किसान नहीं, कॉरपोरेट के लिए बनाए गए हैं कृषि कानून

कृषि कानूनों से नाराजगी जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के संयोजक वीएम सिंह से बातचीत की
वीएम सिंह, संयोजक राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन
वीएम सिंह, संयोजक राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन
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देश में नए कृषि कानूनों के विरोध में किसान लगातार धरने प्रदर्शन कर रहे हैं। इस विरोध की वजह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के संयोजक वीएम सिंह से बातचीत की। प्रस्तुत हैं, बातचीत के मुख्य अंश-

देश में तीन कृषि कानून बनने के साथ ही खरीफ सीजन की खरीद भी शुरू हो गई है। नए कानूनों का इस खरीद सीजन पर क्या प्रभाव देख रहे हैं?

यह कानून अभी नहीं बने हैं, बल्कि किसान के लिए 6 जून को ही बन गए थे। 6 जून को यह अध्यादेश जारी हुआ था और इसके बाद देश भर में पहली खरीद जुलाई-अगस्त में मक्का की हुई थी। मक्का का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1760 रुपए था, लेकिन सरकारी खरीद नहीं की गई, इसलिए किसानों ने जुलाई में व्यापारियों को 500 से 600 रुपए क्विंटल की दर से मक्का बेचा और अभी भी 900 रुपए क्विंवटल से भी कम दर पर बिक रहा है।

रही बात, खरीफ सीजन की खरीद की तो काननू बनने के बाद जब किसानों ने धरने-प्रदर्शन शुरू किए तो सरकार ने चार दिन पहले खरीद शुरू कर दी, ताकि यह दिखाया जा सके कि सरकार एमएसपी पर खरीद जारी रखेगी, परंतु एमएसपी का दिखावा पंजाब-हरियाणा में किया जा रहा है। वहां भी किसानों को परेशान किया जा रहा है, लेकिन बड़ा धान उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में तो एमएसपी पर खरीद की ही नहीं जा रही। यही वजह है कि किसान 1,000 से लेकर 1,200 रुपए क्विंवटल की दर से धान बेच रहे हैं। यहां तक कि बासमाती चावल भी मोटा धान के एमएसपी से कम कीमत पर बिक रहा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो किसान 600 से 800 रुपए क्विंटल की दर से मोटा धान व्यापारियो को बेच रहा है। 

सरकार का कहना है कि किसान अब मंडी से बाहर भी अपनी उपज बेच सकता है?

(टोकते हुए ) लेकिन…, किस कीमत पर बेच सकता है? यह आप आजकल देख सकते हो। व्यापारी पिछले साल से भी काफी कम कीमत पर धान, मक्का, बाजरा खरीद रहा है। किसान की क्षमता नहीं है कि वह अपने पास अपनी उपज को स्टोर कर सके तो वह औने-पौने दामों में बेच रहा है। हम यही चाहते हैं कि सरकार कानून में लिख दे कि देश में कही भी एमएसपी से कम कीमत पर किसान की उपज नहीं खरीदी जाएगी।

सरकार कहती है कि किसान अब आजाद हो गया है?

किसान पहले भी आजाद था। किसान अपनी फसल कहीं भी बेच सकता था। प्याज नासिक, महाराष्ट्र में उगता था, लेकिन खाया पूरे देश में जाता है। सेब कश्मीर में उगता है, लेकिन पूरे देश में पहुंच जाता है। सवाल यह है कि कितने किसानों की क्षमता है कि वे अपनी फसल अपने जिले से बाहर बेचने ले जाए। देश में लगभग 86 फीसदी किसान ऐसे हैं, जिनके पास दो से ढाई एकड़ खेती की जमीन है। उसकी इतनी क्षमता नहीं होती कि वह लंबे समय तक अपनी फसल को कहीं स्टोर कर सके या कहीं दूर जाकर बेच सके। जिन किसानों की क्षमता होती है कि वे दूसरे राज्यों में जाकर फसल बेचें तो वहां राज्य सरकारें रोकने लगती हैं।

सरकार का कहना है कि किसान को तीन दिन के भीतर भुगतान करना होगा?

तीन दिन के भीतर नहीं, बल्कि तीन वर्किंग डे यानी अगर कोई छुट्टी आ जाए तो वो नहीं मानी जाएगी। फिर तीन दिन के भीतर भुगतान क्यों किया जाएगा। एक हाथ ले, दूसरे हाथ दे का हिसाब होना चाहिए। किसान ने अपनी उपज बेची, तुरंत भुगतान होना चाहिए। गन्ना किसानों को 14 दिन के भीतर भुगतान करने का प्रावधान है, लेकिन गन्ना किसानों को 14 महीने तक उसका पैसा नहीं मिलता। धरने-प्रदर्शन करने पड़ते हैं। नए कानून में तो सरकार ने कोर्ट जाने के रास्ते भी बंद कर दिए हैं। अगर किसान को तीन दिन में पैसा नहीं मिलता तो वह एसडीएम के चक्कर काटेगा। सोचिए, नए कानून के हिसाब से कीमत अच्छी मिलती देख पीलीभीत का किसान अगर किसान आ जाता है और व्यापारी तीन दिन बाद पेमेंट देने की बात करता है तो क्या किसान तीन दिन इंतजार करेगा और अगर व्यापारी नहीं देता है तो क्या किसान दिल्ली के एसडीएम कार्यालय के चक्कर काटेगा? कानून में किसान के लिए कुछ भी व्यवहारिक नहीं है। तीनों कानून कॉरपोरेट के लिए हैं।

कृषि मंत्री कह रहे हैं कि नए कानून में ऐसी व्यवस्था की गई है कि आपदा आने पर किसान को नुकसान नहीं होगा?

यह बात गलत है कि कानून की सेक्शन-14 में लिखा गया है कि आपदा आने पर किसान को एडवांस में खाद-बीज के लिए दिया गया एडवांस वापस नहीं लिया जाएगा, लेकिन आपदा की वजह से फसल का जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई कौन करेगा, इसका जिक्र विधेयक में नहीं है।

सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन किया है, इससे आम उपभोक्ता को कोई फायदा होगा?

इन कानूनों से न तो किसान को फायदा होगा और न उपभोक्ता को। जिन लोगों को लगता है कि इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं है। लेकिन उन्हें यह जरूर सोचना चाहिए कि तीन कृषि कानून बनते ही आलू की कीमत 80 से 90 रुपए किलो क्यों पहुंच गई। क्योंकि सरकार ने व्यापारियों की होल्डिंग की सीमा खत्म कर दी है। किसान से यही आलू 3 से 5 रुपए में खरीदा गया। चूंकि आलू को लंबे समय तक स्टोर नहीं कर सकता, इसलिए मजबूरन किसान सारा आलू बेच देता है और कुछ समय बाद अपने खाने के बाद वही आलू मार्केट से कई गुणा अधिक कीमत पर खरीदता है।

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