास निर्यात को है, तब हम पोषण के बारे में सोच रहे हैं। हर चीज चरण-दर-चरण चलती है। आज कृषि शिक्षा लेने वाले युवाओं को भी यह सोचना होगा कि अब वोकेशनल ट्रेनिंग लेकर उद्यमिता की ओर बढ़ने का वक्त है। रोजगार संकट और अवसरों को देखकर लगता है कि युवाओं का रोजगार मांगने से बेहतर होगा कि वे खुद रोजगार मुहैया कराने वाले बनें।

यदि गौर करें तो बीते दो दशक में रिक्त पदों को भरने पर प्रतिबंध लगा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। यह एक वित्तीय मामला है। इसमें सरकार की नीति और अफसरशाही भी बाधा के तौर पर शामिल है। ज्यादातर विश्वविद्यालयों और संस्थानों में रिक्त पदों और नए लोगों को भरने की अनुमति नहीं दी जा रही। इसकी वजह से युवा निजी क्षेत्रों को अपना ठिकाना बना रहे हैं। बैंकिंग, सिविल सेवा आदि में प्रतियोगिता के जरिए पहुंच रहे हैं। इसके अलावा कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा है, जहां रोजगार सृजन किया जा रहा हो। यहां तक कि आईसीएआर में भी कहा जा रहा कि नौकरी नहीं निकाली जा रही है। राज्यों में भी नए कॉलेज और विश्वविद्यालय खुल रहे हैं लेकिन वहां भी नौकरियां नहीं निकाली जा रहीं। राज्य सरकारों को यह सोचना चाहिए। इसके अलावा एक और मुद्दा है जो कृषि शिक्षा के लिए काफी अहम है। लगातार निजी कृषि विश्वविद्यालय और कॉलेज खुल रहे हैं। खासतौर से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र में निजी कॉलेज ज्यादा हैं। इनकी गुणवत्ता निगरानी को लेकर हमें नीति बनानी होगी। जिस तरह वेटनरी और मेडिकल क्षेत्र की काउंसिल गुणवत्ता निगरानी और संबद्धता का काम करती हैं, इसी तरह कृषि शिक्षा के लिए भी एक नई काउंसिल निगरानी और संबद्धता के लिए बनाई जानी चाहिए।

कृषि की उन्नति के लिए सरकार और निजी क्षेत्र के बीच साझेदारी और निवेश का पहलू भी काफी अहम है। यदि देखें तो देश में सार्वजनिक निवेश घटाकर कृषि में निजी निवेश बढ़ाने का फार्मूला कामयाब नहीं हुआ है। पंजाब और हरियाणा में हरित क्रांति इसलिए भी सफल हो गई थी क्योंकि वहां सड़कें, बिजली और पानी निकासी की सुविधा को सरकार ने किसानों तक पहुंचा दिया था। अब निजी क्षेत्र इन बुनियादी चीजों में पैसा नहीं लगाना चाहता। प्राथमिक कार्य सरकार को ही करना होगा। खासतौर से पूर्वी भारत में सड़कें, बिजली और अन्य बुनियादी जरूरतों में जब तक सार्वजनिक निवेश नहीं होगा तब तक निजी और सरकारी साझेदारी का मॉडल खड़ा नहीं हो पाएगा। मेरा यह मजबूती के साथ मानना है कि गुणवत्तापूर्ण बीजों का किसानों को वितरण निजी क्षेत्र के जरिए ही संभव है। क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्रों से तैयार किए गए नए बीज सिर्फ वैज्ञानिक की प्रोन्नति का जरिया बन जाते हैं, वे किसानों के हाथ में नहीं पहुंचते।

इसके अलावा किसानों को कर्ज देने की प्रक्रिया की भी समीक्षा करनी होगी। किसी किसान के जमीन की लागत जितनी होती है उसका बहुत कम मूल्य आंका जाता है और उसके बदले उसे जमीन गिरवी रखकर बहुत ही कम पैसे हासिल होते हैं। इस तरह वह अन्य काम के लिए अपनी जमीन से पैसा हासिल नहीं कर सकता। इसे भी देखना और बेहतर करना होगा।

हर जगह शोध और अनुसंधान को लेकर अच्छे प्रदर्शन नहीं मिल रहे हैं। औसत प्रदर्शन बरकरार है। आज जलवायु परिवर्तन एक बड़ी समस्या बन गई है। इसलिए छोटी अवधि में अच्छी पैदावार देने वाले बीज किए जा रहे हैं। मिसाल के तौर पर 120 दिन वाले बाजरा को हमने 70 से 80 दिन में तैयार होने वाले बाजरा में बदल दिया है। नई बीमारियां और तापमान का बढ़ना आदि चुनौती का सामना किया जा रहा है। यह आईसीएआर और अन्य संस्थानों के शोध और अनुसंधान का ही नतीजा है कि बीते 40 वर्षों में भारतीय कृषि में उत्पादन और उत्पादकता दोनों बढ़ी है। भारत का मौजूदा अनाज उत्पादन 29 करोड़ टन तक पहुंच चुका है। भारत 1988-89 में 15.0 करोड़ टन अनाज पैदा करता था। 1950 से अब कपास, जूट, तिलहन आदि फसलों का उत्पादन लगभग दोगुना हो चुका है।

(आरएस परोडा आईसीएआर के पूर्व महानिदेशक हैं। यह लेख विवेक मिश्रा के साथ बातचीत पर आधारित)

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