जून 2025 में गुजरात में 4,564 ग्राम पंचायत चुनाव हुए। इस चुनाव की खास बात यह है कि इनमें 761 ग्राम पंचायतें ‘समरस’ चुनी गई। समरस यानी निर्विरोध चुनी गई पंचायत। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब से राज्य में इन समरस पंचायतों को सरकार की ओर से आर्थिक रूप से प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसे मॉडल मानते हुए कुछ राज्यों ने भी निर्विरोध पंचायतों को आर्थिक प्रोत्साहन देना शुरू किया है। डाउन टू अर्थ ने इनमें से कुछ पंचायतों का दौरा किया। पहले आपने जूनागढ़ के गांव की कहानी पढ़ी, उसके बाद बनासकांठा जिले के गांव गठावन और उकारडा की कहानी आपने पढ़ी । आज पढ़ें एक और गांव की कहानी-
सत्याशा 25 साल की हैं। वह गुजरात के साबरकांठा जिले के गांव वड़वासा की रहने वाली हैं। जब वह नौंवी कक्षा में थी तो अपने गांव से 7 किमी दूर स्थित शहर में सुबह पढ़ने जाती और शाम को ट्यूशन पढ़कर ही लौटती। उनका गांव राष्ट्रीय राजमार्ग से डेढ़ किलोमीटर दूरी पर हैं। राजमार्ग तक आने-जाने के लिए उन्हें रोजाना मुसीबतें झेलनी पड़ती।
किसी तरह गांव में रहते हुए 12वीं करने के बाद वह पिता के साथ अहमदाबाद चली गई और वहां से आगे की पढ़ाई की। अब वह एक वकील है, अहमदाबाद हाई कोर्ट में प्रेक्टिस करती हैं, लेकिन गांव की मुश्किलें उन्हें भूलती नहीं थी। यही वजह थी कि वह जब कभी गांव आती तो बेचैन हो उठती।
गांव की हालत उन्हें बेचैन कर देते। अभी भी गांव में आठवीं तक का ही स्कूल है। बहुत सी बच्चियां आगे पढ़ने के लिए अपनी साइकिलों या दूसरे साधनों से दूसरे गांव के स्कूल जाती हैं तो गरीब परिवार की बच्चियां आठवीं के बाद स्कूल छोड़ देती हैं। गांव के कई मोहल्लों में गंदगी, सड़कों पर गंदा पानी खड़ा है। रात को घर से बाहर निकलने के लिए मोबाइल की टॉर्च जलानी पड़ती है।
इसी बेचैनी ने सत्याशा को गांव के हालात बदलने के लिए सरपंच का चुनाव लड़ने को प्रेरित किया। पढ़ाई के साथ साथ छात्र राजनीति में सक्रिय होने की वजह से वह केरल गई थी।
केरल जैसे गांव उनका भी हो, यही सोच कर उन्होंने इस बार पंचायत चुनाव लड़ने का फैसला लिया, लेकिन यहां से उनके लिए नई मुसीबत खड़ी हो गई। उन पर दबाव बनाया गया कि वह चुनाव न लड़ें।
नामांकन से पहले दो दिन तक लगातार गांव में बैठकें की गई। बुजुर्गों का तर्क था कि चुनाव न हों, बल्कि “समरस” हो। यानी, सरपंच के लिए निर्विरोध चुनाव किया जाए और एक ही व्यक्ति नामांकन करे, क्योंकि ऐसा करने पर गांव को राज्य सरकार की ओर से अतिरिक्त ग्रांट मिल जाएगी।
सत्याशा ने इसे अपने चुनाव लड़ने के अधिकार को चुनौती माना और समरस से इंकार कर दिया। गांव के युवा भी सत्याशा के समर्थन में थे। उनके पिता पर दबाव बनाया गया कि वे सत्याशा को मनाएं। पिता ने भी बेटी पर दबाव बनाया कि गांव के बड़े बुजुर्गों की बात मान ले, लेकिन वह नहीं मानी और नामांकन भर दिया।
तय दिन चुनाव हुआ और 25 वर्षीय सत्याशा जगदीशचंद्र लेउवा 104 मतों से जीत गईं।
एक सामाजिक कार्यकर्ता व छात्र नेता होने के कारण सत्याशा गांव की समस्याओं का समाधान जानती हैं। यही वजह है कि गांव के युवाओं ने उनका खूब साथ दिया।
लेकिन कुछ सवाल अभी भी सत्याशा के लिए चुनौती बन गए हैं। वह कहती हैं, " मैं चुनाव तो जीत गई हूं, लेकिन मानसिक प्रताड़ना अब भी जारी है। बड़े-बुजुर्ग आज भी ताना मारते हैं कि जीत तो गई, पर गांव के काम के लिए ग्रांट कहां से लाएगी?" यह कहते-कहते उनके चेहरे पर कठोरता उतर आती है।
दरअसल समरस पंचायतों को लेकर जिस तरह राज्य सरकार द्वारा प्रोत्साहित किया जाता रहा है। उस पर शुरू से ही सवाल उठते रहे हैं।
सत्याशा डाउन टू अर्थ से कहती हैं, "संविधान में चुनाव लड़ना और गुप्त मतदान (सीक्रेट वेलेट) के जरिए अपनी पसंद का प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दिया गया है, लेकिन चुनाव प्रक्रिया शुरू होते ही नामांकन से पहले ही गांव के कुछ दबंग -जिनमें राजनीतिक दलों से जुड़े लोग भी होते हैं- बैठक बुलाकर समरस प्रत्याशी चुनने का दबाव डालते हैं, जो लोकतांत्रिक नहीं है।"
सत्याशा अपने गांव का शिक्षा का स्तर केरल के गांवों के समान करना चाहती हैं। वह चाहती हैं कि गांव में कम से एक लाइब्रेरी हो, जो बच्चों के शिक्षा के स्तर को बढ़ाए। इसके अलावा वह युवाओं के रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए कई नई योजनाओं के बारे में भी विचार कर रही हैं, लेकिन यह तभी संभव है, जब उन्हें प्रशासन व शासन की ओर से पूरा सहयोग मिले।
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