शुरुआती मानसून के दौरान उत्तर-पश्चिमी हिमालय और मालाबार के इलाकों में बाढ़ की तीव्रता में वृद्धि देखी गई है। फोटो साभार: आईस्टॉक
जलवायु

पिछले 40 सालों में भारत में बाढ़ व जल आपूर्ति पैटर्न में आया भारी बदलाव

अध्ययन में पाया गया कि 173 गेजिंग स्टेशनों के लगभग 74 फीसदी में पानी के प्रवाह में भारी कमी देखी गई।

Dayanidhi

भारत में 173 गेजिंग स्टेशनों के पानी के प्रवाह के आंकड़ों पर आधारित एक नए अध्ययन के अनुसार, 1970 से 2010 के बीच भारत के अधिकांश इलाकों में बाढ़ की तीव्रता में पिछले 100 सालों की तुलना में कमी आई है। जबकि इसी अवधि में मानसून से पहले और शुरुआती मानसून के दौरान उत्तर-पश्चिमी हिमालय और मालाबार के इलाकों में बाढ़ की तीव्रता में वृद्धि देखी गई है।

गेजिंग स्टेशन, जिसे स्ट्रीम गेज के नाम से भी जाना जाता है, जल निकाय (नदी, नाला, नहर, झील, आदि) पर एक जगह होती है, जहां जल स्तर या पानी के बहने की व्यवस्थित माप ली जाती है।

एनपीजे नेचुरल हैजार्ड्स में प्रकाशित अध्ययन से पता चला है कि पश्चिमी और मध्य गंगा नदी बेसिन में अधिकतम बहाव में प्रति दशक 17 फीसदी की कमी आई है, जिसके लिए शोधकर्ताओं ने बारिश में कमी और सूखे को जिम्मेदार ठहराया है।

अध्ययन में अध्ययनकर्ता के हवाले से कहा गया है कि अध्ययन तीव्रता और समय दोनों को लेकर नई जानकारी प्रदान करता है। जिसमें कहा गया है कि पूरे भारत में बाढ़ का व्यवहार बदल रहा है। उन्होंने कहा ऐसी जानकारी योजना बनाने में मदद करती है, खासकर तब जब जलवायु परिवर्तन बाढ़ के खतरों को बदल देता है।

अध्ययन में पाया गया कि 173 गेजिंग स्टेशनों के लगभग 74 फीसदी में पानी के प्रवाह में भारी कमी देखी गई है। साथ ही शोधकर्ताओं के द्वारा सभी घाटियों में इन तेज प्रवाहों के समय में भी बदलाव देखा गया।

सबसे अधिक प्रवाह (पीक फ्लो) नदी द्वारा अपने पूरे चरम पर ले जाए जा रहे पानी की माप है। पीक फ्लो के रुझानों को समझने से क्षेत्र में बाढ़ के खतरों और पानी की उपलब्धता का अनुमान लगाने में मदद मिल सकती है।

नदी के प्रवाह की चरम सीमा व समय प्राकृतिक और मानवजनित कारणों को जोड़ने से तय होते हैं। जलवायु परिवर्तन वर्षा के पैटर्न और मिट्टी की नमी को बदल सकता है, जबकि भूकंप और भूस्खलन जैसी भूकंपीय गतिविधियां नदी के रास्ते को फिर से आकार दे सकती हैं। साथ ही, मानवीय हस्तक्षेप - जैसे शहरीकरण, जंगलों की कटाई और बड़े और छोटे बांधों का निर्माण आदि नदी के प्रवाह में भारी बदलाव कर सकते हैं।

शोध पत्र में शोधकर्ता के हवाले से कहा गया है कि कई भारतीय बेसिनों में, मध्यम बाढ़ सहित उच्च प्रवाह की घटनाएं जलाशयों को फिर से भरने के लिए जरूरी हैं, खासकर मानसून के मौसम के दौरान। ये सिंचाई, घरेलू जल आपूर्ति और जलविद्युत संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक हैं।

पीक फ्लो में गिरावट के पीछे कई कारण हो सकते हैं। यह पीक फ्लो अवधि के दौरान एकत्रित पानी की मात्रा को कम कर सकता है, खासकर ऐसी नदी घाटियां जो मानसून पर अत्यधिक निर्भर हैं

मध्य भारत में नर्मदा बेसिन में गिरावट उसी अवधि के दौरान बांध निर्माण से जुड़ी हुई है। इस बीच देश के दक्षिणी हिस्सों में सूखाग्रस्त दक्कन पठार में, मानसून के मौसम में पीक फ्लो में प्रति दशक आठ प्रतिशत की गिरावट आई और मानसून से पहले पीक में प्रति दशक 31 फीसदी की गिरावट देखी गई है।

अध्ययनों से पता चला है कि भारत में मानसूनी बारिश के पैटर्न में स्पष्ट बदलाव आया है, जहां कई क्षेत्रों में वर्तमान में अचानक बाढ़ आ रही है। पूरे मौसम में स्थिर, मध्यम बारिश के बजाय, अब लंबे समय तक सूखा पड़ रहा है

अध्ययन में यह भी पाया गया कि चरम प्रवाह का समय बदल गया है। कई बेसिनों में, पहली बारिश से पहले ही बाढ़ चरम पर पहुंच जाती है। इस तरह के बदलावों का जलाशयों के संचालन, सिंचाई योजना और शुरुआती चेतावनी प्रणालियों पर बड़ा असर पड़ सकता है।

शोध पत्र में शोधकर्ता के हवाले से कहा गया है कि अध्ययन के परिणाम एक ऐसी जल विज्ञान व्यवस्था की ओर इशारा कर रहे हैं जो अधिक अनिश्चित होती जा रही है।

अध्ययन में कहा गया है कि यदि हम चाहते हैं कि भारत की जल संरचना बदलती जलवायु से एक कदम आगे रहे, तो इन जानकारियों को जलाशय के लिए नए नियमों, शहरी जल निकासी डिजाइनों और सूखा-राहत योजनाओं में लागू करना अब जरूरी हो गया है।

अध्ययन में इस बात की भी चेतावनी दी गई है कि यदि बाढ़ की तीव्रता और समय के रुझानों में इन बदलावों को पूरी तरह से नहीं समझा गया, तो भारी आर्थिक और पर्यावरणीय नुकसान हो सकते हैं