अपने बच्चे के साथ समुद्र में विचरती एक मां बॉटलनोज डॉल्फिन; फोटो: आईस्टॉक 
प्रदूषण

डॉल्फिन की सांसों में भी मिले माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी के सबूत

यह बेहद चिंता का विषय है क्योंकि वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सिर्फ महासागरों में ही माइक्रोप्लास्टिक्स के 170 लाख करोड़ टुकड़े मौजूद हैं

Lalit Maurya

क्या आप जानते हैं कि हम इंसानों की तरह ही डॉल्फिन भी अपनी सांसों के जरिए माइक्रोप्लास्टिक्स को निगल रही हैं। एक नए अध्ययन में पहली बार वैज्ञानिकों को डॉल्फिन की सांसों में माइक्रोप्लास्टिक्स की मौजूदगी के साक्ष्य मिले हैं। जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि दुनिया भर के करीब-करीब सभी पारिस्थितिकी तंत्रों में मौजूद प्लास्टिक के यह महीन कण अब डॉल्फिन जैसे जीवों के फेफड़ों में भी राह बना रहे हैं।

अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों को डॉल्फिन द्वारा छोड़ी गई सांस में माइक्रोप्लास्टिक्स के होने का पता चला है कि जो दर्शाता है कि प्लास्टिक के यह महीन कण इन समुद्री जीवों द्वारा न केवल निगले जा सकते हैं, बल्कि वो सांस के जरिए फेफड़ों तक में अपनी पैठ बना सकते हैं।

ऐसे में समुद्री जीवों के स्वास्थ्य को लेकर वैज्ञानिकों की चिंताएं बढ़ गई हैं।

यह बेहद चिंता का विषय है क्योंकि वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सिर्फ महासागरों में ही माइक्रोप्लास्टिक्स के करीब 170 लाख करोड़ टुकड़े मौजूद हैं। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल प्लोस वन में प्रकाशित हुए हैं।

इस अध्ययन में चार्ल्सटन कॉलेज से जुड़े शोधकर्ताओं ने फ्लोरिडा के सारासोटा खाड़ी और लुइसियाना के बारातारिया खाड़ी में मौजूद बॉटलनोज डॉल्फिन द्वारा छोड़ी सांस के नमूने एकत्र किए हैं। इन डॉल्फिन को उनके स्वास्थ्य की जांच के लिए अस्थाई रूप से पकड़ा गया था।

अध्ययन के मुताबिक जिन 11 डॉल्फिनों की जांच की गई, उन सभी की सांसों में माइक्रोप्लास्टिक्स के होने की पुष्टि हुई है। इसमें कपड़ों के रेशे और सामान्य प्लास्टिक के टुकड़े शामिल थे।

रिसर्च में यह भी सामने आया है कि डॉल्फिन की सांस के नमूनों में पाए गए प्लास्टिक कणों का एक बड़ा हिस्सा पॉलिएस्टर था। इस प्लास्टिक को आमतौर पर कपड़ों में इस्तेमाल किया जाता है। जब पॉलिएस्टर से बने कपड़ों को खासकर गर्म पानी में धोया जाता है, तो वे पर्यावरण में प्लास्टिक के महीन रेशे छोड़ते हैं, जो आखिरकार हवा में मिल सकते हैं।

यह रिसर्च इस बात की भी पुष्टि करती है कि समुद्री वातावरण में प्लास्टिक न केवल समुद्रों के जल में बल्कि उसके ऊपर हवा में भी मौजूद है। दुनिया में आज शायद ही कोई ऐसी जगह बची है, जहां प्लास्टिक के यह महीन कण मौजूद न हों।

धरती का कोई हिस्सा नहीं बचा प्लास्टिक से अनछुआ 

बता दें कि प्लास्टिक के अत्यंत महीन कणों को माइक्रोप्लास्टिक के नाम से जाना जाता है। इन कणों का आकार एक माइक्रोमीटर से पांच मिलीमीटर के बीच होता है। प्लास्टिक के इन बेहद छोटे टुकड़ों में भी जहरीले प्रदूषक और केमिकल्स होते हैं, जो स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा सकते हैं।

वैज्ञानिकों को हिमालय की ऊंची चोटियों से लेकर समुद्र की गहराई में यहां तक की हवा और बादल में भी भी प्लास्टिक के इन महीन कणों की मौजूदगी के सबूत मिले हैं। यहां तक की आज जिस वातावरण में हम सांस ले रहे हैं वो भी स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित नहीं रह गया है।

स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों को उजागर करते हुए अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता और कॉलेज ऑफ चार्ल्सटन में एसोसिएट प्रोफेसर लेस्ली हार्ट का कहना है, सांस के जरिए इंसानों के शरीर में पहुंचने वाले प्लास्टिक के यह महीन कण फेफड़ों में सूजन की वजह बन सकते हैं। इसकी वजह से ऊतकों को नुकसान हो सकता है।

इतना ही नहीं इसकी वजह से बलगम की अधिकता, निमोनिया, ब्रोंकाइटिस, घाव और कैंसर जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं।" उनके मुताबिक चूंकि डॉल्फिन भी इंसानों की तरह ही प्लास्टिक के कणों को सांसों के जरिए निगल रही हैं, इसलिए उनमें भी इसी तरह की समस्याएं हों सकती हैं।

हालांकि शोधकर्ताओं के मुताबिक प्लास्टिक के महीन कण डॉल्फिन के फेफड़ों को किस हद तक प्रभावित कर सकते हैं इस बारे में जानकारी नहीं है। उनके मुताबिक यह अध्ययन इस बात को समझने की शुरूआत मात्र है कि यह जीव माइक्रोप्लास्टिक से कैसे प्रभावित होते हैं।

उनके मुताबिक इंसानों के स्वास्थ्य पर माइक्रोप्लास्टिक के बढ़ते प्रभावों को लेकर अध्ययन हुए हैं, लेकिन समुद्री जीवों पर इस तरह के अध्ययन अभी भी अपने शुरूआती चरणों में है। लेकिन साथ ही शोधकर्ताओं के मुताबिक डॉल्फिन के फेफड़ों की क्षमता अधिक होती है और गहरी सांस लेने के कारण उन्हें कहीं ज्यादा खतरा हो सकता है।

समुद्री इकोसिस्टम पर मंडरा रहे हैं संकट के बादल

अंग्रेजी वेबसाइट कन्वर्सेशन पर शोधकर्ताओं ने जो जानकारी साझा की है उसके मुताबिक अपने लम्बे जीवन के साथ बॉटलनोज डॉल्फिन समुद्रों की शीर्ष शिकारियों में शामिल हैं। ऐसे में उनपर किया अध्ययन यह समझने में मददगार हो सकता है कि प्रदूषक समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र और तटीय समुदायों को कैसे प्रभावित कर रहा है। यह समझना महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया की 41 फीसदी से अधिक आबादी तटों के 100 किलोमीटर के दायरे में रहती है।

आज हमारे भोजन, पानी और जिस हवा में हम सांस लेते हैं उसमें भी यह हानिकारक कण घुल चुके है, जो धीरे-धीरे हमारे शरीर में जगह बना रहे हैं। विशेषज्ञों ने यह भी चेताया है कि प्लास्टिक कोशिकाओं तक में घुसपैठ कर रहा है, और उनमें बदलाव कर रहा है।

गौरतलब है कि हाल ही में जर्नल जामा नेटवर्क ओपन में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में वैज्ञानिकों को पहली बार मानव मस्तिष्क के उस हिस्से में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी के सबूत मिले थे, जो सूंघने की क्षमता को नियंत्रित करता है।

इससे पहले वैज्ञानिकों इंसानी रक्त, नसों, फेफड़ों, गर्भनाल, लीवर, किडनी, अस्थि मज्जा, प्रजनन अंगों, घुटने और कोहनी के जोड़ों के साथ अन्य अंगों में भी माइक्रोप्लास्टिक्स के मौजूद होने की पुष्टि कर चुके हैं। यहां तक की इंसानी रक्त, दूध, सीमन और यूरीन में भी इसकी मौजूदगी के सबूत मिले हैं। जो एक बड़े खतरे की ओर इशारा करता है।

एक अन्य अध्ययन के हवाले से पता चला है कि हम इंसान अपनी सांस के जरिए हर घंटे माइक्रोप्लास्टिक्स के करीब 16.2 कण निगल सकते हैं। निगले गए इस प्लास्टिक्स की मात्रा कितनी ज्यादा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यदि हफ्ते भर निगले गए इन कणों को जमा किया जाए तो इनसे एक क्रेडिट कार्ड बनाने जितना प्लास्टिक इकट्ठा हो सकता है।

हाल में अंतराष्ट्रीय वैज्ञानिको ने प्लास्टिक में करीब 16,325 केमिकल्स के मौजूद होने की पुष्टि की है। इनमें से 26 फीसदी केमिकल इंसानी स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी चिंता का विषय हैं।

ऐसे में प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग को सीमित करना बेहद जरूरी है। इसके साथ ही इस बढ़ते खतरे को नियंत्रित करने के लिए प्लास्टिक कचरे का उचित प्रबंधन भी जरूरी है, ताकि वातावरण में तेजी से बढ़ती इसकी मात्रा को सीमित किया जा सके।