सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष 
जलवायु

क्या सूखे की सदियों लंबी मार से धीरे-धीरे ढह गई सिंधु घाटी सभ्यता

भारतीय शोधकर्ताओं के नेतृत्व में द्वारा नए अध्ययन से पता चला है कि सिंधु घाटी सभ्यता का पतन अचानक नहीं, बल्कि लंबे समय तक चले सूखे, घटती बारिश और बदलती जलवायु का नतीजा था

Lalit Maurya

  • सिंधु घाटी सभ्यता का पतन सदियों तक चले जलवायु संकटों का परिणाम था।

  • नए अध्ययन से पता चला है कि सूखे और घटती बारिश के कारण यह सभ्यता धीरे-धीरे ढह गई।

  • उन्नत जल प्रबंधन और सुनियोजित शहरों के बावजूद, जल संकट ने कृषि को प्रभावित किया और लोगों को पलायन के लिए मजबूर किया।

  • अध्ययन के जो नतीजे सामने आए वे चौंकाने वाले हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि इस अवधि में औसत तापमान करीब 0.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ा, जबकि सालाना बारिश में 10 से 20 फीसदी तक की कमी आई।

सदियों पहले भी जलवायु संकट ने इंसानी सभ्यता को प्रभावित किया था। सिंधु घाटी सभ्यता इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जो बार-बार पड़े सूखों के कारण धीरे-धीरे ढह गई।

इस बारे में भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किए नए अध्ययन से पता चला है कि सिंधु घाटी सभ्यता का अंत किसी एक दिन में नहीं हुआ। यह प्राचीन शहरी सभ्यता सदियों तक चले लंबे सूखे और घटती बारिश के कारण धीरे-धीरे बिखरती चली गई। मतलब कि इसका पतन लंबे समय तक चली जलवायु संकटों की एक श्रृंखला का परिणाम था।

गौरतलब है कि सिंधु घाटी सभ्यता, जो मौजूदा भारत-पाकिस्तान सीमा क्षेत्र में फैली थी, अपने समय की सबसे उन्नत सभ्यताओं में गिनी जाती थी। यह सभ्यता आज से करीब 5,000 से 3,500 साल पहले अस्तित्व में थी और उसी दौर में थी, जब मिस्र की प्राचीन सभ्यता फल-फूल रही थी। अध्ययन के मुताबिक इस सभ्यता को घटती बारिश, बढ़ते तापमान और सूखती नदियों का सामना करना पड़ा।

सदियों तक चले जल संकट ने कृषि को नुकसान पहुंचाया, पानी की उपलब्धता घट गई और लोगों को शहर छोड़कर छोटे इलाकों और नए क्षेत्रों की ओर पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा।

उन्नत शहर, लेकिन अनसुलझा पतन

अपने चरम पर करीब 4,500 से 3,900 साल पहले सिंधु घाटी सभ्यता के शहर बेहद सुनियोजित थे। जल प्रबंधन की उन्नत प्रणालियां, पक्की सड़कें और नालियों इसके शहरों की पहचान थे। लेकिन इसके बाद यह सभ्यता धीरे-धीरे क्यों कमजोर पड़ने लगी। लेकिन ऐसा क्यों हुआ यह लंबे समय से इतिहासकारों के लिए एक रहस्य बना हुआ है।

इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी), गांधीनगर से जुड़े वैज्ञानिकों के नेतृत्व में हुए इस अध्ययन में शोधकर्ताओं जलवायु मॉडल, गुफाओं में मौजूद स्टैलेक्टाइट-स्टैलेग्माइट की रासायनिक संरचना और उत्तर-पश्चिम भारत की झीलों के जल स्तर के आंकड़ों का विश्लेषण किया है।

इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए वे चौंकाने वाले हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि इस अवधि में औसत तापमान करीब 0.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ा, जबकि सालाना बारिश में 10 से 20 फीसदी तक की कमी आई।

जर्नल कम्युनिकेशन्स अर्थ एंड एनवायरमेंट में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक करीब 4,450 से 3,400 साल पहले कम से कम चार लंबे सूखे पड़े। इनमें से सूखे की हर घटना 85 साल से भी ज्यादा समय तक बनी रही, जिसने सिंधु घाटी सभ्यता के 65 से 91 फीसदी इलाके को प्रभावित किया। यानी ये सूखे किसी एक पीढ़ी तक सीमित नहीं थे, बल्कि कई पीढ़ियों ने उनका असर झेला था।

शोधकर्ताओं ने सूखे के दौरान नदियों के बहाव में आए बदलाव के आधार पर इस क्षेत्र को चार अलग-अलग हिस्सों में बांटा। इनमें ऊपरी सिंधु (हड़प्पा क्षेत्र), मध्य सिंधु (कोट दीजी, गणवेरीवाला, कालीबंगन और बनावली), निचला सिंधु (मोहनजोदड़ो और चन्हुदड़ो) तथा सौराष्ट्र क्षेत्र (धोलावीरा, सुरकोटड़ा और लोथल) शामिल हैं।

सूखे के दौरान इन क्षेत्रों में पानी की कमी अलग-अलग स्तर पर रही। इसी अंतर ने तय किया कि लोग कहां कृषि कर सकते हैं और कहां बस सकते हैं। उदाहरण के लिए, 3,826–3,663 वर्ष पहले और 3,531–3,418 वर्ष पहले पड़े सूखों में मध्य सिंधु क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ, जबकि सौराष्ट्र जैसे बाहरी इलाके अपेक्षाकृत कम प्रभावित रहे।

इसी वजह से लोगों ने अपनी खेती, बसावट और जीवनशैली स्थानीय पानी की उपलब्धता के हिसाब से बदली।

जलवायु से सीधे तौर पर जुड़ी थी कृषि

ये भौगोलिक पैटर्न पुरातात्विक साक्ष्यों से भी मेल खाते हैं। प्रमाण दिखाते हैं कि अलग-अलग नदी घाटियों में कृषि के तरीके अलग और लगातार एक जैसे रहे, जिससे पता चलता है कि शुरुआती किसान स्थानीय जल उपलब्धता के हिसाब से कृषि करते थे, यानी खेती सीधे जलवायु से जुड़ी थी।

अध्ययन के मुताबिक सूखे ने सिंधु घाटी सभ्यता में बस्तियों के स्थान निर्धारण को प्रभावित किया। उनके मुताबिक 5,000 से 4,500 साल पहले बस्तियां अधिक बारिश वाले क्षेत्रों में केंद्रित थीं। हालांकि, 4,500 वर्ष पहले और उसके बाद से, बस्तियां सिंधु नदी के आसपास शिफ्ट हो गईं। ऐसा शायद इसलिए था क्योंकि सूखे ने जल उपलब्धता को प्रभावित करना शुरू कर दिया था।

करीब 3,531 से 3,418 साल पहले एक बेहद भीषण सूखा पड़ा, जो 113 वर्षों तक चला। सूखे की यह घटना सभ्यता के केंद्र में बसे बड़े शहरों के कमजोर पड़ने का कारण बनी। मोहनजोदड़ो जैसे बड़े शहर धीरे-धीरे खाली होने लगे।

इसके साथ ही बड़े शहर धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगी और लोग छोटी बस्तियों में बिखरने लगे। हालांकि सभ्यता खत्म नहीं हुई, बल्कि लोगों ने खुद को नए हालात के अनुसार ढाल लिया। उन्होंने पानी की ज्यादा खपत करने वाली गेहूं और जौ जैसी फसलों की जगह सूखा सहने वाले मोटे अनाज अपनाए और ज्यादा नमी वाले इलाकों की ओर पलायन किया। मध्य सिंधु में बढ़ते सूखे ने लोगों को पूर्व की ओर गंगा के मैदानों और दक्षिण में सौराष्ट्र की तरफ बढ़ने को मजबूर कर दिया।

अनुकूलन ही अस्तित्व की कुंजी

यह दौर दुनिया भर में पहचाने जाने वाले 4.2 हजार साल पुराने सूखे से मेल खाता है, जिसे मेघालयन युग की शुरुआत माना जाता है। अध्ययन में इस समय के दौरान हुई बारिश में गिरावट को स्पष्ट रूप से मापा गया है, जिसे पहले भी दक्षिण एशिया में बड़े सांस्कृतिक बदलावों से जोड़ा जाता रहा है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक यह अध्ययन दर्शाता है कि शुरुआती समाज जलवायु के दबाव के साथ किस हद तक खुद को ढाल पाए। हालांकि शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि सिंधु घाटी सभ्यता का पतन सिर्फ सूखे की वजह से नहीं हुआ।

कुछ वैज्ञानिकों का अनुमान है कि पश्चिमी भारत में नदियों के रास्ते बदलने जैसी भूगर्भीय हलचलों ने संकट को और गहरा दिया।

वैज्ञानिकों के मुताबिक, सिंधु घाटी के लोग हमें यह सिखाते हैं कि पानी का समझदारी से प्रबंधन, बदलती जलवायु के मुताबिक खेती और मजबूत सामाजिक-व्यापारिक नेटवर्क किसी भी समाज को संकट में भी टिके रहने में मदद कर सकते हैं। देखा जाए तो अनुकूलन ही अस्तित्व की कुंजी है।