वातावरण में माइक्रोप्लास्टिक का बढ़ता जहर; फोटो: आईस्टॉक 
स्वास्थ्य

माइक्रोप्लास्टिक से फेफड़ों की कोशिकाओं में हो सकते हैं कैंसर जैसे घातक बदलाव

स्टडी से पता चला है कि सांसों के साथ माइक्रोप्लास्टिक के कण शरीर में भर रहे हैं, जो न केवल फेफड़ों की कोशिकाओं को नुकसान पहुंचा रहे हैं, बल्कि उन्हें कैंसर की दिशा में भी धकेल सकते हैं

Lalit Maurya

हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में इस्तेमाल होने वाला प्लास्टिक अब सांसों के जरिए फेफड़ों तक पहुंच रहा है, चिंता की बात है कि प्लास्टिक के ये महीन कण धीरे-धीरे फेफड़ों में कैंसर जैसी बीमारियों के बीज बो रहे हैं।

मेडिकल यूनिवर्सिटी ऑफ विएना के वैज्ञानिकों ने अपने नए अध्ययन में खुलासा किया है कि हवा में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक और नैनोप्लास्टिक के कण ने केवल शरीर में प्रवेश कर रहे हैं, बल्कि वो फेफड़ों की स्वस्थ कोशिकाओं में कैंसर जैसी घातक जैविक प्रतिक्रियाएं भी पैदा कर सकते हैं।

यह पहला मौका है जब वैज्ञानकों ने दिखाया है कि ये कण न केवल फेफड़ों की कोशिकाओं को नुकसान पहुंचा रहे हैं, साथ ही उन्हें कैंसर की दिशा में भी धकेल सकते हैं। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल ऑफ हैजर्डस मैटेरियल्स में प्रकाशित हुए हैं, जो प्लास्टिक प्रदूषण को लेकर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता को एक बार फिर जोरदार तरीके से रेखांकित करते हैं।

माइक्रोप्लास्टिक हमारे जीवन में इस कदर रच बस गए हैं, उन्हें दूर करना आसान नहीं है। प्लास्टिक के यह महीन कण आज धरती पर करीब-करीब हर जगह मौजूद हैं। अंटार्कटिका की बर्फ से महासागरों की अथाह गहराइयों में भी इनकी मौजूदगी किसी से छिपी नहीं है।

यह कण बादलों, पहाड़ों, मिट्टी यहां तक की जिस हवा में हम सांस लेते हैं, उसमें भी मौजूद हैं। हमारा खाना-पानी भी इनसे अनछुआ नहीं रह गया है। इतना ही नहीं माइक्रोप्लास्टिक मानव रक्त, फेफड़ों, दिमाग सहित अन्य महत्वपूर्ण अंगों तक में अपनी पैठ बना चुके हैं।

खतरनाक है रोजमर्रा में इस्तेमाल होने वाला प्लास्टिक

अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने जांचा है कि पॉलीस्टाइरीन (पीएस) से बने माइक्रो और नैनोप्लास्टिक कण फेफड़ों की अलग-अलग कोशिकाओं पर कैसे असर डालते हैं। बता दें कि पॉलीस्टाइरीन वह प्लास्टिक है जो दही के कप, से लेकर खाने की पैकेजिंग जैसी चीजों में आमतौर पर इस्तेमाल होता है।

अध्ययन से पता चला है कि फेफड़ों की स्वस्थ कोशिकाएं प्लास्टिक के बेहद महीन (0.00025 मिमी) कणों को कैंसर कोशिकाओं की तुलना में कहीं अधिक मात्रा में अवशोषित करती हैं। इस अवशोषण के बाद कोशिकाओं में डीएनए क्षति, ऑक्सीडेटिव तनाव, और कैंसर से जुड़ी जैविक गतिविधियां बढ़ने लगती हैं, जो माइक्रोप्लास्टिक के स्वास्थ्य से जुड़े खतरों की ओर इशारा करती हैं।

कैंसर की दिशा में बढ़ते कदम

स्टडी में पाया गया कि माइक्रोप्लास्टिक के संपर्क में आने के बाद स्वस्थ कोशिकाओं में डीएनए को सुधारने की क्षमता घट गई, ऑक्सीडेटिव तनाव बढ़ा और साथ ही कुछ ऐसे सिग्नलिंग पथ सक्रिय हो गए जो कोशिका की वृद्धि को बढ़ावा देते हैं।

ये सभी बदलाव कैंसर की शुरुआती अवस्था के संकेत के रूप में जाने जाते हैं। अध्ययन से जुड़ी प्रमुख वैज्ञानिक करिन शेल्च के मुताबिक, "सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि स्वस्थ कोशिकाएं डीएनए की क्षति को ठीक नहीं कर पा रही थीं, जबकि साथ ही वे ऐसे रास्तों को सक्रिय कर रही थीं जो सामान्यतः कोशिका में वृद्धि को बढ़ाते हैं।"

हालांकि यह अध्ययन साफ तौर पर माइक्रोप्लास्टिक के खतरों की ओर इशारा करता है, लेकिन इन कणों के लम्बी अवधि में क्या प्रभाव होंगें वे अभी भी स्पष्ट नहीं हैं। यह सही है कि फेफड़े हवा में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक के संपर्क में आने का एक प्रमुख रास्ता माने जाते हैं, लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं था कि ये सूक्ष्म कण फेफड़ों की कोशिकाओं पर कैसे असर डालते हैं।

अब उपलब्ध आंकड़ों से यह शुरुआती संकेत मिले हैं कि खासतौर पर फेफड़ों की स्वस्थ कोशिकाएं ऐसे बदलाव दिखा रही हैं जो चिंता का विषय हैं। अध्ययन से जुड़े अन्य वैज्ञानिक बलाज डोमे का प्रेस विज्ञप्ति में कहना है, "नई जानकारी यह दर्शाती है कि खासकर स्वस्थ फेफड़ों की कोशिकाएं चिंताजनक तरीके से प्रतिक्रिया देती हैं।"

स्वस्थ कोशिकाएं ज्यादा प्रभावित

दिलचस्प बात यह रही कि जहां कैंसर कोशिकाओं पर इन कणों का खास असर नहीं पड़ा, वहीं स्वस्थ कोशिकाएं थोड़े समय के लिए संपर्क में आने पर भी गंभीर रूप से प्रभावित हुईं। वैज्ञानिको के मुताबिक पॉलीस्टायरीन कणों के प्रभाव में आने पर कोशिकाओं की रक्षा प्रणाली भी सक्रिय हो गई।

अध्ययन से जुड़ी वैज्ञानिक बुसरा एर्नहोफर के मुताबिक "कोशिकाएं अपने एंटीऑक्सिडेंट सुरक्षा तंत्र को सक्रिय कर रही थीं, यह इस बात का संकेत है कि वे प्लास्टिक कणों से होने वाले तनाव से खुद को बचाने की कोशिश कर रही थीं।"

यह अध्ययन प्लास्टिक के बढ़ते प्रदूषण, फेफड़ों की पुरानी बीमारियों और कैंसर के बीच संभावित संबंध को लेकर नए सवाल खड़े करता है। साथ ही इस बात पर जोर देता है कि पर्यावरणीय चिकित्सा और कैंसर जीवविज्ञान के बीच समन्वित शोध की जरूरत है। इसके साथ ही दुनिया में तेजी से बढ़ते प्लास्टिक कचरे को कम करने के लिए तुरंत कदम उठाए जाने चाहिए।